tag:blogger.com,1999:blog-33976254551531855072024-02-07T05:43:41.180-08:00रोटी, कपड़ा और सिनेमाUnknownnoreply@blogger.comBlogger35125tag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-76404353111229619332012-08-13T01:03:00.000-07:002012-08-13T01:34:33.249-07:00अन्हे घोड़े दा दान: 'आग न लगा दूं मैं इस दुनिया को..'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzBk4P_UeOsSuN7IjD_kj5Gyf3ON1Zk3E9Ol1EThP2WMheZ9LV0ospsunPPWK28Pqs4W0INkr0K94zXkRspvxlR8mVGPeM-XhR36fWcTQ72UJJk7SDgb6rFF9K2dVEp4KJewqldNs8X7U/s1600/anhey+ghore+da+dan.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="257" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzBk4P_UeOsSuN7IjD_kj5Gyf3ON1Zk3E9Ol1EThP2WMheZ9LV0ospsunPPWK28Pqs4W0INkr0K94zXkRspvxlR8mVGPeM-XhR36fWcTQ72UJJk7SDgb6rFF9K2dVEp4KJewqldNs8X7U/s400/anhey+ghore+da+dan.jpg" width="400" /></a><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">यूं तो यह देखने की फ़िल्म ज़्यादा है,
ज़्यादा इसके सन्नाटे को सुनने की, कभी रिक्शा के पहियों की और कभी आती हुई रेलगाड़ी
की आवाज़ को सुनने की। और यह सोचने की कि कब-कब मरा जा सकता है और कब नहीं। </span><span style="font-size: 12pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">आप जब इस फ़िल्म में दाख़िल होते हैं तो वह
ध्वस्त होने का दृश्य है। गाँव के किनारे पर एक मकान, जिसे आधी रात एक
बुलडोजर ढहा रहा है। कैमरा स्थिर। उड़ती धूल कैमरे की आँखों में नहीं गिरती, पर
आपकी आँखों में गिरती है। आप आँखें मल रहे हैं, लेकिन वहाँ वे बूढ़े, एक पुलिस अफ़सर
के सामने खड़े हैं। तीन सरदार, जो सन ऑफ सरदार के सरदार नहीं हैं, जो सिंह इज किंग
नहीं हैं, जो सरसों के खेतों में मोहब्बत के गाने गाते हुए कभी नहीं भागे, जो
कनाडा नहीं गए और न ही जाना चाहते हैं, वे तीन बूढ़े सरदार एक पुलिस अफ़सर के सामने
खड़े हैं, और वह उनमें से दो को जाने को कहता है, एक को अकेला छोड़कर, जिसका वह घर
है। टूटा हुआ घर, जिसकी ज़मीन बताते हैं कि पंचायत की है। जैसे वे सब ज़मीनें,
जिनमें से सोना निकलता है, या कोयला या अभ्रक, वे हिन्दुस्तान की हैं, और इस तरह
उन हिन्दुस्तानियों की बिल्कुल नहीं, जो वहाँ रहते हैं, रहते आए हैं। यह कानून है
कोई जिसे वे पुलिसवाले हमेशा कहते हैं - तू हमें सिखाएगा क्या? </span><br />
<a name='more'></a></div>
<span lang="HI"></span>
<span lang="HI">
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"></span></span>
<br />
<div style="text-align: left;">
<span lang="HI"><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><span style="font-size: 12pt;">जिसका वह घर है, जानते हैं कि वह क्या कहता है? कि वे दो साथी, जो उसके सुख-दुख
में भाई जैसे थे, उन्हें भाग जाने को क्यों कहा गया और क्या है ऐसी बात, जो पुलिस
वाला उससे अकेले में करना चाहता है। वह जो डर है उसकी आँखों में और उसे अभी
अलग-अकेला जो कर दिया गया है, इसे आप बता नहीं सकते, बस भुगत सकते हैं।</span></span></span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br />कैसे पकड़ती है यह फ़िल्म उस खालीपन को, उस
आधे टूटे मकान को, जिसकी एक निकली हुई ईंट से बनी जगह में से कैमरा एक रेलगाड़ी को
देखता है। रेलगाड़ियाँ बार-बार, गाँव में भी, फिर शहर में भी, फ़िल्म के सारे किरदार
रेलगाड़ियों के रास्ते के पास ही रहते हैं। रेलगाड़ियों से कोयला आता है और लोहा और
अभ्रक और सोना भी शायद, लेकिन जब वे वहाँ रुकती हैं, उनके आशियानों के पास, तो बस
उदास लोग उतरते हैं। अब कारखाने भी उतरेंगे ना, और तुम्हें अमीर बनाएंगे भाइयों,
तुम्हारे बेटों को नौकरियां देंगे और उन्हें रिक्शा नहीं चलानी पड़ेगी। बस वे
रिक्शा यूनियन की हड़तालों की तरह यहाँ भी लाल झंडे न उठा लें। ऐसा किया तो वाज़िब
कदम तो उठाना ही पड़ेगा। कानून भूल गए? </span></div>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">उन तीन में से एक मल सिंह का बेटा मेलू सिंह शहर में रिक्शा चलाता है। हड़ताल के
बीच उसके सिर पर एक चोट है, जिसे वह बताता है कि बैलेंस बिगड़ गया और दीवार से टकरा
गया, और एक गाड़ी सड़क पर रिक्शों को उठाकर ले जा रही है। एक पूरी कतार जिसे देखते
हुए आप मौत की दिशा में जमते जाते हैं। कहीं जादू है कोई अगर सिनेमा में, तो वह सत्य
नागपॉल के कैमरे की नज़र में है और निर्देशक गुरविंदर सिंह की इस पूरी फ़िल्म में। उस ठहराव
में, जिसमें वे बिना कुछ कहे फ़िल्म को गहरा बनाते जाते हैं, आपके दिमाग पर पक्के
मार्कर से छापते जाते हैं। शुद्ध सिनेमा, जिसमें कहानी वहाँ है, जहाँ कैमरा देखता
है, रुका रहता है, आपको रोके रखता है। कहीं कहीं तो आपको यह तक लगने लगता है कि अब शायद ऐसा कुछ नहीं, जो इस
माध्यम में कहा नहीं जा सकता। जो कुछ भी फ़्रेम में है, वह आपको जानता है और आपसे बात करता है। गु</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">रविंदर, सत्य और फ़िल्म के साउंड डिजाइनर मंदर कुलकर्णी ने पगडंडी की धूल और रेल के फाटक तक में साँसें डाल दी हैं। वे जब कुछ नहीं कहते, तब भी एक साथ इतना कुछ कहते जाते हैं।</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">क्या अद्भुत दृश्य कि कहीं और जा रहा था मेलू सिंह का बाप और एक भीड़ आ रही है
शोषितों की, दलितों की, जिनके पास उनका एका ही है, जो भी है, शक्ति तो कोई नहीं।
कहीं और जा रहा था मेलू सिंह का बाप, लेकिन मुड़ता है और भीड़ में शामिल हो जाता है।
उसकी आँखों में दिए बराबर भी रोशनी नहीं शायद लेकिन उसका खड़े रहना और फिर पलटकर
सबके साथ होना दुनिया भर के सिनेमा के कमाल दृश्यों में से एक। एक संकरी गली,
उसमें बस देर तक एक दृढ़ भीड़ के कदमों की आहट, जिसके पास न खोने को कुछ है, न पाने
को। और देखिए, दर्ज़ी लगातार कपडे सिल रहा है, चक्की वाला आटा पीस रहा है, बस रुककर
एक बार भीड़ को देखते हुए। इतने सारे लोग ख़ुशी-ख़ुशी चबूतरों पर खेल रहे हैं और भीड़
सरपंच के घर जाकर रुकती है। कौन है भीड़? खेतों के मज़दूर, जिनका कोई खेत नहीं? अब
तो घर भी नहीं। और कहाँ था आपका सिनेमा अब तक, या वह, जिसे आप सिनेमा कहते हैं?
शर्म नहीं आई उसे 'दिल बोले हड़िप्पा' या 'सिंह इज किंग' पर? कैसे करते हैं आप
मोहब्बत, गर्व और विकास की बातें? कैसे गा लेते हैं पुत्त जट्टां दे ने गबरू? यही
पुत्त, जो सरपंच के घर में बंदूक लेकर खड़े हैं और वहीं सरपंच का एक दलित चौकीदार,
जो दुनिया का सबसे कमज़ोर इंसान लगता है। भीड़ आश्वासन के साथ वापस आती है और गोली
का इंतज़ार करती रहती है। साथ में गालियाँ सुनकर, कि कैसे उनके बेपढ़े बच्चों की
नौकरियां लग जाती हैं इस डेमोक्रेसी में।</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">आप जो भी हैं, अगर आरक्षण के ख़िलाफ़ चिल्लाना अपना जन्मजात फर्ज़ समझते हैं, या इस
कारखानों, नहरों, बाँधों और सड़कों के विकास के पाँव से लटककर आप अमेरिका बनना
चाहते हैं तो आपको पंजाब (या जिस भी राज्य में आप हों) के उस गाँव में जाना चाहिए।
न जा पाएँ तो यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह बहुत बड़ी कहानी है, जिसे गुरदयाल सिंह
(उस उपन्यास के लेखक, जिस पर यह फ़िल्म बनी है) और गुरविंदर सिंह एक छोटे से गाँव
के एक मकान और शहर में रिक्शा चला रहे मेलू सिंह के माध्यम से ही कह देते हैं। यह
हम सबकी कहानी है। उन सबकी, जिन्हें इस 'विकास' ने उनके घरों से निकाल फेंका है। और
बिना उनकी बात किए उन सबकी भी, जिनके लिए यह 'विकास' स्वर्ग लेकर आया है।</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">शहर में फ़िल्म नहर के पास भी ठहरती है, जहाँ थककर मेलू सिंह कुछ खाता है (शायद
खाता हो, हमें तो पानी पीते ही दिखाया बस) और फिर अपने रिक्शा पर सो जाता है। नहर
भी रेलगाड़ी जैसी, जिससे ख़ुशहाली आनी थी, आई भी है शायद लेकिन जट्टों के घर में।
मेलू सिंह की माँ दिन भर उनके खेतों से नरमा चुगकर आती है और लौटते हुए बकरियों के
लिए थोड़ा सा चारा लाने पर गालियाँ सुनती है। वह याद करती है, वे अच्छे दिन, जब
गरीब के असीस के लिए ख़ुशी से दिया करते थे लोग। क्या ऐसा था कभी या उसके दिमाग में
कोई पुरानी कहानी है बस? यहाँ फ़िल्म सबसे ज़्यादा बात करती है, उस औरत के मुँह से,
जो बाहर ही सो गई है, सर्दी में बाहर। फ़िल्म जहाँ जहाँ बोलती है, वहाँ इतने स्वाभाविक डायलॉग हैं, सजे हुए नहीं लेकिन फ़िर भी चीर डालने वाले। इतनी सारी बातें, जिन्हें पंजाबी में ही बेहतर कहा जा सकता था। लेकिन वह बाहर क्यों सो गई है? कोई वजह नहीं। पूछो तो कोई दुख नहीं। काँटा
भी नहीं, जिसे बता दे और कोई निकाल ले। एक चुप किशोर बेटा, जिसे शायद किसी ज़मींदार
के लड़के ने मारा है। उसके साथ बकरी को भी। एक बेटी, जो माँ हो गई है, जैसे ऐसे
घरों की सब लड़कियाँ हो जाया करती हैं। बकरी को बुखार है और वह रात भर उसके पास
बैठी है।</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">क्या क्या कहा जाए अब? क्या मेलू सिंह के साथ रात को बठिंडा की सड़कों पर घूमा जाए,
जब वह कोई दोस्त खोज रहा है जिसके घर में सर्दी की उस रात सोया जा सके? रिक्शा
चलाने वाले उसके दूसरे उदास दोस्तों से कोई बात की जाए क्या, जो एक खंडहर किले की
छत पर कुछ देर पहले उसके साथ पी रहे थे?</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">- क्या उखाड़ लिया मेलू सिंह तूने गाँव से
यहाँ आकर? सात साल से रिक्शा चला रहा है..</span><br />
<div style="text-align: left;">
<span lang="HI"><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><span style="font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-size: 12pt;">वह दोस्त यह सवाल ख़ुद से भी पूछ रहा है और बता रहा है कि जो वह कहना चाहता है, उसे
बिना पिए समझा नहीं जा सकता। कितना कुछ है उसके भीतर! दुनिया भर की बेचैनी और विवशता। अभी रात है, लेकिन दिन में
आपने देखा होगा, कि इस किले की छत से सामने किसी फ़ैक्ट्री की एक बड़ी सी चिमनी
दिखती है। आप फ़िल्म में जहाँ भी जाएँ, वह चिमनी लगातार आपके सामने रहती है। उसी की
ओर शायद रात में मेलू सिंह का वह दोस्त गुस्से में खाली बोतल फेंकता है और कहता है - 'आग न
लगा दूं मैं इस दुनिया को...'</span></span></span><br />
<span lang="HI"><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">वह लड़की, जो बीमार बकरी को सहला रही है, जिसकी माँ अब अन्दर जाकर सो गई है, और
पिता बेटे से मिलने शहर गए हैं - बेटी से बार-बार पूछकर कि वह एक बार मना कर दे तो
शायद न जाएं - वह लड़की अचानक उठकर चल देती है। आधी रात उस गाँव की सुनसान गलियों
में। कहाँ जाएगी वह लड़की, कोई नहीं जानता। कम से कम मैं तो नहीं। लेकिन सचमुच का एक बड़ा
अँधेरा है, जिसे इसी फ़िल्म ने, सत्य के कैमरे ने ही जैसे डिस्कवर किया है। यह अद्भुत सिनेमेटोग्राफ़ी है और
निर्देशन भी। अगर</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"> मैंने पहले यह नहीं कहा तो अब कहना चाहिए कि गुरविंदर सिंह उन फ़िल्मकारों में शामिल हो गए हैं, जिनकी फ़िल्मों का मैं बेसब्री से इंतज़ार करूंगा। उनमें, जिन्हें उठाकर हमें अपनी हथेलियों पर बिठा लेना चाहिए।</span></span></span><br />
<span lang="HI"><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><span style="font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-size: 12pt;">फ़िल्म की शुरुआत में और आख़िर में भी, देर रात कोई अन्धे घोड़े का दान माँगता जाता है, कहता हुआ कि यह परम्परा है, और कोई
उसे धमका रहा है कि अपने घर भाग जा। कौन डाँटता है दान या भीख माँगने वालों को
सबसे ज़्यादा? 'कर के कमाओ', आप कहते हैं, और जो कमाते हैं, वे इस फ़िल्म में अपनी
नज़रों में छुरियाँ लेकर आपका और मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। वे गालियाँ सुन रहे हैं,
अँधेरे में लालटेनें जाकर दो रोटी और साग खाते हुए, और अपने घरों को ढहते देखते
हुए, पुलिस से पिटते हुए, महीनों-सालों के लिए जेलों में जाते हुए, यातनाएँ सहते
हुए, रिक्शे चलाते और मार खाते हुए, और तब भी इंसानियत, भाईचारे और लोकतंत्र के
वास्ते देकर आपसे गिड़गिड़ाकर शरण माँगते हुए - अपने ही घरों, खेतों और जंगलों में।</span></span></span><br />
<span lang="HI"><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><span style="font-size: 12pt;"><br /></span>
<span style="font-size: 12pt;">यक़ीन मानिए, जिस दिन उनके पास माचिस होगी और थोड़ा मिट्टी का तेल, वे हमारी
'विकासशील' दुनिया में आग लगा देंगे। और आपको याद रखना चाहिए कि पहले उन्होंने पूरी
विनम्रता से अपना हक़ माँगा था।</span></span></span></div>
<span lang="HI"><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">
</span></span><span lang="HI"><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">
</span>
<span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><o:p></o:p></span></span></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-91777611658248052172012-08-08T18:37:00.000-07:002012-08-08T18:54:56.004-07:00जो जो बच्चन बने, वे नायक थे, लेकिन सबसे ज़्यादा जले भी वे ही<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjA5IPyQCEJb-EF56xjjRnX10AFbI_mWjupJZUq-P1qgMjOMd_5ADOF4EmctwZNstR-YeTT0lo39QyxNnjapNUsEJGSsCIbSz5jqwz8WbMuNBP9HUBz9pyWzTpklxPLSi5dFs_8wLgWWq4/s1600/gangs-of-wasseypur-2-poster.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjA5IPyQCEJb-EF56xjjRnX10AFbI_mWjupJZUq-P1qgMjOMd_5ADOF4EmctwZNstR-YeTT0lo39QyxNnjapNUsEJGSsCIbSz5jqwz8WbMuNBP9HUBz9pyWzTpklxPLSi5dFs_8wLgWWq4/s400/gangs-of-wasseypur-2-poster.jpg" width="256" /></a></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: "Edwardian Script ITC"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-US; mso-hansi-font-family: "Edwardian Script ITC";">वह शुरू से जानता है कि वह पानी
को मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश कर रहा है और वह जितना कसके पकड़ता है, पानी उतना
जल्दी छूटता जाता है और जीवन भी। जीवन, जिससे उसे मोहब्बत है, बिल्कुल शुरू से ही।
बल्कि ज़िन्दगी से उस जितनी मोहब्बत पूरी फ़िल्म में किसी को नहीं। उसके अलावा किसी
लड़ैया में इतना साहस नहीं कि अपने खूनी वर्तमान से पीछे जाकर देखे कि उसे तो नहीं
करना था यह सब, और एक अलसुबह चौबारे पर खड़ा रोने लगे। कि कैसे वह शशि कपूर था
अन्दर, या हो रहा था/होना चाहता था, और उसके मरते संजीव कुमार ने, या कोसती वहीदा
रहमान ने, या पीठ में छुरा घोंपते प्राण ने उसे बच्चन बनाकर छोड़ा। जो जो बच्चन
बने, वे नायक थे, लेकिन अन्दर से और बाहर से सबसे ज़्यादा जले भी वे ही।<br /></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: "Edwardian Script ITC"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-US; mso-hansi-font-family: "Edwardian Script ITC";">वह लकड़बग्घों की ऐसी दुनिया में है, जहां उन गानों के लिए कोई जगह नहीं, जो उसकी
मोहसिना उसे ज़िन्दा रखने के लिए गाती है, कभी उसे बांहों में भरकर, कभी फ़ोन पर।
वहां नहीं मारना कायरता है और वह एक समय तक गांजे को चुनता है ताकि अपने बाहर की
दुनिया से रिश्ता तोड़ ले। लेकिन बदला उसी को अपना आख़िरी हथियार चुनता है और जब
बदला अन्दर हो, तब बाहर के बादल, बारिश और बच्चे नहीं दिखते। अपने बच्चे भी नहीं।</span><br />
<a name='more'></a><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: "Edwardian Script ITC"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-US; mso-hansi-font-family: "Edwardian Script ITC";"> <br />फ़ैज़ल ख़ान की हिंसा उसकी इच्छा से ज़्यादा उसका कवच है, भले ही वह ख़ुद इसे जानता है
या नहीं। इसी कवच के कारण वह मारकर या मारते हुए अपने पिता जितने घृणित ढंग से
नहीं हँस पाता। जश्न मनाने का उसके पास कोई कारण नहीं। उसके जैसे दो रूप हैं। लोहे
के टेंडरों की बात कोई और करता है और मोहसिना से गाने कोई और सुनता है। वह पैसा
कमाता है, शक्तिशाली बनता है लेकिन उसके बचपन से लेकर अंत तक उसके भीतर तक कुछ
नहीं पहुंचता, सिनेमा और मोहसिना के सिवा। और दोनों के साथ ही वह रो रहा है। <br />
<br />
इस हिस्से में फ़िल्म कहीं उभरकर पॉलिटिकल नहीं होती। अपने गानों में खूब होती है,
शादी के गानों में भी। और इक्का-दुक्का जगह अपने डायलॉग्स में, जब यह शहाबुद्दीन
की तरह चुनाव जीतकर खुला खेलने और गाय का दूध दुहकर मुख्यमंत्री बनने की बात करती
है। लेकिन मुख्यत: यह व्यक्तिगत कहानी और कभी-कभी कविता कहने वाला शुद्ध सिनेमा है
और आप और हम चाहें या न चाहें, इसे कोई क्रांति नहीं करनी। हां, हंसी के खोल में
क्रूर परपेंडिकुलर देना है, जिसका मरना तसल्ली दे। अपने किरदारों के संजय दत्तीय
और सलमान ख़ानी स्टाइलों और आपकी हंसी के बीच यह आपको मांस के लोथड़ों और खून की
नालियों के रास्ते पर ले जाएगी और आपका हाल नहीं पूछेगी। आपको बुज़ुर्गाना सलाह
नहीं देगी, सुधरने या बिगड़ने (आपके लिए इनके जो भी अर्थ हों) की सीख नहीं देगी, और
भावुक नहीं करेगी, सन्न करेगी। आप जब बाहर निकलते हैं तो आप नहीं जानते कि आपको
क्या करना चाहिए। बल्कि आप हैं कौन और क्या आपको भूख लगी है और क्या यह सही समय है
कि आप कहीं चैन से बैठकर सब्जी-रोटी खा लें। क्या अब के बाद कोई भी सही समय होगा
ऐसा? यह एक शानदार सिनेमाई दावत थी भीतर, अपने सारे खेलों और जादू के साथ, लेकिन
आप इतने बेचैन क्यों हैं? <br />
<br />
लेकिन बेचैनी की बात से पहले हमें उस सिनेमाई दावत की बात करनी चाहिए, जिसमें इतने
लम्बे-लम्बे शॉट हैं (कभी कभी शायद उनके खूबसूरत भ्रम भी) कि कभी-कभी तो फिल्म का यथार्थ
बाहर के यथार्थ से कुछ ग्राम ज्यादा विश्वसनीय होने लगता है। अनुराग और राजीव रवि
इतनी खूबसूरती से अंधेरे और उजाले के बीच अपने लम्बे दृश्यों को तैरने देते हैं।
ख़ासकर फ़ैज़ल के घर पर हमले के वक़्त उसका अपनी छत पर पहुंचना, घायल होना और फिर छतें
फाँदते हुए उसका गिरना, घायल होना, ठहरना, फिर उठना - विजुअली यह पूरा सीक्वेंस दुनिया
भर के सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ हिस्सों में से एक है। इसका ठहराव और एक समय के बाद
पीछे शुरू हुआ संगीत इसे और कमाल बनाता है। बल्कि उससे पहले सुल्तान के अपने
साथियों के साथ उसके घर पर हमला करने और तब फ़ैज़ल के 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' वाले
कमरे से पूरे परिवार को सुरक्षित जगह तक ले जाने वाले हिस्से जिस तरह शूट किए गए हैं, वे इस फ़िल्म को अलग कतार में ले जाते हैं। हमारे सिनेमा में, और खासकर इस जॉनर और इस कहानी के सिनेमा में और वह भी इतने
सारे किरदारों के दृश्यों में, इतने कम कट्स के साथ अपनी बात कहना बतौर फ़िल्मकार,
अनुराग को भी बहुत ऊपर ले जाता है। <span lang="HI" style="font-size: 12pt;">फ़ज़लू को मारने के सीन से लेकर आख़िर
में स्लो मोशन में ऊपर फ़ैज़ल तक बन्दूकें पहुंचा रहे टैन्जेंट और डेफ़िनेट तक बहुत सारे लाजवाब सीन हैं। लम्बे चेज़ सीक्वेंस हैं, जो बेचैन तो हैं ही, उससे ज़्यादा
मज़ेदार हैं। ख़ासकर शमशाद का डेफ़िनेट का पीछा करने का सीक्वेंस बहुत अच्छा है। </span>इस पूरे सीक्वेंस में
राजकुमार यादव ने कमाल ऐक्टिंग की है।
<br />
<br />
'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की एक और उपलब्धि यह है कि यह हमें अपने किरदारों की साधारण
हिन्दुस्तानी ज़िन्दगियों में, बिना उनकी सादगी और ज़बान खोए, हंसने-मुस्कुराने की
खूब सारी जगहें देती है। और ऐसा करने के लिए इसे बाहर से कुछ लाने या कुछ नया
'क्रियेट' करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि यह वह सब पकड़ती है, जो हर वासेपुर के हर
मोड़ पर हम सब देखते आए हैं। वे कभी विडम्बनाएं हैं, कभी भोलापन या बेवकूफ़ी और
कभी-कभी हमारे बीच की बेहद आम बात कि फ़िल्मी कलाकारों के ज़िक्र में एक बुज़ुर्ग
कहते हैं कि वो नरगिस और सुनील दत्त का बेटा है ना। चार आदमियों के बीच बैठे एक
आदमी को फ़ैज़ल ख़ान ने मार दिया है और फ़िल्म बाकी चारों के बाद के रिएक्शन पर ठहरती
है, जब भौचक्के वे फिर से सिगरेट पीने और चने खाने लगे हैं। या यह कि मातम पर
यशपाल शर्मा जिस बैंड पर चढ़कर 'तेड़ी मेहड़बानियां' या 'याद तेड़ी आएगी' गा रहे हैं,
उसका नाम 'आशा बैंड' है। या यह कि एक-दूसरे की जान के प्यासे फ़िल्म के किरदार जिन
गलियों से भाग रहे हैं, उनमें 'मैंने प्यार किया' या 'दिल तो पागल है' के पोस्टर
लगे हैं। कहीं पीछे कैलेंडर है, जो पाप न करने की सीख दे रहा है। सुल्तान की हत्या
करने निकले तीन लोग उसे घेरने के दौरान आपस में फ़ोन पर यह बात कर रहे हैं कि
हैल्मेट लगाकर कितनी गर्मी लगती है और कटहल से क्या क्या बनाया जा सकता है। या चप्पलों
के जो दृश्य हैं, कि दुकान लूटने घुसने लड़के बाहर चप्पल उतारकर घुसते हैं। फ़ैज़ल को
उसके बाप के मरने की ख़बर मिली है और वह चला जाता है और फिर चप्पल पहनने लौटता है। या
एक सीन में पीछे ऋचा समझा रही हैं कि वॉशिंग मशीन में रंगीन और सफेद कपड़े अलग-अलग
धोने हैं। <br />
<br />
यह ऐसी फ़िल्म है, जिसके इतने सारे ऐक्टर या लगभग सभी ऐक्टर अपनी ऊंचाइयां छूते
हैं। तिग्मांशु धूलिया दूसरे हिस्से में पहले से भी आगे जाते हैं, ऋचा चड्ढ़ा भी।
नवाज़ुद्दीन, जिन्होंने बेहद मुश्किल किरदार और पहले हिस्से से दूसरे में उसका
बदलाव जिया है, जिसका बाहर का कवच लोहा है और अन्दर कहीं मोम। राजकुमार यादव,
जिनका किरदार छोटा है, लेकिन प्रतिभा नहीं। ज़ीशान क़ादरी, पंकज त्रिपाठी, विनीत
कुमार और बहुत सारे वे लोग, जिनके नाम यहां नहीं लिए जा सके। और क्या यह दोहराने
की ज़रूरत है कि स्नेहा खानवलकर का संगीत (वरुण ग्रोवर और पीयूष मिश्रा के गीत)
और जी.वी. प्रकाश कुमार का बैकग्राउंड स्कोर फ़िल्म को कहां ले जाता है? <br />
<br />
लेकिन यह बेचैन क्यों करती है? क्या उस बच्चे के लिए, जिसके लिए उसके अब्बू बस एक हलो
छोड़कर गए हैं और बदले और मौत की विरासत, जिसे जो भूल सकेगा, वही बचेगा? या फ़िल्मों
की दीवानी उसकी मां के लिए, जो आख़िर अपने हीरो की मौत लेकर फ़िल्मों के इस शहर आई
है? या हमारे लिए, जिनके पास यह कोई रास्ता नहीं छोड़ती? न बदला, न गांजा। न बच्चन,
न शशि कपूर। फ़िल्म के दौरान चलती हंसी के बाद आख़िर एक सन्नाटा। ऐसा डर, जो आख़िर
निडर बनाता है और संत भी। या बस बेहतर इंसान, जिसे फिर से याद आया है कि रोटी चाँद
से बड़ी है। </span></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-23098664763071582822012-07-06T01:09:00.000-07:002012-07-06T01:20:51.699-07:00एक ‘टैं टैं टों टों’ लड़की<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: right;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9m6NcG4OJbMWW5X7vAwB0mj3zd5j40V5mOWfHicL5nhZXBBl9gydCwBxquaMHY9swvEDCbdl2UZYcsdMHN-WY7m2rXP8NPqurucbPSNDtCaWOzO8Q4cUBtOAxktZAERxMczbSm1Qd7vk/s1600/SNEHA+KHANWALKAR+09.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9m6NcG4OJbMWW5X7vAwB0mj3zd5j40V5mOWfHicL5nhZXBBl9gydCwBxquaMHY9swvEDCbdl2UZYcsdMHN-WY7m2rXP8NPqurucbPSNDtCaWOzO8Q4cUBtOAxktZAERxMczbSm1Qd7vk/s400/SNEHA+KHANWALKAR+09.jpg" width="260" /></a></div>
<span style="font-family: Mangal;">वह एक लड़की थी,
स्कूलबस के लम्बे सफ़र में चेहरा बाहर निकालकर गाती हुई,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">रंगीला का कोई गाना और इस
तरह उस संगीत की धुन पर कोर्स की कविताएं याद करती हुई,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जिन्हें स्कूल के वाइवा
एग्ज़ाम में सुना जाता था। वाइवा पूरी क्लास के सामने होता था। ऐसे ही एक दिन वह
टीचर के पास खड़ी थी और कविता उस संगीत से इतना जुड़ गई थी कि पहले उसे उसी धुन पर
कविता गुनगुनानी पड़ रही थी और तभी बिना धुन के टीचर के सामने दोहरा पा रही थी।</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
टीचर ने पूछा- यह क्या फुसफुसा रही हो? </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">- मैम,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">म्यूजिक से
याद की है </span>poem<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">..</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">- तो वैसे ही सुनाओ...<br /><br /><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
</div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और तब </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">याई रे</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की धुन पर वह अंग्रेज़ी कविता उस क्लास में सुनाई गई।
डाँट पड़ी। लड़की को चुप करवाकर बिठा दिया गया। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br />
<a name='more'></a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन घर में ऐसा
नहीं होता था। कभी कोई मेहमान आता,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">कोई फ़ंक्शन होता या लम्बे पिकनिक पर जाते तो
गाना सुनाने को कहा जाता था। तब शाबासी मिलती थी। उसके चचेरे भाई-बहन भी गाते थे।
गाते हुए अच्छे से चेहरे और हाथों की हरकतें कर दो तो घरवाले बहुत ख़ुश होते थे-
अरे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">आशा से अच्छा गाया है तुमने यह गाना।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और वह कहती है कि हम
अच्छा गाते भी थे। मगर आप उसके कहने पर मत जाइए। एक फ़िल्म आई है </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गैंग्स ऑफ़ वासेपुर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">। उसमें सुनिए कि कैसे वह चुनौती और बदले से भरा </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कह के लूंगा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> गाती है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और उसी के साथ बच्चों सी प्यारी आवाज़ में </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">टैं टैं टों टों</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">। उसका नाम स्नेहा खानवलकर है। ऐसी मराठी संगीतकार,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जो
</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिया तू बिहार के लाला</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> कम्पोज करती है और आप अब भी कहते हैं कि मोहब्बत,
दूसरों की इज़्ज़त और बराबरी संविधान के रास्ते से आएगी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन फ़िलहाल दुनिया
बदल डालने की बड़ी बड़ी बातें करने की बजाय हमें अपनी कहानी पर लौटना चाहिए,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जहाँ
स्नेहा से गाना गाने के लिए कहा गया है और वह अच्छी बच्ची की तरह गरदन झुकाकर बैठ
गई है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">दोनों हथेलियां गोद में रखकर,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">और गाना शुरू कर रही है। वह अब भी ऐसे ही
अच्छी बच्ची बनकर बैठ जाती है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जब दिबाकर बनर्जी या अनुराग कश्यप कहते हैं कि जो
कम्पोज किया है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">गाकर बताओ ना।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /></span>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गाने में उसका हमेशा
अलग ज़ोन में आ जाना इसलिए भी है कि उसे हमेशा लगता रहा कि जो परंपरागत अच्छी मानी
जाने वाली आवाज़ है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">लता,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">आशा,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">चित्रा या कविता की,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">या सुनिधि की, वह उससे बहुत दूर
है। यूं तो बचपन से ही तारीफ़ मिलती थी और कहा जाता था कि सिंगर बनो तुम,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">लेकिन उसे
कहीं न कहीं लगता रहा कि उसकी आवाज़ को स्वीकार नहीं किया जाएगा। टीवी पर जो गाने
की प्रतियोगिताएं आती थीं या तारीफ़ के साथ जैसी प्रतिक्रियाएं उसे घर और स्कूल में
मिलती थीं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">उनमें यह दिखता भी था। इसीलिए उसने गायिका बनने के विकल्प को बहुत पहले
ही दरवाज़ा दिखा दिया था। उसे दूसरों के हिसाब से ढलने और उन्हें खुश करते रहने में
ज़िन्दगी नहीं बितानी थी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन ज़िन्दगी
बितानी कैसे थी?</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक मध्यमवर्गीय मराठी परिवार था। पिता इंजीनियर थे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भाई भी
इंजीनियर। स्नेहा की ड्रॉइंग अच्छी थी तो कहते थे कि इसे आर्किटैक्ट बनाएंगे। पर
स्नेहा तो म्यूजिक को लेकर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">टची</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> होती जा रही थी। सब मैटल सुन रहे हैं तो उसे
क्यों नहीं समझ आ रहा?</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अनजाने में ही भीतर कहीं था कि मुझे तो सुर-ताल सब पता है,
मुझे तो सब आना ही चाहिए। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">संगीत
मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसी
यह भावना ही उसे संगीत में और डुबोती गई।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसकी एक और ख़ासियत
थी कि जब भी बातें करती थी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उनमें ध्वनियां बहुत स्वाभाविक ढंग से आती थी। साउंड
उसके डायलॉग्स का ज़रूरी हिस्सा था। मोटरसाइकिल पर कहीं जाने की बात करनी हो तो
उसके </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ढक ढक ढर्र</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> स्टार्ट होने की आवाज़ के बिना पूरी नहीं होती
थी। किसी अंग्रेजी गाने के बोल नहीं आते थे तो </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">टैंग टैंग टिंग टिंग</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> या ऐसी ही किसी मज़ेदार ध्वनि से रीप्लेस करके गाती
रहती थी। उसे इसमें मज़ा आता था कि कितने सारे वाद्ययंत्रों की आवाज़ों की हम नकल
करते हैं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कर सकते हैं और तब वह नकल अलग ही आवाज़ बन जाती है और उस इंस्ट्रूमेंट का
चरित्र ही बदल देती है। तब उसे नहीं पता था कि उसे कुछ साल बाद </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साउंड ट्रिपिंग</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> नाम का एक टीवी शो करना है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिसमें वह भारत के
गली-मोहल्लों-गाँवों-खेतों-मैदानों-पहाड़ों में जाकर आवाज़ें ढूंढ़ेगी और उनसे संगीत
रचेगी। तुम्बी की </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">टुंग टुंग</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> उसे इतनी ग्रेसफ़ुल और अद्भुत लगती थी कि वह
जब भी अपनी हाई फ़्रीक्वेंसी पर बजती है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कहीं भी अलग ही सुनाई देती है। इसीलिए उसने
पंजाब की प्रतिभावान नूरा बहनों के साथ मिलकर और उसमें स्पोर्ट्स कमेंट्री मिलाकर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">टुंग टुंग</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बनाया। एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी की
आवाज़ों से </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">स्क्रैप रैप</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बनाया,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अफ्रीकन मूल की कर्नाटक में रहने वाली
एक जनजाति के कोंकणी गीत से </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">येरे
येरे</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बनाया और नौटंकी के हर
द्विअर्थी रंग को उसकी पूरी स्वाभाविकता के साथ </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिंगर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
में लेकर आई। उसके गानों में झाडू की आवाज़ें भी आईं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कपड़े धोने की आवाज़ें भी और
मुर्गे की बांग भी। उसने </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गैंग्स
ऑफ वासेपुर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के गानों में
फ़ैक्ट्री के सायरन भी इस्तेमाल किए और हँसते हुए और कविता गाते बच्चे भी। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ओए लकी लकी ओए</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में उसने ट्रक की सारी आवाज़ों से </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ट्रकां वाला गीत</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> रचा और एक किशोर से मांगेराम की लिखी क्लासिक रागिनी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तू राजा की राजदुलारी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> गवाई। वही </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कु कु कु कु फुतर फू</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
जैसे कोरस लाई और हमें हँसाते हँसाते हमारी आदतें बदलीं।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन तब वह दसवीं
में थी और ठीक से नहीं जानती थी कि उसे क्या करना है। उन्हीं दिनों उसका परिवार
मुम्बई शिफ़्ट हो गया। वे तो शायद बेटी को इंजीनियर या आर्किटेक्ट बनते देखना चाहते
थे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन मुम्बई में बेटी ने चारों तरफ मास कम्युनिकेशन और एनिमेशन जैसी चीजों का
शोर देखा। पढ़ाई के साथ एनिमेशन का कोर्स करने लगी। वह केन घोष का स्टूडियो था। एनिमेटर्स
एक कम्प्यूटर के सामने स्थिर बैठे-बैठे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चाइनीज फ़ूड खाते-खाते पूरा दिन गुज़ार देते
थे। जल्दी ही उसे वहाँ घुटन होने लगी। वह वहाँ से बाहर निकलने के रास्ते तलाश ही रही
थी कि एक दिन लंचटाइम में वहीं की लाइब्रेरी में उसने </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आर्ट डायरेक्शन</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> पर एक किताब पढ़ी। और तब केन घोष के एग्जीक्यूटिव
प्रोड्यूसर को घंटों पकाया कि यह आर्ट डायरेक्शन होता क्या है?</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पता नहीं कि उसे
खुद कितना मालूम था लेकिन उसने बहुत सारा ज्ञान दिया और आख़िर में थककर उमंग कुमार का
नम्बर उसे दे दिया। उमंग केन घोष की अगली फ़िल्म </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इश्क विश्क</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के आर्ट डायरेक्टर थे।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एनिमेशन को विदाई
देकर वह उमंग कुमार की इंटर्न बन गई। वे बारहवीं की छुट्टियों के दिन थे। वहाँ वह
सबसे छोटी थी और उसे कोई गंभीरता से नहीं लेता था। उसका इतना महत्व तो था कि वह
वहाँ काम कर रहे मज़दूरों से अच्छे से कम्युनिकेट कर लेती थी और काम करवा लेती थी।
मुम्बई में पली-बढ़ी लड़कियाँ </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भैया,
ये कर देंगे प्लीज़</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> तो कहती थीं
लेकिन उससे कुछ होता नहीं था। वह इंटर्नशिप स्नेहा के इस काम आई कि उसने देखा कि
कैसे किसी आम से नाटकीय आइडिया पर इतने सारे लोग सुबह से लगे रहते हैं। सीन क्या
है कि लड़की को छाता लेकर आना है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और उस छाते को देर तक पोंछ रहे हैं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">सजा रहे हैं।
वह उन छातों पर अपनी ड्रॉइंग्स बना दिया करती थी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन एक दिन उसे
लगा कि यह नहीं बनाना। कुछ और है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जो बनने के लिए उसका इंतज़ार कर रहा है। उसने
सारे छाते छोड़े और फिर ज़िन्दगी की बरसात में लौट आई,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">अपने घर,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जहां मां-पिता तंग आ
गए थे। वह बार-बार फ़ील्ड बदल रही थी और उन्हें लग रहा था कि बस भाग रही है। पिता
चाहते थे कि इससे अच्छा तो गायकी में ही कुछ करे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">लेकिन उसने साफ़ मना कर दिया था।
वे उसे एनिमेशन की पढ़ाई के लिए अमेरिका भेजना चाहते थे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">लेकिन इसके लिए किया जाने
वाला तामझाम,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">पेपरवर्क और बहुत सारा खर्च उसके स्वभाव से बिल्कुल उलट था। इसलिए वह
चुप होकर घर बैठ गई। बिना अपना इरादा बताए,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">बस यह कहकर कि मुझे थोड़ा वक़्त दीजिए।
उनके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो वह घर में ही कभी
वॉकमैन में अपनी धुनें रिकॉर्ड करने लगी और कभी-कभी दो-तीन हज़ार में आ जाने वाले
कीबोर्डिस्ट्स को घर बुलाकर अपनी स्क्रैच धुनें बनाने लगी। उन्हीं दिनों उसने कहीं
तिग्मांशु धूलिया का एक इंटरव्यू पढ़ा और कहीं से उनका फ़ोन नम्बर ढूंढ़कर फ़ोन किया।
उन्होंने मिलने बुलाया और फिर अपनी फ़िल्म ‘किलिंग ऑफ अ पॉर्न फिल्ममेकर’ के दो
गाने बनाने को कहा। पीयूष मिश्रा उन दिनों तिग्मांशु के यहाँ म्यूजिक के डीन जैसे
थे। एक दिन वह एक धुन ले गयी और पीयूष को सुनाई। उन्हें वह बहुत पसंद आई और
उन्होंने तिग्मांशु को फोन करके बताया कि लड़की ने बहुत अच्छी धुन बनाई है। किसी भी
अच्छी शुरुआत की तरह लड़की का सफ़र शुरू हुआ लेकिन फ़िल्में कभी भी रुक सकती हैं। वह
फ़िल्म भी रुक गई।<br />
<br />
यह थोड़ा परेशान करने वाला तो था लेकिन इसी रास्ते से उसे रामगोपाल वर्मा और अनुराग
कश्यप मिले। <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इससे पहले अनुराग कश्यप को नहीं
जानती थी। थियेटर का भी ज़्यादा नहीं पता था। इंदौर में एक दो मराठी प्ले देखे
होंगे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन जानती नहीं थी ये सब। पीयूष मिश्रा को देखा तो पता चला कि जुनूनी
कैसे होते हैं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अनुराग का फ़िल्म को लेकर जूनून देखा। उनकी ब्लैक फ़्राइडे की
रिकॉर्डिंग देखी। वहां उन्होंने भी गाने का बोला। मैं उसी मोड में आ गई। तो इस तरह
इन लोगों से मिलके फ़िल्म का जो मिथ था कि सोचते सोचते बनती होगी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जो ख़याली पुलाव
वाला मिथ था,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वो टूट रहा था,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन एक बेहतर मिथ बन रहा था। ऐसे लोग देखे जैसे कभी
नहीं देखे थे। और किस्मत थी कि जो मैं बना रही थी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वे पसंद कर रहे थे। तो मुझे लगा
कि कुछ तो अच्छा होगा इसमें..</span>”</div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसके बाद उसने रूचि
नारायण की फ़िल्म ‘कल’ का एक गाना बनाया और मनीष श्रीवास्तव की फ़िल्म ‘गो’ का संगीत
दिया। लेकिन दिबाकर बनर्जी की ‘ओए लकी लकी ओए’ उसकी पहली सोलो फ़िल्म थी। तिग्मांशु
की तरह ही उसने दिबाकर को भी एक दिन फोन किया था और कहा था कि मैंने आपकी फ़िल्म
‘खोसला का घोंसला’ तो नहीं देखी है लेकिन उसका म्यूजिक सुना है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और सुनकर लगता है
कि हम साथ काम कर सकते हैं। दिबाकर ने मिलने के लिए बुलाया। दो लाइनें दी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और उन
पर कुछ कम्पोज करने को कहा। अगली बार जब वे मिले तो स्नेहा की धुनें तैयार थी और
स्नेहा दिबाकर की अगली फ़िल्म का संगीत देगी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">यह उन्हें सुने जाने के तुरंत बाद तय
हो गया था।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वह कोई और फ़िल्म थी,
जिसके लिए उन्होंने काम शुरू किया था लेकिन बनी ‘ओए लकी लकी ओए’। फ़िल्म में दो ही
गाने होने थे। एक टाइटल गीत और एक ‘तू राजा की राजदुलारी’। बरसों पहले एक विज्ञापन
की शूटिंग के दौरान दिबाकर ने एक राहगीर को माचिस पर ‘राजदुलारी’ बजाते और गाते
सुना था। वह उनके दिमाग में तभी से था लेकिन इसके अलावा उसके बारे में उन्हें कुछ
नहीं पता था। वे उसे पंजाबी गीत मानकर चल रहे थे। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो स्नेहा फ़िल्म के
दोनों गीत तलाशने पंजाब गई। ‘ओए लकी’ गाने के लिए उसे देशराज लचकानी को खोजना था।
खोजने के लिए वह गाँवों,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कस्बों,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शहरों में बेपरवाह घूमती है। किसी भी नुक्कड़ पर
ठहराकर चाय या पान वाले से पूछती हुई कि यहाँ आसपास कोई गायक रहता है क्या?</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कोई
कुछ बताता है तो गाड़ी में साथ बिठा लेती है और इस तरह किसी के भी घर पहुँच जाती
है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसे सुनती है। देर तक यह बताने से बचती है कि वह किसी हिन्दी फ़िल्म के लिए
गायक खोज रही है। यह इसलिए कि कहीं वे स्थानीय कलाकार इस भव्यता के डर से अपनी
स्वाभाविकता न खो दें और गाने से पहले अपने आप पर अपना कोइ स्क्रीनप्ले ना ओढ़ लें।
यह उसका अपना टैलेंट हंट है जिसमें वह वे आवाजें खोजती है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जो उसे बांधकर अपने
आँगन में बिठा लें। वह उनके बीच में उनकी बनकर ही बैठती है और कहती रहती है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और गाकर दिखाओ ना।</span>“</div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो इसी प्रक्रिया
में उसे बहुत सारे लोग मिले,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">दिलबहार और नूरा बहनें भी। ‘जुगनी’ बनाने का ख़याल भी
मिला,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">देशराज लचकानी भी मिले,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जिन्होंने ‘जुगनी’ गाया। लेकिन पूरा पंजाब छानने पर
भी उसे ‘राजदुलारी’ नहीं मिला। मिलता भी कैसे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">हरियाणा के ऐसे रागिनी उत्सवों में
उसका घूमना अभी बाकी था,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जहाँ अक्सर वह इकलौती लड़की हुआ करती थी।</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
खैर,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वह पूरा खज़ाना लेकर लौटी और जब साल भर बाद हम सबने ‘ओए लकी’ के गीत सुने - जो
जितने पुराने थे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">उतने ही नए थे - तो हम चौंक गए। यह हिन्दी सिनेमा की चौथी महिला
संगीतकार के कदमों की बेपरवाह आवाज़ थी। पुरुषों के वर्चस्व वाले एक क्षेत्र में
जहां यह उपलब्धि थी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">वहीं चुनौती भी थी। और इकलौती चुनौती नहीं।</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शुरू में किसी ने कहा था कि अभी
तो तुम फ़ीमेल की तो बात ही मत करो। अभी तो ना तुम्हारी उम्र तुम्हारे साथ है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ना
तुम फ़िल्म या संगीत के बैकग्राउंड से हो। तीसरा लड़की हो और चौथा, दुबली पतली सी हो।
डांटोगी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो भी कितना सीरियसली लेगा कोई?</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ज़्यादा अंतर नहीं है लड़का और लड़की होने
में,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन आपको डायरेक्टर,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गीतकार और म्यूजिशियंस के साथ बैठना पड़ता है। इन तीनों
की डीलिंग में बहुत अंतर आ जाता है। इंडस्ट्री के पुराने म्यूजिशियन हों तो उनके
साथ थोड़ा टाइम लगता है। लगातार ढूंढ़ते रहते हैं कि कुछ अलग होगा इसमें। मुझे फ़ील
होता रहता है कि मुझे जज किया जा रहा है। वह संगीत से किया जाता है जज,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन किया
जाता है। शुरुआत में ऐसा होता था कि रिकॉर्डिंग हो रही है और सब सिगरेट पीने बाहर
चले जाते थे या आपस में कुछ बातें करने लगते थे। ‘</span>Guys Talk’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> सबसे ज्यादा स्टूडियो में ही होती है। तो कम्युनिकेशन
के लेवल पर भी मुश्किल होती है। लेकिन यही इसे </span>exciting<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बनाता है। इसीलिए मेरी रिकॉर्डिंग पर कुछ भी आम नहीं
रहता।</span>“</div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसके बाद उसने
दिबाकर की ही ‘लव सेक्स और धोखा’ का संगीत दिया जिस पर उसके पिता ने उसे एक घंटे
तक समझाया कि यह नाम क्यों अश्लील है और क्यों इस फ़िल्म का नाम कुछ और होना चाहिए।
नाम तो क्या बदला जाना था,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">वह तेज आवाज में फ़िल्म के टाइटल गीत को भी घर में
रिकॉर्ड करती रहती थी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">बजाती रहती थी।</span><span style="font-family: Mangal;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फ़िल्म रिलीज़ होने के
कुछ वक्त बाद वह इंदौर में अपने पारिवारिक दोस्तों के साथ बैठी थी। वे सब लोग,
जिनके सामने उसे बचपन से ही गीत गाना होता था। किसी ने कहा कि अपनी नई फ़िल्म का
सबसे हिट गीत तो गाओ। वह बचती रही,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">लेकिन आख़िरकार गाना पड़ा। वह गाने में से ‘लव
सेक्स और धोखा’ को ऐसे खा गई जैसे बचपन में अंगरेजी गानों के बोल खा जाया करती थी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हिन्दी फ़िल्में किसी
भी हिट चीज के फॉर्मूले की उंगली पकड़कर चलना चाहती हैं। इसीलिए </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ओए लकी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के बाद उसे पंजाबी लोकसंगीत के बहुत ऑफर मिल रहे थे।
वह लगातार मना कर रही थी। इसी बीच अनुराग कश्यप ने उसे मिलने के लिए बुलाया और
अपनी फ़िल्म का संगीत देने का प्रस्ताव रखा जिसमें उन्हें बिहारी लोकसंगीत रखना था।
‘लोकसंगीत’ सुनकर वह एक मिनट हिचकिचाई लेकिन तभी उसे त्रिनिदाद टोबैगो का वह चटनी
संगीत याद आया,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जो उसे बहुत पसंद था और जिसे उन्नीसवीं सदी में वहाँ जाने वाले
बिहारियों की अगली पीढ़ियों ने भोजपुरी बोलों पर हिन्दी फिल्मों के संगीत में वहाँ
का कुछ मिलाकर बनाया था। उसने कहा कि वह एक ही शर्त पर संगीत बनाएगी कि उसे
त्रिनिदाद जाने दिया जाए। अनुराग ने तुरंत हामी भर दी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अब नया सफ़र शुरू
हुआ,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">उसी तरह संगीत खोजने का। त्रिनिदाद जाकर उसे पता चला कि जो कुछ गायक उसे पसंद
थे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">उनमें से कई गुजर चुके थे और कई सूरीनाम या गयाना में जाकर बस गए थे। वह वहाँ
के दूतावास में गई और वहाँ रह रहे भारतीयों से मिली,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">लेकिन वे चटनी संगीत को
‘खराब’ मानने वाले लोग थे। एक हफ्ते में ही वह उनके घेरे से भागी और फिर वैसे ही
गलियों में संगीत ढूंढ़ा,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जैसे पंजाब में ढूंढ़ा था।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वे बॉलीवुड को बहुत
बड़ा मानने वाले लोग हैं। भारत से आए किसी भी आदमी को देवी या देवता की तरह देखने
वाले,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्योंकि उनके पुरखे भी वहीं से आए थे। वे किसी बॉलीवुड संगीत में भोजपुरी
बोल डालते हैं और कलिप्सो और ढोलक से रीमिक्स करते हैं। उनके यहाँ घर में स्टूडियो
होता है और एलबम ऐसे बनाकर बेची जाती हैं जैसे घर की मिठाई की दुकान में मिठाइयां।
उन सबके पास एक ऑक्टापैड होता है और उस पर हर रिदम होता है। वेदेश को ढूंढ़ने की
मेरी बहुत इच्छा थी। मैंने उनका एक गाना सुन रखा था जिसमें वो ऐसे गा रहे थे जैसे
उनसे जबरदस्ती गवाया जा रहा हो,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जैसे गार्डन में लुंगी पहन के गा रहे हों। मैं गई
तो वे गाना छोड़ चुके थे,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मोटी तोंद हो गई थी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शादी हो गई थी।</span>“</div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वेदेश ने ही वरुण
ग्रोवर का लिखा ‘हंटर’ गाया,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के सबसे लोकप्रिय गानों में
से एक रहा। पूरी एलबम के गीत उसने बाद में बिहार में ही खोजे। चटनी म्यूजिक ने
उन्हें बस एक रंग दिया। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैंने बहुत underestimate किया
था बिहार को,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कि तड़क भड़क वाला ही होगा,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ढोलक पे ही होगा। लेकिन अच्छी कविता,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span>sweet
tunes<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गाने का इमोशनल स्टाइल,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सब है।
और अलग अलग भाषा के </span>distinction<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
हैं। अंगिका,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भज्जिका,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैथिली,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सबकी अलग ही मधुरता है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह जाना।</span>“</div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoQq0C18ggH6DzWE7680zCQ3HuJNs1zffbUpgZzonjLN4hOEatZ359hqYOM5oDLArlQo68OevP1z_xDcQMna9-5uXsIgJlY0txc284AXLy6bvNvUicc9-w7bTdhCFe-0zgTFvfZZlFtlY/s1600/SNEHA+KHANWALKAR+02.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoQq0C18ggH6DzWE7680zCQ3HuJNs1zffbUpgZzonjLN4hOEatZ359hqYOM5oDLArlQo68OevP1z_xDcQMna9-5uXsIgJlY0txc284AXLy6bvNvUicc9-w7bTdhCFe-0zgTFvfZZlFtlY/s400/SNEHA+KHANWALKAR+02.jpg" width="265" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
इस बार स्नेहा ने और
भी ऐसी आवाजें चुनीं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिन्हें मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा स्वीकार नहीं करता। भले
ही वे ‘वुमनिया’ गाने वाली गृहिणी रेखा झा हों,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">‘भूस’ गाने वाले मनीष टीपू और
भूपेश सिंह हों,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">‘हमनी के छोडि के’ गाने वाले दीपक कुमार हों या ‘सूना कर के घरवा’
गाने वाले सुजीत। ये वे आवाज़ें हैं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जिन्हें टीवी के बहुत से टैलेंट हंट दरवाज़े से
ही लौटा देंगे।</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कान देके सुन लिया जाए तो सबको
पसंद आएंगी वे आवाज़ें,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन बीच की जो चीजें होती हैं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वहां वे पीछे रह जाते
होंगे। श्रोता तो तैयार हैं।</span>“<br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
स्नेहा और भी बहुत कुछ करना चाहती है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती जो पहले कर
चुकी। उसे इलैक्ट्रॉनिक संगीत बहुत पसंद है और असल दुनिया की हदों तक जाने की तो
वह कोशिश कर ही रही है लेकिन उसे इलैक्ट्रॉनिक संगीत की हदों तक भी जाना है। फ़िल्मों
से आज़ाद होकर भी संगीत बनाना है। तकनीक इसी तरह उसका साथ देती रहे तो लाइव शो भी
करने हैं और साउंड्स के साथ इसी तरह खेलते रहना है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ऐसा लगता है कि
इंस्ट्रूमेंट्स से ही सब कुछ न कह दिया जाए। जैसे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ठाक्क्क</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> करके एक गाने में डालना हो तो सामान्य </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ठक</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
को भी रिप्लेस करता है और कुछ पागलपन क्रियेट करता है तुरंत..तो इसलिए साउंड भी
ज़रूर आना चाहिए। और मैंने कई बार करके देखा तो लगा कि तकनीक तो अनुमति देने वाली
है। तो फिर क्यों रुकें?</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यूनिवर्सली इतना बड़ा विचार लगा ये कि इसका मतलब ये है कि
कोई भी </span>eliminate<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> नहीं होना
चाहिए गाना बनाने में। पहले </span>instruments<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की जो बैठक होती थी,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसी में अब बाजू में बाल्टी भी पड़ी हो,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसका भी </span>inclusion<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> होना चाहिए। अभी तक हमने भारत को आवाज़ों और
अलग अलग </span>instruments<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> से ही सुना
है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन साउंड्स भी उसमें ख़ास जगह रखते हैं। शहर की आवाजें अलग हैं,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गाँव के
साउंड अलग। खाँसने के,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बीवी के पति को बुलाने के सब तरीके भी बदल जाते हैं। मुझे
उन चीजों को संगीत में लाना है।</span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और जब उसके हाथ में
एक हॉर्न है,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">जिसे मेरे मोहल्ले में गन्ने बेचने वाला बजाया करता था,</span>
<span style="font-family: Mangal;">और वह नियम
से रोज़ाना तीन बार अपने घर में खाना खाने के लिए आने वाली गली की गर्भवती बिल्ली
को गोद में लेकर पुचकार रही है,</span>
<span style="font-family: Mangal;">वह कहती है कि एक दिन देखना,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">म्यूजिक से इस हाथ को
भी ड्रॉ किया जा सकेगा।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह वह कैसे करेगी,
शायद वह भी नहीं जानती,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">लेकिन मुझे उसकी बात पर पूरा यक़ीन है। आपको है?<br /><br /><i>(यह लेख अपने सम्पादित रूप में 'तहलका हिन्दी'</i></span><i><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">के 15 जुलाई,</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">2012 के अंक में छपा है। फ़ोटो: तुषार माणे)</span></i></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-11276472472288169802012-06-22T06:10:00.001-07:002012-06-22T06:15:49.061-07:00वासेपुर की हिंसा हम सबकी हिंसा है जिसने कमउम्र फ़ैज़लों से रेलगाड़ियां साफ़ करवाई हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQJiSmlzxDyYDOmyB-kS6TLZxby7z65vjHIw2UrIix8UwXdVFhbfkKJ-3AA-OQbt0hd5vb5-cG2U4fFJi1y-2KfP7-nG72HhWSh9Kk_3z0aTyaiC1vIzyTFQxdoVAB0uhyMngAwLeg0fM/s1600/gangs-of-wasseypur-movie-poster.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQJiSmlzxDyYDOmyB-kS6TLZxby7z65vjHIw2UrIix8UwXdVFhbfkKJ-3AA-OQbt0hd5vb5-cG2U4fFJi1y-2KfP7-nG72HhWSh9Kk_3z0aTyaiC1vIzyTFQxdoVAB0uhyMngAwLeg0fM/s400/gangs-of-wasseypur-movie-poster.jpg" width="400" /></a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं नहीं जानता कि आपके लिए </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गैंग्स ऑफ
वासेपुर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> गैंग्स की कहानी कितनी है, लेकिन मेरे लिए वह उस छोटे बच्चे
में मौज़ूद है, जिसने अपनी माँ को अपने दादा की उम्र के एक आदमी के साथ सोते हुए
देख लिया है, और जो उस देखने के बाद कभी ठीक से सो नहीं पाया, जिसके अन्दर इतनी आग
जलती रही कि वह काला पड़ता गया, और जब जवान हुआ, तब अपने बड़े भाई से बड़ा दिखता था।
फ़िल्म उस बच्चे में भी मौज़ूद है, जिसके ईमानदार अफ़सर पिता को उसी के सामने घर के
बगीचे में तब क्रूरता से मार दिया गया, जब पिता उसे सिखा रहे थे कि फूल तोड़ने के
लिए नहीं, देखने के लिए होते हैं। थोड़ी उस बच्चे में, जिसकी नज़र से फ़िल्म हमें
उसके पिता के अपने ही मज़दूर साथियों को मारने के लिए खड़े होने की कहानी दिखा रही
है। थोड़ी उस बच्चे में, जो बस रोए जा रहा है, जब बाहर उसके पिता बदला लेने का जश्न
मना रहे हैं। थोड़ी कसाइयों के उस बच्चे में, जिस पर कैमरा ठिठकता है, जब उसके और
उसके आसपास के घरों में सरदार ख़ान ने आग लगा दी है। फ़िल्म मेरे लिए उस कोयले की
खदान में भी जाकर ठहर गई है, जिसमें बारह घंटे से पहले रुकने पर खाल उधेड़ दी
जाएगी, जिसमें रोशनी कम है या हवा, यह ठीक से बताना मुश्किल है, और तब कभी-कभी
चमकती रोशनी में काले पड़े शरीर हैं, उस आदमी का चेहरा है, जिसे उस समय के बाद
हमेशा के लिए क्रूर हो जाना है, अपने लोगों को मारना है, उनके घर जलाने हैं और
शक्ति पानी है। और जब मरना है, तो अपने बेटे को उस आग में छोड़ जाना है, जिसमें वह
अपने बाल तभी बढ़ाएगा, जब अपने पिता के हत्यारे से बदला ले लेगा। और बदला नहीं
लेगा, कह के लेगा उसकी। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<o:p></o:p></div>
<a name='more'></a><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कितनी फ़िल्में होंगी, जो किसी अपराधी की बिना शादी के पैदा हुए
बेटे पर इतना भर ठहरेंगी कि जब अब्बू आएं तो वह पढ़ाई छोड़कर दरवाज़े तक दौड़ा जाए और
कहे- सलाम अब्बू, और इतने में ही आपको अन्दर कहीं रोना आए। कितनी फ़िल्में होंगी,
जो आपको कोयला खदानों के माफ़िया के बारे में बताते हुए उनका इतिहास और वर्तमान
बताएंगी, कोयले और लोहे की चोरियां इतनी आम दिखाएंगी कि रात का इंतज़ार नहीं और
उन्हीं रास्तों से छोटे छोटे बच्चे लोहा चुराकर लाते हैं जिनसे आईसक्रीम वाला जा
रहा है। कितनी फ़िल्में टाटा बिड़ला और थापर में खदानों की बन्दरबाँट की बात करेंगी
और कहेंगी कि अंग्रेज तनख़्वाह भी देते थे और छत भी, लेकिन आज़ादी के बाद के अंग्रेज
छत तोड़कर-जलाकर सिर्फ़ तनख़्वाह देते हैं, फिर वे कहीं भी जाकर छत डालें। कितनी
फ़िल्में उन गरीबों के घर जला रहे आदमी के चेहरे पर ठहरेंगी? उस आदमी के चेहरे की
असहजता पर भी, जिसके हुक्म से अभी अभी उसके एक कारिंदे के परिवार को ख़त्म कर दिया
गया है? <br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसीलिए </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गैंग्स ऑफ वासेपुर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में
भले ही कितनी भी गालियाँ और गोलियाँ हों, कितने ही कटते हुए आदमी और भैंसे हों,
लेकिन अपनी भीतर की परत में यह हमारी सामूहिक कहानी है। वासेपुर के अंश हम सबके
बीच में हैं। वह हमारी माँ ही है, जो घर के पुरुषों द्वारा रचे जा रहे हत्या के
षड्यंत्र के दौरान बैकग्राउंड में दबी आवाज़ में नौकर से कह रही है कि चीनी मिट्टी
के बरतन में खाना परोसना, क्योंकि मेहमान मुसलमान है। वे हमारे पिता ही हैं, जो
भले ही दुनिया भर का कत्ल करके लौटे हों, लेकिन अपने बेटे को कुछ छर्रे लगने पर
पागल हुए जाते हैं। यह हम सब हैं </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> यही है हमारी ज़िन्दगियों का दोहरापन और
यह हमारी ही दुनिया की हिंसा है, उसके कसाईख़ाने </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जिनमें आँख
के बदले आँख से पूरी दुनिया अंधी होनी है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह ज़रूर है कि बहुत बड़ी और बहुत सारे किरदारों की कहानी होने की
वजह से या शायद सबसे इंसाफ़ करने और ख़ुद को कसने की कोशिश में फ़िल्म ऐसे कुछ लम्हे
लापरवाही से छोड़ देती है, जो उसके मोती हो सकते थे। इसकी तेज रफ़्तार बहुत सारी
डीटेल्स आपके दूसरी बार में देखने के लिए भी छोड़ देती है। लेकिन तब भी, जहाँ जहाँ
फ़िल्म ठहरती है अपने किरदारों के दुखों और गुस्से में, वहाँ यह और भी अलग होती
जाती है। वैसे पल, जहाँ यह धीमी होती है, कविता जैसी, जब वे कोयले से सिर तक सने
लड़ रहे हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह अपनी घटनाओं के लिए नहीं, अपने किरदारों और हालात पर उनकी
प्रतिक्रियाओं के लिए महत्वपूर्ण फ़िल्म है। यह इतनी स्वाभाविक है कि हत्या करके और
लूटकर भागते इसके किरदारों की चप्पलें बीच में ही छूट जाती हैं और वे उन्हें लेने
लौटते हैं। यह वासेपुर की गली ही है, जिसमें सरदार ख़ान एक पहलवान को दिनदहाड़े छुरे
से मार रहा है और पीछे कुछ औरतें और बच्चे दूसरी दिशा में आराम से चले जा रहे हैं।
फ़िल्म बार-बार उस हिंसा के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष गवाह बन रहे बच्चों पर ठहरती है,
उन बच्चों पर भी, जिन्हें बाद में यही सब करना है, और इसीलिए यह ख़ास है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फ़िल्म अपने किरदारों, उनकी ज़िन्दगियों, उनके मोहल्लों और उनके
शहर की विश्वसनीयता बार-बार अपनी हदों से आगे जाकर भी कायम करती है। कभी 'कसम पैदा
करने वाले की', 'कुली' या 'गाइड' के पोस्टरों से, कभी पिस्तौल देखते ही चमत्कारिक
ख़ुशी से भर जाने वाले अपने किरदारों के चेहरों से, कभी ऑटोमैटिक पिस्तौलों की उनकी
चाह से, और कभी घर में फ़्रिज आने की ख़ुशी से अपने अलग-अलग समय को बताती हुई। कभी यह
उन गाँव वालों के साथ बैठी है जो मंत्रीजी के स्वागत में उनके घर के बाहर फलों की
टोकरियाँ लेकर बैठे हैं, कभी उनके साथ, जो उनके बेटे के पैरों में गिर रहे हैं।
देखिए, क्या होना था लोकतंत्र और मज़दूर विकास पार्टी को क्या करना था? <br />
<br />
यूं तो आप इसे सिर्फ़ प्रतिशोध की कहानी भी समझ सकते हैं, लेकिन यह अलग इसलिए है कि
अपने गैंगस्टर्स के घरों की रसोइयों में दाखिल होती है, उनके चौबारों पर टहलती है,
उनके साथ चाट खाती है, लस्सी पीती है, उनके पास बैठती है जब वे अपनी प्रेमिकाओं के
साथ नल पर कपड़े धो रहे हैं, उनके साथ शरमाती है, जब वे किसी पार्क में पहली बार
उनके हाथ छू रहे हैं, उनके साथ उनकी शादियों के गीत गाती है और देसी कट्टे से किए
फ़ायर से जब उनके हाथ झनझनाते हैं, तो हँसती है। यह आईसक्रीम की चोरी से लेकर कोयले,
लोहे, मछली, तालाब, पैट्रोल और पैसे की, वह हर लूट दिखाती है जो वासेपुर में हो
रही है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
'इक बगल में चाँद होगा' से 'कह के लूंगा' तक ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वासेपुर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का संगीत उसकी आत्मा है, जिसके बिना
फ़िल्म संभव नहीं थी। इसके लिए स्नेहा खानवलकर और उनके साथियों पर अलग से एक लेख
लिखा जाना चाहिए। वासेपुर के ऐक्टर उसकी साँसें हैं </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> मनोज
वाजपेयी इसलिए कि अपने किरदार की कमीनगी में इतना उतरते हैं कि आपको बार-बार बेहद विकर्षित
करते हैं, लेकिन बस इतना ही कि जब वे अपना बदला ले रहे हों तो आप उनके बिल्कुल साथ
खड़े हों। जैसा काम उन्होंने यहाँ किया है, वह दुर्लभ है। रिचा चड्ढा अपने उच्चारण,
लहजे और रोने-हँसने में वही हैं जो शादी में ढेर सारा अतिरिक्त और फूहड़ मेकअप पुतवाकर
आई कोई बेपढ़ी लड़की होगी। उनका किरदार खूब लिखा गया है और उन्होंने इसे खूब जिया भी
है। नवाज़ुद्दीन जब आते हैं, फ़िल्म कोई और ही फ़िल्म लगने लगती है। इसी तरह जयदीप
अहलावत, तिग्मांशु धूलिया, पीयूष मिश्रा, रीमा सेन, हुमा कुरैशी और बहुत सारे और
भी ऐक्टर मिलकर हमें पूरा यक़ीन दिलाते हैं कि हम उनकी कहानी में नहीं, उनके जीवन
में हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
अनुराग कश्यप इसलिए भी अलग हैं कि उनकी फ़िल्मों के स्त्री पात्र भले ही थोड़ी देर
के लिए आएँ, मामूली जीवन जी रहे हों या कितने भी सताए जा रहे हों, लेकिन हमेशा
अपने पूरे आत्मसम्मान और शक्ति के साथ आते हैं। वे हॉल में फ़िल्म देखते हुए
सीटियाँ बजाती हैं, चिल्लाकर बच्चन को शादी का प्रस्ताव देती हुई, और बिना उनकी मर्ज़ी
के छूने वाले प्रेमी को परमिशन लेने का कहती हैं। वे हमेशा गुस्से में रोती हैं,
अबला होकर कभी नहीं। यह उनके यहाँ ही संभव है कि जब उनकी स्त्रियों का बस नहीं
चलता कि अपने पतियों को वेश्याओं के पास जाने से रोक सकें, तो डाँटकर उन्हें खूब
खाने को कहती हैं कि वहाँ जाकर कम से कम उनकी बेइज़्ज़ती तो न कराए। वे उनसे थप्पड़ खाती
हैं और भले ही उल्टा मार न सकें, लेकिन उनके लिए दरवाज़े हमेशा के लिए बन्द कर देती
हैं। और अपने गालों पर वे उंगलियाँ कभी भूलती नहीं। <br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ट्रेन में, पटरियों पर, धर्मशालाओं-होटलों में, सड़क पर,
मुहर्रम के मातम और बनारस के घाटों पर अनुराग कश्यप हमेशा की तरह बेहद सहजता से
फ़िल्म को ले जाते हैं। वही उन्हें अलग करता है। पहली बार वे अपनी शहरी स्वभाव की
फ़िल्मों से अपनी जड़ों की ओर लौटे हैं। और यह कैसी विडम्बना है कि उनका दबंग किरदार
जब घायल होकर गिरता है, उसके लिए कोई एम्बुलैंस नहीं, कोई गाड़ी या मोटरसाइकिल भी
नहीं, उसके लिए एक साइकिल रिक्शा है बस, जिस पर किसी दुकानदार जायसवाल का नाम लिखा
है। उसे उसी पर गिरना है, रिक्शा को चल पड़ना है और ओझल होते जाना है। वही रिक्शा,
जिसे उसके इलाके के कितने ही सरदार ख़ान देश के हर कोने में चलाते हैं और इस तरह
देश चलाते हैं, लेकिन कोई कोना उनका नहीं। <br />
<br />
यह वह जगह है, जहाँ किसी कलाकार या कलाकृति को अपना स्टैंड लेना होता है, अपने
होने की वजह बतानी होती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गैंग्स ऑफ वासेपुर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
यहीं कविता होती है और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिया तू बिहार के लाला</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का
जयघोष करती है। </span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बात बदले की नहीं है, न वासेपुर की। बात उस हिंसा की है,
जिसमें हमारी कितनी पीढ़ियां और नस्लें खप गई हैं, कितने फ़ैज़ल स्कूल छोड़कर ट्रेन के
पाखाने साफ़ करने को मज़बूर किए गए हैं, बाद में नशे में डूब जाने को और उसके बाद
बदले की आग में। यह उस हिंसा में डूबकर लगातार परेशान भी करती है और हँसती भी रहती है। ख़ुद पर और हम सब पर।
यह इसीलिए डेढ़ इंच ऊपर है। </span></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-19880350962454664902012-06-15T02:50:00.000-07:002012-06-16T23:39:43.574-07:00‘सफ़दर हाशमी हमेशा किसी मोहल्ले में थोड़े से लोगों के बीच ही मारे जाते हैं’: दिबाकर बनर्जी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQ3mp37e2FrWaIGeksXCj-9mt7dhlohzG3OJgZv94YYrUVPLUihdTy4cgg9XFVNB5QfLgjMS277duR9psK7sGAoNtXv0M_C_rj5UmVOW3LLGwM-abm7ANGQdQ8dn8Xk8EKFHIc4vL_J4g/s1600/shahghai3.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="267" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQ3mp37e2FrWaIGeksXCj-9mt7dhlohzG3OJgZv94YYrUVPLUihdTy4cgg9XFVNB5QfLgjMS277duR9psK7sGAoNtXv0M_C_rj5UmVOW3LLGwM-abm7ANGQdQ8dn8Xk8EKFHIc4vL_J4g/s400/shahghai3.jpg" width="400" /></a></div>
<b>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’</b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> को रिलीज हुए तीन दिन हो चुके हैं। हम उन
लोगों से मिलना चाहते हैं, जिन्होंने बिना किसी शोरशराबे के, अचानक एक अनूठी
राजनैतिक फ़िल्म हमारे सामने लाकर रख दी है। ऐसी फ़िल्म, जो बहुत से लोगों को सिर्फ़
इसीलिए बुरी लग जाती है कि वह क्यों उन्हें झकझोरने की कोशिश करती है, उनकी
आरामदेह अन्धी बहरी दुनिया में क्यों नहीं उन्हें आराम से नहीं रहने देती, जिसमें
वे सुबह जगें, नाश्ता करें, काम पर जाते हुए एफ़एम सुनें जिसमें कोई आरजे उन्हें
बताए कि वैलेंटाइन वीक में उन्हें क्या करना चाहिए, किसी सिगनल पर कोई बच्चा आकर
उनकी कार के शीशे को पोंछते हुए पैसे मांगे तो उसे दुतकारते हुए अपने पास बैठे
सहकर्मी को बताएं कि कैसे भिखारियों का पूरा माफ़िया है और वह सामने जो एक तीन साल
के बच्चे की पसलियां उसके शरीर से बाहर आने को हैं, वह दरअसल एक नाटक है। फिर ऑफिस
में पहुंचें और वे काम करें जिनके बारे में उन्हें ठीक से नहीं पता कि किसके लिए
कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं, थककर बड़ी सी गाड़ी में अकेले लौटें - ट्रैफ़िक को
कोसते हुए, टीवी देखते हुए हँसें रोएं और वीकेंड पर उम्मीद करें कि जब किसी बड़े
रेस्तरां से पिज़्ज़ा खाकर निकलें तो एक मल्टीप्लेक्स में ऐसी कोई फ़िल्म उनका इंतज़ार
कर रही हो, जो उनकी सारी कुंठाओं, निराशाओं, पराजयों को जादू से चूसकर उनके जिस्म
और आत्मा से बाहर निकाल दे। फ़िल्म ही उनकी रखैल बने, उनकी नौकर, उनका जोकर।</span><br />
<a name='more'></a><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जब हर महीने बेशर्मी से कितनी ही फ़िल्में सिर्फ़ इसी मक़सद से बनाई जा रही हों कि
उन्हें देखने वाले अपने जीवन को, अपने आप को कभी न देख पाएं (क्योंकि देख लेंगे तो
मर जाएंगे), तब </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> लगभग बिना किसी समझौते के आती है, बिना किसी
मेकअप के, बिना किसी हाय हाय और वाह वाह के, और सीधी खड़ी रहती है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
एक समय तक पलायन का पर्याय बन चुके हिन्दी सिनेमा का यह मुस्कुराता हुआ हौसला हम
सबका हौसला बढ़ाने वाला है। इसीलिए हम उसके निर्देशक दिबाकर बनर्जी, उनकी सह-लेखिका
उर्मि जुवेकर और उन सब नींव की ईंटों से मिलना चाहते हैं जो इस विचार को अन्दर की
बेचैनी से परदे तक लेकर आए हैं, जो इस सपने का हिस्सा बने हैं, जिसे ख़ुद से ज़्यादा
हमारी साझी दुनिया की फ़िक्र है। <br />
<br />
हम लालबाग की एक इमारत की पहली मंजिल पर स्थित दिबाकर बनर्जी प्रोडक्शंस के दफ़्तर
पहुँचते हैं। यहाँ कभी एक पुर्तगाली चर्च हुआ करती थी। मुंबई की लगभग सभी जगहों की
तरह, और उससे कहीं ज्यादा, नीचे अक्सर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ढिकचिक ढिकचिक</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> शोर
सुनाई देता है, और यह एक किस्म का </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का भारतनगर ही है। दिबाकर कहते हैं कि उन्हें
इस शोर की उसी तरह आदत हो गई है, जैसे हमारे समाज के एक बड़े हिस्से को </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नहीं सोचने</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की आदत हो गई है। </span><br />
<br /></div>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlXAVDsIdz5iiPyWq68PWVz9FDNpf_nbLfpK4cRHseylaKWXwdYpDvX3L23dOjg712UcYjIxlaxPK3mkHB9PlSWXzyI0xF-EXE95OENmeoxan5KbukY8hmoYBiNDVfigz9X1euHRSboDs/s1600/Shanghai+Team+08.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="384" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlXAVDsIdz5iiPyWq68PWVz9FDNpf_nbLfpK4cRHseylaKWXwdYpDvX3L23dOjg712UcYjIxlaxPK3mkHB9PlSWXzyI0xF-EXE95OENmeoxan5KbukY8hmoYBiNDVfigz9X1euHRSboDs/s640/Shanghai+Team+08.jpg" width="640" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">शंघाई टीम (बाएं से दाएं): रिशिका उपाध्याय (निर्देशक की सहायक), उर्मि जुवेकर (लेखिका), प्रिया
श्रीधरन (निर्मात्री), वन्दना कटारिया (प्रोडक्शन डिजाइनर), वसीम ख़ान
(कार्यकारी निर्माता), ज़ुल्फ़िकार (एसोसियेट प्रोडक्शन डिजाइनर), दिबाकर
बनर्जी (निर्देशक)<br />
(यहाँ दिबाकर शंघाई की प्रतिक्रिया में आया एक मज़ेदार एसएमएस पढ़कर सुना रहे हैं ) सभी फ़ोटो: तुषार माणे </td><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><br /></td><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><br /></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<div class="MsoNormal">
</div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यहीं हम घुंघराले
बालों वाली वन्दना कटारिया से मिलते हैं, जो फ़िल्म की प्रोडक्शन डिजाइनर हैं और
जिन्हें </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ओए लकी लकी ओए</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के लिए फ़िल्मफ़ेयर मिल चुका है। कर्फ़्यू और
दंगों के इतने विश्वसनीय दृश्यों के लिए हम उन्हें </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शुक्रिया</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> कहते हैं। कम बोलने वाले ज़ुल्फ़ी सहायक प्रोडक्शन डिजाइनर हैं और वे और
वन्दना हमें फ़िल्म के जोगी के स्टूडियो-कम-घर के सेट के बारे में बताते हैं, जो
110 साल पुरानी एक इमारत में बनाया गया था। उन्हें अपना सैट बनाने के लिए उसकी एक
दीवार तोड़नी थी और यह सब बहुत मुश्किल से किया जा सका क्योंकि वह इमारत इतनी कमज़ोर
थी कि उसकी छत पर चलते थे, तो नीचे मिट्टी गिरती थी। प्रोडक्शन के लिहाज से उनके
पास हर कारण था कि किसी और जगह चले जाएं, लेकिन स्क्रिप्ट के लिहाज से वह सबसे
मुफ़ीद लोकेशन थी। यह फ़िल्म को प्रामाणिक बनाए रखने की उनकी ज़िद ही थी कि वह दीवार
तोड़ी गई और उस घर की हर चीज अपने मुताबिक बनाई गई, भले ही इस दौरान हर दीवार हिलती
रही हो। हाँ, चूंकि जोगी पॉर्न फ़िल्में शूट करता है, इसलिए दिबाकर ने उन सब को
पॉर्न फ़िल्मों की एक सीरिज भी दिखाई थी, जिसमें अभिनेता बदल जाते थे, लेकिन बिस्तर
और परदा वही रहता था। उन लोगों ने उस घर के एक कोने में वैसा ही बिस्तर और परदा भी
लगाया। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हम फ़िल्म के
कार्यकारी निर्माता वसीम ख़ान से मिलते हैं, जो बकौल दिबाकर, फ़िल्म के </span>crowd
controller, bouncer, people beater, action designer, camera equipment designer,
grip manager<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> भी हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वसीम के पास बताने
को इतना कुछ है, जो हमें आपको भी बताना चाहिए और जो फ़िल्म-निर्माण का सबसे बड़ा
नियम बताता है कि बड़ी फ़िल्म बड़े बजट की नहीं, बड़े दिमाग की मोहताज होती है। <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक दंगे का सीन था, जिसमें छोटी
छोटी गलियों से लोग आ रहे हैं और पुलिस आंसू गैस छोड़ रही है। तो उसके लिए हमें
चाहिए था कि कैमरा चारों तरफ घूमे, उसके लिए इक्विपमेंट बहुत महंगा पड़ता। तो हम एक
लोकल दुकान में गए जहां बैग वैग सिलते थे। एक पैराशूट क्लॉथ होता है, थोड़े अच्छे
बैग्स में लगता है। एक कुर्सी बनाई जो वैल्डिंग करके ट्रक से जोड़ी गई। क्लैम्प्स
वाला पूरा हार्डवेयर बनाया एक बंजी जंपिंग जैसा। क्योंकि आप बम्बई के किसी ग्रिप
वाले से उसे किराए पर लोगे तो पूरी फ़िल्म का बजट उसमें चला जाएगा। बहुत बड़ा तामझाम
होता, उसके साथ बहुत सारे लोगों की ज़रूरत पड़ती। हमने एक खुला ट्रक लिया। उसमें केबल
लटकाया ऊपर से, मैं केबल से लटका हुआ था, डीओपी की कुर्सी पकड़कर, ताकि वे कैमरा
लेकर फ़्री बैठ सकें, और 360 डिग्री घूमते रहें। और साथ ही कैमरा ऊपर और नीचे भी
मूव कर रहा था। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ऐसे ऐक्शन वाले सीन
होते हैं तो एक तो हमें उनमें बहुत अंडरप्ले करना पड़ता है। और इतना ध्यान रखना था
कि इस गली के सामने से जब गए तो 30-40 लोग दौड़ के आए दंगे वाले, फिर आगे गए तो ये
देखना था कि उस समय कैमरा किस तरफ है। तो टाइमिंग का इतना ध्यान रखना था कि किस पल
इस गली से कितने लोग निकलेंगे, उस से कितने निकलेंगे और ठीक उसी वक्त पुलिस वाला आंसूगैस
छोड़ेगा। <br />
<br />
आप किसी आम फिल्म में भीड़ देखेंगे तो शूटिंग देखने वाले लोग भी आ जाएं तो फ़िल्म
वालों का फ़ायदा है, भीड़ बढ़ती है। लेकिन हमारी प्रॉब्लम यह थी कि अगर कोई बंदा दंगे
नहीं कर रहा है और कैमरा में देख रहा है तो हमारा तो पूरा शॉट बिगड़ गया। जहां लोग
गोलियां मार रहे हैं, वहां कोई खड़े होकर कैमरा में तो देखेगा नहीं ना। तो इस वजह
से उस गोलाई में घूमने वाले सीक्वेंस में हमें बहुत रीटेक करने पड़े। <br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक हमने काफ़ी अच्छा
सीक्वेंस किया था जिसमें कॉरीडोर में वॉक थी, घायल अहमदी को शालिनी और बाकी लोग
स्ट्रेचर पर लेकर दौड़ते हुए आते हैं। उसके लिए अक्सर स्टैडीकैम यूज करते हैं।
व्हीलचेयर पर बैठकर शूट करने का तरीका बहुत लोग इस्तेमाल करते हैं, लेकिन हमने उसे
भी थोड़ा बदला। डीओपी को व्हीलचेयर पर उल्टी तरफ चेहरा करके बिठाया ताकि उन्हें
घूमने की पूरी आज़ादी मिल सके। हमने रिफ्लेक्टर बोर्ड भी लगाए व्हीलचेयर पर, ताकि
ऐक्टर्स के चेहरों पर लाइट ठीक से पड़ सके। <br />
<br />
तो हम पीछे से व्हीलचेयर को खींच रहे थे, डीओपी उस पर कैमरे के साथ बैठे थे, और
शालिनी और बाकी लोग उसे धकेल रहे थे। जबकि आपको लगता है कि वे स्ट्रेचर को ले जा
रहे हैं।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
इसके बाद मैं, उर्मि और दिबाकर बचते हैं। मैं उनसे उनके अभिनेताओं की बात करता हूं, ख़ासकर इमरान हाशमी से इतनी अच्छी ऐक्टिंग करवा लेने की, और तब वे कहते हैं कि यह अभय के लिए कितना ग़लत है कि बहुत से लोग उनके काम को सिर्फ़ इसलिए अनदेखा कर रहे हैं क्योंकि वे तो हमेशा ही अच्छी ऐक्टिंग करते हैं। वे कल्कि की भी बात करते हैं, जिन्हें उन्होंने बहुत देर में चुना था। वे किसी और अभिनेत्री को लेना चाहते थे लेकिन ऐसी कोई ऐक्ट्रेस उन्हें नहीं मिली, जो सहानुभूति जगाने की कोशिश किए </span><span style="font-family: Mangal;">बिना </span><span style="font-family: Mangal;">वह रोल कर सके। कल्कि ने वह किया। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />उर्मि जब </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
के बारे में बोलती हैं तो आप उनकी आँखों में पूरी फ़िल्म देख सकते हैं </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> अडिग गुस्सा और समझदार फ़िक्र लेकिन धैर्य और
शांति भी, और इतना कुछ बचा हुआ कि लगता है कि बहुत सी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
अभी बाकी हैं। दिबाकर की बहुत भीतर की परत में कहीं न कहीं एक बौद्धिक उदासी
है, लेकिन ऊपर मुस्कुराता-ठहाके मारता एक पैनापन है और वे स्कूल के उस लड़के की तरह
लगते हैं, जिसे आप शरारत करते पकड़ेंगे तो सोच भी नहीं पाएंगे कि वह निबन्ध
प्रतियोगिता में फ़र्स्ट आता होगा। दोनों के बीच इतनी गहरी समझ दिखती है कि ऐसा
लगता है कि उर्मि स्क्रिप्ट के स्केच बनाती होंगी तो दिबाकर उनमें रंग भरते होंगे
और कभी-कभी ज़्यादा भरते होंगे तो उर्मि उन्हें सँभाल लेती होंगी। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यूं तो हमें </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और उसके विचार पर ही बात करनी थी, लेकिन डेढ़ घंटे बाद हम पाते हैं कि हम
महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह से लेकर सफ़दर हाशमी, मेधा पाटकर और उड़ीसा के जलते
हुए मिशनरियों तक पहुँच गए हैं, हम </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रामायण</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">, </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पाथेर पांचाली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अमेरिकन
गैंगस्टर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की भी बात करते हैं और
मासूम </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लकी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के उन्माद की भी, हम </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घिसे हुए कॉर्पोरेट क्लास</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के लिए भी परेशान होते हैं और एक बुलबुले में रहने की
आदत पाल चुके हम सब के लिए भी। यह बातचीत एक फ़िल्म की बात के अलावा यह समझने की भी
कोशिश है कि हम सब किधर जा रहे हैं। मैं इसमें कम से कम दख़ल देता हूं और उर्मि और
दिबाकर को बात करने देता हूं कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> कैसे बनी, और कैसे वे ऐसे बने कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बनाएँ। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> मेरे दिमाग में
तो हलवा बन गया है। मुझे कुछ याद नहीं है। उर्मि को शुरू से आखिर तक सब याद है..कि
कितने गन्दे गन्दे ड्राफ्ट लिखे...मैंने! (</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैंने</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
पर वज़न देते हैं)<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
</div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - आइडिया दिबाकर का था। ओए लकी ख़त्म हुई तो
दिबाकर ने कहा कि मैं <a href="http://www.imdb.com/title/tt0065234/" rel="nofollow" target="_blank">ज़ी</a> जैसी एक पॉलिटिकल फिल्म बनाना चाहता हूं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<b>दिबाकर </b>- <a href="http://www.imdb.com/title/tt0074119/" rel="nofollow" target="_blank">ऑल द प्रेजिडेंट्स मैन</a> और ज़ी, दोनों का ज़िक्र हुआ था। उर्मि ने तब
नॉवल भी पढ़ा था। मैंने तब तक नहीं पढ़ा था। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि </span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">- मेरा ज़ी का सपना था, और बतौर लेखक चाहती थी
कि ऐसी फ़िल्म लिखूं। इन्होंने कहा कि मुझे बनानी है तो </span>I was very upset<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">..कि नहीं नहीं, ये तो मुझे लिखनी है। उसके
बाद इन्होंने कहा कि ठीक है, लिखो। तो एक बहुत ही गन्दा सा हमने पहला ड्राफ़्ट लिखा।
सोचते साथ हैं, लेकिन असल लिखने का काम अलग अलग ही करते हैं हम। इन्होंने लिखना
शुरू किया और मैंने पूरा किया। बहुत खराब सा ड्राफ़्ट था। क्योंकि उसमें सब कुछ
बहुत स्पष्ट था, सारी राजनीति। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
कहानी बहुत सिंपल थी। आज आप ज़ी देखें तो उसका जो रिविलेशन था कि नेता करप्ट होते
हैं। वो बहुत बड़ा रिविलेशन था। वहां यूरोप ने बहुत कदम उठाए थे दूसरे विश्वयुद्ध
के बाद। उनके लिए वह ऐसा वक्त था कि सब कुछ ठीक होना चाहिए था। लेकिन वह हुआ नहीं।
तो उस वक्त की जो निराशा थी, आज वह हमारी नहीं है। हमको सब पता है। पुलिस भी देखते
हैं तो करप्ट होती है, नेता भी। लेकिन पहले ड्राफ़्ट में वे सारी चीजें आ गई। और
फिर बैठ के देखा और लगा कि लिख तो लिया है, लेकिन ये करना नहीं है हमें। <br />
<br />
<b>दिबाकर </b>- वो क्यूं लगा? मैं इंटरव्यू लूंगा। <br />
<br />
<b>उर्मि </b>- वो इसलिए लगा कि...मुझे जो लगता है कि कहानियां क्या होती हैं..जैसे
हमको कुछ और रामायण पता है..साउथ में रावण के दृष्टिकोण से रामायण लिखी गई है..तो
कहानी वही, लेकिन जिस तरह से आप उसे कहते हो, उसी से वो बदलती है। इंसान की एक और
परिभाषा जो मुझे अच्छी लगती है कि वह कहानी बोलने वाला प्राणी है। हम हर चीज की
कहानी बोलते हैं। हमें वे कहानियां बड़ी अच्छी लगती हैं जिनमें सारे दुष्ट मर जाते
हैं या विक्टिम </span>mode<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> वाली, जिनमें
अच्छे लोग मर जाते हैं। पहला ड्राफ़्ट बहुत इवेंटफ़ुल था, लेकिन कहानी नहीं थी। <br />
<br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYegUCtA6WfTKGa3VIDSrHrGEfQjJqdoxEzdq1vVAeYNRVRF9exABHmK8jfbLoIbu1ORXwmGfwpf1IA5vBEE9U71OdCoCdx3Nj9huCCgGTRKKXLnMG6aH22kHnHOmYFjVLdiHITbwbj78/s1600/Shanghai+Team+01.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="260" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYegUCtA6WfTKGa3VIDSrHrGEfQjJqdoxEzdq1vVAeYNRVRF9exABHmK8jfbLoIbu1ORXwmGfwpf1IA5vBEE9U71OdCoCdx3Nj9huCCgGTRKKXLnMG6aH22kHnHOmYFjVLdiHITbwbj78/s400/Shanghai+Team+01.jpg" width="400" /></a>
<b>दिबाकर </b>- दो तरह की कहानियां होती हैं। एक आपको बताती हैं- </span>What<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">! </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> (आँखें बड़ी-बड़ी करके फुसफुसाते हुए) ओह्ह! उसका ब्रदर इन लॉ मर्डरर है! दूसरी
होती हैं </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>How<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> कहानियां। जैसे पहली बार ही आर्यावर्त में
बैठकर किसी ने रामायण की कहानी सुनाई, तो सबको पता था कि रावण मरने वाला है। लेकिन
जब चार घंटे का कथावाचन होता है, उस चार घंटे में आप दर्शक को ये भुला देते हैं कि
रावण मरने वाला है। और तब, जब आखिर में रावण मरता है तो बहुत इमोशनल लगता है। तो </span>‘How’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> कहानी मुझे सुपीरियर लगती है, शायद भरत के
नाट्यशास्त्र में भी यही होगा, पढ़ा नहीं मैंने। <br />
<br />
तो पहले हमने </span>‘What’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> कहानी लिखी
थी। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्या</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> तो बड़ी क्लीशेड सी स्टोरी होती है </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> (स्वर में हैरत और आनंद) ओ बेटा जी, ट्विस्ट
आ गया</span>!<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> <br />
<br />
<b>उर्मि </b>- तो हमने सोचा कि ये तो बहुत लोग बोल चुके हैं। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> हमने नहीं।
मैंने जब लिखी पहली बार, और मैंने जब लिखने के बाद उसे देखा तो थू</span>SS<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">का...<br />
<br />
<b>उर्मि</b> - उस </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अब क्या होगा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में एक ऐसा मूमेंट आ गया था कि ट्विस्ट चाहिए
तो इसमें तो मैडम जी और अहमदी को भाई-बहन होना चाहिए, उसी से ड्रामा होगा। <br />
<br />
<b>दिबाकर </b>- लेकिन वे सब फ़ेक ट्विस्ट आ रहे थे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
</div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> एक बात बहुत क्लीयर हो गई पहले ड्राफ़्ट के बाद कि जब तक कहानी अन्दर से
नहीं देखते... <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> एक उदाहरण दूं।
मैडम जी को खबर मिल जाती है कि अभय ये सब करने वाला है तो वे राजधानी की ओर जाती
हैं कि मैडिकल ग्राउंड पे पहले ही जमानत ले लें। और वो चेज सीक्वेंस था। अलग सा
चेज सीक्वेंस है। कृष्णन गाड़ी में पीछे आता है और आगे खड़ी करके रोक लेता है।
उन्हें सम्मन देता है। उनको उनके पार्टी चीफ़ से फ़ोन आता है कि आप प्लीज़ सम्मन पे
दस्तख़त कर दीजिए। वही एंड था। वो बड़ा ओवर ड्रैमेटिक एंड था। जोगी पत्रकारों को
लेकर आता है उसमें वहाँ। अब तो हमने शंघाई देख ली है, इसलिए बताने में अच्छा लग
रहा है। कि ये भी अच्छा ही करते कुछ। ये नहीं कह रहा कि अब कोई ग्रेट चीज है
फिल्म, लेकिन इस तरह के सीन में बहुत स्पष्ट था। <br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक सीन था, जग्गू को
फ़ार्महाऊस में ले गए थे पकड़ के कि ज़्यादा बोलेगा तो मार देंगे। जोगी को भी वहाँ
बुलाते हैं, गोलियाँ चलती हैं लेकिन वह किसी तरह जग्गू को बचा लाता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
(कहते हुए सोचने लगते हैं और एक मज़ाकिया पछतावे के साथ अचानक-) अरे, ये तो सुपरहिट
फिल्म लग रही है यार! <br />
<br />
<b>उर्मि</b> - दिबाकर और मैं बार बार ये भी सवाल कर रहे थे कि हम कर क्या रहे हैं।
जो हमारे आसपास हो रहा है, उस पर कैसे रिएक्ट कर रहे हैं हम। धीरे-धीरे, काफ़ी लेट
आई ये बात, कि जो हम असल में कहना चाहते हैं, वह तभी हो पाएगा, जब हम सारा ड्रामा
निकाल दें, और कहानी सिर्फ़ </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्यों</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> पर चलाएं। और चूंकि सब कुछ आपको थोड़ा थोड़ा ही
पता चलता है, पूरा नहीं पता चलता। तो कुछ ही लोगों की आँखों से दिखाएं फ़िल्म। मैडम
जी का प्लान क्या था, ये आपको पूरा कभी नहीं पता चलता। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<b>गौरव</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> लेकिन </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">खोसला का घोंसला</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> या </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> देखें तो लगता है कि दिबाकर को फ़िल्म सिर्फ़
पॉजीटिव किरदारों की आँखों से दिखाना ही पसन्द है। नेगेटिव किरदार उनमें तभी आते
हैं, जब पॉजीटिव उनसे मिलते हैं..</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<b>उर्मि</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> शंघाई में मुझे
नहीं लगता कि कोई बहुत पॉजिटिव किरदार है, <br />
<br />
<b>गौरव</b> - पॉजीटिव मतलब वे लोग, जो जानबूझकर किसी का नुकसान नहीं कर रहे। <br />
<br />
<b>दिबाकर </b>- क्योंकि आप उसकी नज़र से देख रहे हैं, इसलिए आपको ऐसा लगता है कि
वह पॉजीटिव है। आप उसे समझ गए हैं। अगर मैडम जी की नज़रों से ये देखेंगे तो पूरी
कहानी ही बदल जाएगी। कैसे मैडम जी सत्ता में आई, कैसे उनके साथ क्या हुआ, उन्होंने
क्या किया। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
ओए लकी में जब हमने चोर को पकड़ा, उसकी कहानी दिखाई, इसीलिए आपको लगता है कि वह
हीरो है। लेकिन अगर मैं उस पुलिस वाले के पॉइंट ऑफ व्यू से लेता तो वह हीरो होता।
और अगर मैं </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अमेरिकन गैंगस्टर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की तरह दोनों के पॉइंट ऑफ व्यू से कहानी
लेता, तो कहानी किसी की नहीं बनती। कहानी जब ख़त्म होती है, तब कोई छाप नहीं छोड़ती।
देखने में अच्छी लगती है पर किसी की नहीं है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आपकी यह बात भी सही
है कि किसी भी लेखक को उन्हीं किरदारों की नज़रों से कहानी लिखना अच्छा लगेगा, जो
उसे थोड़े पॉजीटिव लगते हैं। लेकिन चालीस प्रतिशत यह भी बात है कि उसकी नज़रों से
देखा, इसलिए वह पॉजीटिव लगने लगा। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - अभय भी एक पॉइंट के बाद ही अच्छा आदमी लगता
है आपको। तब तक तो वो आपको ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा ही लग रहा होता है। <br />
<br />
दिबाकर की सारी फिल्मों में यह दरअसल उसकी कहानी है, जिस पर असर हो रहा है और जो
उस पर रिएक्ट करेगा। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - पहले मैडम जी के कई सीन थे। देश जी के साथ उनकी प्लानिंग और सब।
और उस से सब क्लीयर भी हो जाता है। लेकिन यह एक तरह की </span>dichotomy<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> है कहानी कहने में </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> कि जैसे ही ज्यादा क्लीयर कर देते हैं, वो प्रभाव
नहीं रहता। चूंकि आज तीन दिन हो गए हैं, तो लोगों से जो हम सुन रहे हैं कि फ़िल्म
ख़त्म होने के बाद जब हॉल से बाहर निकल रहे हैं तो सब चुप हैं, साँसों की आवाज़ सुन
रही है, ज़्यादा बातें नहीं हो रही हैं। <br />
उसके बाद बहुत बड़ी डिबेट हो रही है। लेकिन वह सब होता तो शायद सब ख़ुश होते और इसे
बहुत अच्छी फ़िल्म बताते। अब यह </span>dichotomy<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> है कि कौनसा रिएक्शन आपको ज़्यादा अच्छा लगता है। <br />
<br />
<b>उर्मि</b> - बात वह है कि फ़िल्म क्यों बना रहे थे? हम क्या जानना चाह रहे थे,
कौनसी कहानी कहना चाह रहे थे? आज मुझे लगता है कि कहीं पे ये </span>bubble<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की स्टोरी थी। जो भी चीजें उस वक्त मेरे साथ
हुई, थोड़ी पहले या बाद में। श्रीकृष्ण कमीशन रिपोर्ट पढ़ा। कोर्ट गई जहां पे मैंने
दोनों तरफ से जजेज का बिहेवियर देखा, एक तो लैटर वाला, टोटली इनडिफ़रेंट कि ये जो
सामने है, इस पर मैं नहीं सोचूंगा। और दूसरा, जो उन्होंने देखा कि ये मैच नहीं हो
रहा है और फिर आगे पूछताछ करने की कोशिश की। अभय का किरदार, और कुछ लोग बदलाव लाने
की कोशिश कर रहे हैं, वो बहुत इम्पॉर्टेंट रहा हमारे लिए। कम से कम मेरे लिए बहुत
महत्वपूर्ण रहा। कि कुछ लोग ये क्यों करते हैं? आपके फ़ादर को मारा नहीं है, आपकी
बहन का भरे चौराहे पर नंगा करके रेप नहीं किया गया। तब आप क्या करेंगे? <br />
<br />
यह प्रॉब्लम है कि आज की दुनिया बहुत प्राइड लेती है, </span>in being cool<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">.</span><span lang="HI"> </span>I don’t give a
damn<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">..</span>I don’t give a fuck<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">.. मेरे लिए यह बहुत प्रॉब्मलेटिक है क्योंकि
मैं एक जनरेशन पुरानी हूं। </span>How can you say that? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
आप अपने दोस्तों के साथ जाओ और हॉल में कोई लगातार मोबाइल पर बात कर रहा है और आप
उसे कहते हैं कि चुप करो..तो आपके दोस्त बोलेंगे कि यार, उर्मि के साथ फिल्म देखने
नहीं जाना है। वो झगड़ा उठाती है। ये कूल होना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है हमारे लिए।
कि हम केयर नहीं करते। <br />
<br />
कहीं न कहीं ये बात फ़िल्म में है। कि तीनों कैरेक्टर्स को फिल्म में केयर करने की
ज़रूरत नहीं है। उनको बहुत पर्सनल नुकसान नहीं हुआ है। कल्कि की जगह अरुणा अहमदी
होती तो आपको ज़्यादा भाता क्योंकि वो डायरेक्ट होता। लेकिन मेरे लिए फ़िल्म न्याय
की कहानी है, न कि बदले की। उसी ने हमें राह दिखाई और हम यह फ़िल्म बना सके। न्याय
बौद्धिक है, जबकि बदला इमोशनल है। <br />
<br />
उस वक्त जेसिका लाल केस भी बन्द हुआ था। हमें लगा कि आपके दरवाजे पर तूफान आ गया,
आपकी पूरी ज़िन्दगी भी बदल दी। जेसिका की बहन को इंसाफ तो मिला, लेकिन उसके बाद
क्या? कि हो गया ना, एक मामला इंसाफ़ पे ख़त्म हो गया, लेकिन कुछ अभी भी बाकी है। और
मुझे लगता है कि दर्शकों ने भी वह समझा है कि कुछ है, जो अभी पूरा नहीं हुआ है।
मैं इसके लिए दिबाकर को क्रेडिट देती हूं क्योंकि ये सारी चीजें स्क्रिप्ट में
नहीं थी, इमोशनली थी, सब्टेक्स्ट में थी। और ये सब सीधे बोलेंगे तो फिर तो ये पीएचडी
थीसिस हो जाएगी ना। लेकिन आप फिल्म को दो तीन बार देखें तो आपको बहुत सी चीजें और
समझ में आएंगी, बाकी के साउंड कोड्स, जो टेक्स्ट में नहीं हैं। लेकिन इन्होंने
जैसे शूट किया, जैसे ऐक्टर्स को डायरेक्ट किया, उससे आया वो। <br />
<br />
<b>गौरव</b> </span>– <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कोई ख़ास तरीका
रहता है इस तरह सबटेक्स्ट ऐड करने का? <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> इसका काफ़ी फूहड़
तरीका होता है। सारे निर्देशक अपने पसंदीदा सीन, चाहे फिल्म कोई भी हो, अपने एक
पिटारे में रखते हैं, और कहीं भी मौका और जगह देखकर उसे घुसाने की कोशिश करते हैं।
लेकिन जब आप एक बेहद बेरहम लेखक या एडिटर के साथ काम करते हैं, तो वे बस सार्थक
इनक्लूजन को ही उनमें रहने देते हैं। <br />
<br />
हाल ही में एक फ़िल्म आई थी, नाम नहीं लूंगा, लेकिन उसमें निर्देशक ने अपनी सारी
इंस्पिरेशन की भड़ास एक ही फ़िल्म में निकाली। उससे रामायण, महाभारत, गॉडफादर, सब एक
ही फ़िल्म में आ गया। थप्पड़ भी पड़ रहा है पुलिस से, द्रोणाचार्य भी आ रहे हैं, सब
एक ही फ़िल्म में। उससे पता नहीं लगता कि फ़िल्म किधर जा रही है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो निर्देशक जीवन भर
जो ऑब्जर्व करता है, जो दृश्य और यादें उस पर छाप छोड़ जाती हैं, ये उसके श्याणेपन
पे डिपेंड करता है कि वह किस तरह अदृश्य रूप से इसे सीन में घुसा दे और उसी सीन
में घुसाए, जहाँ पर इसका मतलब है। जैसे जब कल्कि और अभय इंक्वायरी कमेटी के ऑफिस
से बाहर निकलते हैं और गीले फ़र्श पर फिसलने को होते हैं, वह लिखते लिखते ही हमें
समझ में आ गया था कि सार्थक है। या जैसे बॉल आ जाती है। <br />
<br />
<b>उर्मि</b> - ये सब चीजें स्क्रिप्ट में दिबाकर ने जोड़ीं। मुझे पता था कि ये
इंक्वायरी कमीशन एक मज़ाक भर है, लेकिन इसे लिखें कैसे? लिखें तो मुझे किसी को
बोलते हुए दिखाना पड़ेगा.. </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - (नाटकीय अंदाज़ में) ये तमाशा है, यहां कुछ
नहीं होने वाला.. <br />
<br />
<b>उर्मि</b> - लेकिन जब वहाँ बॉल आ जाती है, तो आपको कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं
रहती। सबटेक्स्ट यही है। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> एक बात बताऊं,
ये मुझे भी नहीं पता होता। मामला इतना इंस्टिंक्टिव होता है। अभी ये बोल रही हैं
तो मुझे इतनी डीटेल में समझ आ रहा है। लेकिन तब इतना नहीं सोचा, ठीक लगता है रखना
बस। बॉल तो बहुत अच्छी जाँच कर रहे कमीशन में भी आ सकती है। लेकिन मैं वहाँ
दिखाऊंगा नहीं। मैं काम पे चला जाऊंगा। लेकिन फिर भी इतनी डीटेल्ड सोच मेरे दिमाग
में इस से पहले नहीं आई थी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - जैसे टीना का हाईहील्स पहन के आना उस
एयरपोर्ट पर और गिरने को होना, आप क्या लिखोगे उसे? आगे का सीन तो लिखा है, एक
एक्ट्रेस आती है, ये लिखा हुआ है। लेकिन वह जो शॉट है, वह सबटेक्स्ट है। अगर उसे
नॉर्मली शूट किया जाता कि एक एक्ट्रेस आकर पत्रकारों से बात करने लगती है, तो वो
विडम्बना निकल जाती। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गौरव</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - जोगी नल ऑन करता है तो पानी नहीं है, ये था
स्क्रिप्ट में? <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> ये नहीं था। वह
इसलिए आया कि उस संडास में वॉशबेसिन तक नहीं था। हमने सेट वाला वॉशबेसिन लगाया।
ऐसे मौकों पर हमें ही पानी की टंकी लगानी होती है और निकास की व्यवस्था करनी होती
है। लेकिन मेरी प्रोडक्शन डिजाइनर ने कहा कि बजट नहीं है, न ही आपको पानी की टंकी
मिलेगी और न ही पानी का निकास। तो बस बिना पानी का वॉशबेसिन मिला। वहाँ से आइडिया
आया कि कृष्णन का तो चपरासी है, वो मिनरल वॉटर से उसके हाथ धुलाएगा। जोगी के लिए
पानी नहीं होगा। <br />
<br />
जैसे सीन 1 से 80 हैं। वैसे ही सीन 1.5 से 80.5 हैं। हमने फ़ाइनली स्क्रिप्ट में 1
से 80 अलग कर दिया और 1.5 से 80.5 अलग। जैसे आईपैड में होता है, (हाथ के इशारे से
बताते हैं) आधे ऊपर चले गए और आधे नीचे चले गए। इस तरह जब इवेंट वाले मेन सीन कट
गए, तब हमने इंटरमीडिएट सीन्स की फ़िल्म बनाई।
<br />
</span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgB4XKq9h3GXRlDq_4hIYQzYito5RMG6qjwZDCjmkDUMUX8zlbnB-bE3cWYJAVqyMqZlUdTzdjVoHKv1Em5ZtLd1_Diig8its9cMj_cc3oQFgo1SNJa1jSwFsD4iYyZ-Uinnx4EDG8VzQg/s1600/Shanghai+Team+05.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="264" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgB4XKq9h3GXRlDq_4hIYQzYito5RMG6qjwZDCjmkDUMUX8zlbnB-bE3cWYJAVqyMqZlUdTzdjVoHKv1Em5ZtLd1_Diig8its9cMj_cc3oQFgo1SNJa1jSwFsD4iYyZ-Uinnx4EDG8VzQg/s320/Shanghai+Team+05.jpg" width="320" /></a></div>
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - जैसे मैं उदाहरण देती हूं। मैडम जी की
प्रेस कॉंन्फ्रेंस थी कि आईबीपी क्यों महत्वपूर्ण है, फिर उनकी देशनायक के साथ
पॉलिटिक्स थी। पहले ये था कि मैडम जी अनाउंस करती हैं सीधा कि कृष्णन इंक्वायरी
करेगा। वो टीवी पे देखता है। तो बाद में हमने ये भगवान की नज़र से देखे हुए ये सारे
घटना-केन्द्रित सीन निकाल दिए। अगर उस तरह की फ़िल्म होती तो अभय नल खोलता और उसमें
पानी होता। लेकिन विडम्बना यही है कि जोगी का जो मूमेंट है, वह बड़ा सीन है। तब उस
तरह के सीन लिखे गए, आगे आए। विनोद और दामले के सीन निकल गए, टेप बेचने की बात के।
<br />
<br />
क्योंकि प्लॉट क्या है? कोई भी अख़बार खोलिए, आप आदर्श स्कैम ले लीजिए। दसवीं का
बच्चा भी बोलेगा कि ये ये लोग इसमें इनवॉल्व्ड हैं। लेकिन शंघाई को यह नहीं करना
था। वह दो बिन्दुओं पर हमला करती है। एक न्याय की बात, कि आप प्रूव कैसे करोगे? बदला
नहीं लेना है तो प्रूव तो करना पड़ेगा। और प्रूव करने के दौरान आप पर क्या बीतती
है? और वो बीतनी वो नहीं थी हमारी, कि दो पड़ोसी हँस रहे हैं, आपकी नौकरी चली गई,
आपकी बिजली बन्द कर दी। वो नहीं, वो कि बस आप हो अपने साथ। वही, जो शालिनी बोलती
है कि मैं तुम्हारे साथ सोने के लिए तैयार हूं। वो बहुत पर्सनल मामला है। पहले एक
पैसे देने का भी सीन था। कि शालिनी अपना घर गिरवी रखती है। वह घर, जो बिकाऊ था,
शुरू में ब्रोकर दाम लगा रहा था। <br />
<br />
<b>गौरव</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> एक कमी मुझे लगती
है कि डॉक्टर अहमदी जितना बड़ा किरदार है, उसका असर उतना दिख नहीं पाता। उसके साथ
की पब्लिक का ओपिनियन कहीं नहीं दिखता, ज़ी में वह किरदार ज़्यादा पब्लिक से जुड़ा
लगता है। यहाँ उसके मरने से पहले के सीन में न ज़्यादा लोग उसके साथ लगते हैं, न
विरोध में..<i> <br />
</i><br />
<b>दिबाकर</b> - ज़ी में वो डेमीगॉड है। हमारे यहां कोई डेमीगॉड है नहीं। अन्ना हजारे
भी कोई बड़ी चीज नहीं है। हमको मौका मिलते ही हम उसे नीचे कर देते हैं। हम बौनों का
समाज चाहते हैं। हम असल में चाहते हैं कि हम सब बौने रहें। ताकि हम सब सुरक्षित
रहें कि हम सब चार फ़ुटिया हैं, कोई छ: फुट का नहीं है। ऐसे ही हैं हम। मुझे अहमदी
करिश्माई नहीं लगते। उनके पीछे बहुत लोग हैं, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है कि वो महात्मा
गाँधी हैं। </span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - और कोई हो भी, तो हम आज के टाइम में नहीं
मानते। मेधा पाटकर भी सीआईए की एजेंट, अरुंधति रॉय भी सीआईए या चीन की एजेंट। जब
ज़ी बनी है, वहाँ बहुत बड़ी राजनैतिक बहस है फ़िल्म में, शीतयुद्ध और शांति के बारे
में। आज की तारीख में आपके पास कोई बहस नहीं है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> अच्छा, डेमीगॉड नेता और डेमीगॉड फिल्मस्टार के सिवा आपने कभी कोई किसी के
लिए पागल देखा है आज की दुनिया में? और हो सकता है कि आपको वह उतना बड़ा नहीं लगा,
तो कोई ग़लती रह गई हो। <br />
<br />
<b>उर्मि</b> - मैं ये भी कह रही थी कि अगर मेधा पाटकर का इस तरह किसी जगह
एक्सीडेंट हो जाता है, तो भी ज्यादा रिएक्शन नहीं होगा। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - जैसे फिल्म में हो रहा है, मेधा पाटकर के साथ कुछ हो, तो हूबहू
यही प्रतिक्रिया होगी हमारे यहाँ। अगर आप सफदर हाशमी की मौत देखें या ऐसा ही कुछ
देखें, तो ये अचानक यहीं पे इसी तरह मोहल्ले के बीच में होती हैं। दस हज़ार की भीड़
में कभी कोई नहीं मारता। तब तो वो विशाल जागरण होता है, वहां सब कुछ पहले से तय
होता है, सुरक्षा होती है, सबको पता होता है कि क्या होने वाला है।</span> <br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और जब सफ़दर हाशमी मरते हैं, या उड़ीसा
में जैसे मिशनरी मरे थे, उन्हें बच्चों के साथ जला दिया था, इस तरह की हत्याएं
300-400 लोगों के बीच होती हैं। सब ख़बरों को देखिए। वो तो एक कॉलोनी में मीटिंग
करने आया था। <br />
<br />
<b>उर्मि</b> - वो छोटे छोटे विरोधों की बात हो रही थी। वो बहुत बड़ा नहीं था। शुरू
में मुझे भी लगा था कि बड़ा होना चाहिए था। लेकिन अब यह छोटा स्केल मुझे बेहतर लगता
है। क्योंकि ये राजीव गांधी की हत्या जैसी आतंकवादी घटना नहीं है, छोटी घटना है। <br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> उर्मि, हमें आपकी पूरी प्रोसेस की बात करनी चाहिए। कहां असंतुष्ट थीं आप,
कहां संतुष्ट थीं, हर चीज तक...असल खून, पसीने, आंसुओं तक ले जाइए इन्हें.. <br />
<br />
<b>उर्मि</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जब पहले दो ड्राफ़्ट
हुए, एक मेरा, एक इनका। उनका कुछ मतलब नहीं था मेरे लिए। क्योंकि न ये एक सोशल
क्रिटिक था, न अच्छा ड्रामा था। एक बात से दिबाकर बहुत कतराता है कि उनके लिए
सेंटीमेंट और इमोशन का बड़ा इश्यू है। कि कोई ऐसे उदास बैठा है और 500 वॉयलिन बज
रहे हैं, तो आप सेंटीमेंटली लोगों को मजबूर कर रहे हो बुरा मानने के लिए। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> रामायण और
रामचरितमानस में यही फर्क है। मेरे हिसाब से रामायण एक क्लासिक कहानी है जो स्पष्ट
रूप से बताई गई है कि ये बन्दा, इसने इसको मारा, इसे फॉलो करो, इसे नहीं करो।
रामचरितमानस भक्ति काल का है। तो उस वक्त इतना प्रेशर था यहां हिन्दू समाज में, इसे
हिन्दू-मुस्लिम एंगल से मत देखिए, लेकिन सल्तनत से एक पूरा ख़ौफ़ था सांस्कृतिक रूप
से, तो भक्ति उस भावना को निकालने का तरीका बना। तो राम जी के बचपन को लेकर इतना
रुलाओ, इतना रिझाओ दर्शकों को, कि वे भावनाओं से लहूलुहान हो जाएं। उसके बाद कहानी
अपने आप आगे चल पड़ेगी। <br />
<br />
दोनों के बीच यही सेंटिमेंटेलिटी का फर्क है। और वो भी कैसी? बच्चे के लिए.. उसके ख़िलाफ़
तो कुछ भी नहीं कह सकते। बच्चा! (</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बच्चा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> पर ज़ोर देकर) कितना अजीब है। आपने शुरू से
किसी को इस तरह दिखा दिया तो फिर कुछ नहीं हो सकता। <br />
<br />
<b>उर्मि</b> - ओए लकी में देखिए, जब दर्शक कम उम्र के लकी को देखते हैं, उसके बाद
बहुत ओपन था फील्ड। क्योंकि उसके बाद लोग नफ़रत कर ही नहीं सकते थे उस से। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - पर हम वहां भी बचे सेंटीमेंटेलिटी से। बहुत बड़ा विश्वासघात किया
दर्शकों के साथ। कि बचपन में कैसा दिखाया, और बड़ा होकर कैसा। <br />
<br />
<b>उर्मि</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> वो </span>insanity<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की कहानी थी। एक मासूम लड़के के </span>insane<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> होने की कहानी। लेकिन शंघाई कभी इमोशनल कहानी
नहीं थी। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - शंघाई इमोशनल कहानी है, (हम तीनों हँसते हैं)...हाँ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हाँ, शंघाई इमोशनल
कहानी है लेकिन इसमें किसी किरदार को इमोशनली मेकअप नहीं किया गया। मेरे को
सेंटीमेंटल नहीं करना। ट्रू इमोशनल करना है। <br />
<br />
<b>गौरव</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> इस फ़िल्म में शायद
किसी को उस तरह से ख़ुशी या दुख नहीं होता, उन्हें गुस्सा आ रहा है और परेशान हो
रहे हैं। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> यह नई बात कह
रहे हैं आप। हाँ, सही है शायद। </span>Pathos is there, but characters are not
feeling pathetic<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">।</span> <br />
<br />
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
कोई </span>personal anguish<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> नहीं है,
कल्कि के सिवा। अरुणा अहमदी भी एक बार शीशे के सामने रोती है, कल्कि भी एक बार।
लेकिन वे अपना काम निरंतर करते रहते हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - कल्कि के रोने में </span>Catharsis <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">है। वो रोके निकल आया है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - इस संतुलन को पाने में बहुत देर लगी। मेरे
ख़याल से शूट से बस एक महीने पहले ही यह पूरा हुआ। जब हम गोआ गए थे आखिरी ड्राफ्ट
करने के लिए। और दिबाकर की दूसरी आदत यह है कि वो बच्चे की तरह सुन्दर-सुन्दर
चीजें लेकर आता है छोटी छोटी, अपने पिटारे में से। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - (ज़ोर ज़ोर से हँसने लगते
हैं) इस से मुझे एक ही चीज याद आती है। बचपन में ऐड एजेंसी की जो पार्टी होती थी,
वहाँ पे हर पार्टी में कोई एक पिया हुआ कॉपीराइटर होता था, वो बेचारा अपने घर से
एक बैग लेके आता था, जिसमें कैसेट होती थी। और जाता था, जहाँ गाने बज रहे होते थे..जाके
कहता था- ये बजाइयो, ये बजाइयो.. (ऐक्टिंग करते हैं) </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक पार्टी में तो
मुझे एक बंगाली कॉपीराइटर याद आता है, उसका पेट जींस से बाहर को लटक रहा था, -
प्ले दिस, हे प्ले दिस। (फिर से ऐक्टिंग)...और सीडी वाली पार्टी थी। जहाँ पे सीडी
चलती है, वहाँ पे कैसेट लेके आया..<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">(हम सब ज़ोरों से
हँसते हैं)<br />
<br />
<b>उर्मि</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> शालिनी बहुत
मुश्किल किरदार थी। सोशल एक्टिविस्ट थी। उसके डैड वाला एंगल था। बहुत कुछ लाया था
दिबाकर। शालिनी के पीछे तीन बच्चे </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
ए फॉर अमिताभ, बी फॉर बच्चन कहते हुए चलते आते हैं। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - वो पढ़ाती है आँगनबाड़ी स्कूल में बच्चों को। ..(हँसने लगते हैं,
हँसते हँसते सोचने लगते हैं)...अरे ये तो सुपरहिट फ़िल्म हो जाती यार..<br />
<br />
<b>उर्मि</b> - किसी ने मुझे मैसेज भेजा कि ये बैस्ट फ़िल्म नहीं है दिबाकर की।
बैस्ट फ़िल्म ओए लकी थी। तो मैंने जवाब दिया- पर वो लिख चुके थे ना, दुबारा नहीं
लिख सकते थे। <br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">(फिर हम सबकी हँसी)<br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - जिस तरह के मैसेज मुझे आ रहे हैं, फ़िल्म का चाहे कुछ भी हो, लेकिन
मेरा हौसला 4 गुना हो गया है। हम सोच रहे थे कि इस फिल्म को कौन देखेगा? ऐसी
फिल्म, जो कोई भी समझौता नहीं कर रही है। एलएसडी के टाइम पर इतने रिएक्शन नहीं आए
थे, ओए लकी के टाइम पर नहीं आए थे, <br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> वो 26/11 के टाइम भी आई थी। उसे देर में देखा लोगों ने.. <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - तब तो </span>shocked<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
हो गए थे लोग। उसे ये नुकसान हुआ कि पहली </span>shocker<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> थी वो। उसने खोसला की उम्मीदों को तोड़ा। लेकिन उसके
बाद से ये हो गया था कि अब उम्मीद मत करना कुछ। <br />
<br />
गौरव, मैं मानता हूं ना कि कॉर्पोरेट क्लास जो है ना, सबसे ज्यादा घिसा हुआ क्लास
है। उनको किसी चीज का कुछ फर्क नहीं पड़ता। टिपिकल मल्टीप्लेक्स क्लास है जो शहर का,
आई डोन्ट केयर वाला, उससे सबसे ज्यादा मैसेज मिले मुझे, कि हम फिल्म देख कर बहुत
प्रभावित हो गए, और थोड़े से हिल गए। <br />
<br />
<b>उर्मि</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> टाइटल ख़त्म होने
तक बहुत लोग बैठे रहे। मेरी माँ ने कहा कि टाइटल कितने तेज निकल गए। मैंने कहा कि
आप बैठी क्यों थी वहाँ तब तक? तो लोग तुरंत उठकर निकल नहीं पाए ठीक से। वो प्रभाव
था। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दरअसल गुस्सा था
हमारे मन में। ये किसी बड़ी चीज की कहानी नहीं है। यह उन रोज़मर्रा के चुनावों की
कहानी है, जो हम करते हैं अपनी ज़िन्दगियों में। हमने कूल होने के चक्कर में वे
छोटे छोटे चुनाव करने बन्द कर दिए हैं। ये मेरा गुस्सा है कि कुछ हो गया है कि
हमने ऐसे रहना स्वीकार कर लिया है कि आपके पड़ोसी न हों, कोई न हो। आज की तारीख में
हमने अपने आपको बिल्कुल अलग थलग कर लिया है। हम अपने आसपास की दुनिया से बात तक
नहीं कर रहे। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
मैं समझ नहीं पा रही थी कि ये सब हुआ कैसे। क्योंकि मैं जब बड़ी हुई थी, तब ऐसा
नहीं था। हम अपनी दुनिया का हिस्सा थे। मुझे याद है, गणपति के टाइम पे ये था ही कि
आप कुछ प्ले करो, बच्चों को लेके कुछ करो। और ये फ़िल्मों की नकल नहीं होता था। तरह
तरह के कॉम्पीटिशन होते थे। आज जब मैं उसी जगह वापस जाती हूं तो वो सब बन्द हो गया
है। लोग मिलते नहीं हैं एक दूसरे से। और जहाँ मिलते भी हैं, वहाँ हिन्दी फिल्म के
गाने पर नाचते हैं। तो मैं समझने की कोशिश कर रही हूं कि यह क्यों हुआ, कैसे हुआ।
हमने स्क्रिप्ट के एक ड्राफ़्ट में तो यह रखा भी था कि 1992 में रुपया </span>partially
convertible <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हुआ और तब से यह बदलाव आया
है। तो वो सारी समझ हमारी थी कि कुछ बदल रहा है। दिबाकर मुझसे बहुत छोटा है। मैं
थोड़ा सा ज़्यादा देख चुकी हूं बदलाव, लेकिन समझ उसकी भी थी। हममें असहाय </span>mode<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बहुत ज्यादा है। और अन्ना हजारे के साथ खड़े
होकर लड़ने से कुछ नहीं होगा। हर दिन आपको सही चीजें चुननी होंगी। और ये किया जा
सकता है। <br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अभय हो, इमरान हो,
कल्कि हो, अरुणा अहमदी हो, सब लोग अपने मन के ख़िलाफ़ एक चीज चुनते हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गौरव</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - अरुणा अहमदी वाले अंत को कैसे देखें? <br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - उसे मुख्यमंत्री के पद के लिए खड़ा किया है
दिल्ली ने। और आईबीपी अब उसके हाथ में है। <br />
<br />
<b>उर्मि</b> - ये बहुत लोगों ने डिबेट किया है। दिबाकर और मैं भी शायद इस पर
असहमत हैं, लेकिन मेरे लिए वह </span>positive end<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> है। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - नहीं नहीं। मेरे लिए भी पॉजीटिव है, अब देखना है कि वह क्या करती
है। एक शुरुआत तो हुई। अब पांच साल पहले यूपीए की सरकार चालू हुई थी, उसे तो कोई
नेगेटिव नहीं कह सकता था ना। आज उसे हम नेगेटिव कह रहे हैं। तो उस टाइम पे जाके
हमने छोड़ दी है, अब पांच साल में देखना है कि अरुणा अहमदी भी समस्या बनती है या
फिर कुछ हल करती है। <br />
<br />
<b>गौरव</b> - आईबीपी को यानी कॉर्पोरेट के इस विकास को ख़त्म करने की, या बदलने की,
फ़िल्म कहीं बात नहीं करती.. </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - विकास बहुत जटिल मुद्दा है। मैंने भूटान
में देखा, जहां कोई विकास नहीं है, कुछ नहीं बदलेगा। सारे लोग वही कपड़े पहनेंगे।
वो उनका </span>Gross National Happiness<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
का </span>quotient<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> है। तो वहां के
बच्चे टीवी देखते हैं, लेकिन उन्हें पुराने कपड़े पहनने पड़ रहे हैं। शिक्षा नहीं है।
तो यह भी कोई रास्ता नहीं है कि विकास ही न हो। लेकिन किसकी प्रगति, किसका देश, यह
सवाल है। <br />
<br />
<b>दिबाकर</b> - कॉर्पोरेट वाली कोई और फिल्म है, जो नहीं लिखेंगे (हँसते हैं)। वो
फिल्म जब बनेगी ना, उसे जेनुइनली सड़क पर जाकर दिखाना पड़ेगा। राजनीति को सड़क पर
बहुत लोग दिखा चुके, इसलिए हमने अलग मनोवैज्ञानिक ढंग से दिखाया। लेकिन कॉर्पोरेट
को सीधा अंकुश के लेवल पे बिल्कुल सच दिखाना पड़ेगा। क्योंकि कॉर्पोरेट वालों को तो
वो सब दिखाकर कोई फायदा नहीं है। उन्हें तो सब पता है और वो तो उसी का खा रहे हैं।
इसलिए वह सिंगल स्क्रीन वालों को दिखाना पड़ेगा। मेरे दिमाग में ये बहुत दिन से घूम
रहा है कि कॉर्पोरेट वाला जो चक्कर है, वो इस तरह से स्ट्रीट लेवल पे दिखाया जाए,
जिसमें ये पता चले, कि देख, तू मुझे एक रुपया दे, एक रुपया इसमें मैं जोड़ता हूं।
मैं तेरे नब्बे पैसे किसी और को देता हूं, दस पैसे मेरे। तो मेरे पास एक रुपया दस
पैसे हो गए। इतने में सामने वाले को समझ ही नहीं आया कि क्या। तो वह सौ लोगों से
यही बोलता है। उसके पास एक सौ दस रुपए हो जाते हैं। फिर वह एक करोड़ लोगों से यही
बात बोलता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यही कॉर्पोरेट सफलता
का सीक्रेट है। चिटफंड वगैरा। उस तरह की किसी फ़िल्म में बहुत मजा आएगा। वो बहुत
एक्स्पोजिव होगा। और हम उसे अलग तरह से ही बनाएंगे। लेकिन उसमें एक्सपोजर और
रिवेंज का </span><a href="http://en.wiktionary.org/wiki/vicarious" rel="nofollow" target="_blank">vicarious</a><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>pornographic
pleasure<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> होना चाहिए। स्ट्रीट लेवल पर
वही करना होगा। </span>It has to be a <a href="http://www.blogger.com/blogger.g?blogID=3397625455153185507" title="मज़दूरों की"><span style="color: #674ea7;">proletariat</span> </a>film<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">.</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गिलोटिन का चद्दर लगाना पड़ेगा।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गौरव</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> दिबाकर, आपके किरदार आख़िर में किसी चतुराई से जीतते हैं। यह परंपरागत
नायक से अलग तरीका है कि सिर्फ परंपरागत रूप से अच्छा रहने से कुछ नहीं होगा। क्या
यही एक तरीका बचा है इस व्यवस्था से पार पाने का? </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> एक ही तरीका तो नहीं बचा, लेकिन मैंने किसी को देखा ही नहीं सौ प्रतिशत
ठीक रहकर जीतते। और यह होना भी नहीं चाहिए। जब गाँधी जी ही..पैंतरा चलते थे,
राजनीति की चाल होती थी ना? अगर आप गाँधीजी के ऊपर लिखे गए लॉर्ड इरविन के मेमोज
देखें तो वे मेमोज पे मेमोज लगातार लिखे जा रहे हैं कि इस बदमाश को अंडरएस्टिमेट
मत करो, ये गुजराती बनिया, श्याणा, बहुत काइयां है..और ये ऊपर से बहुत दिखा रहा है
कि बकरी का दूध पीता है और लंगोट में रहता है। इसके इतने पैंतरे हैं कि ये जो नमक
वाला चक्कर ये कर रहा है, ये देखो, ये ऐसे ऐसे ऐसे तुम्हारी नींव को हिला देगा। तो
ये मेमोज में लिखा है, तो इरविन के हिसाब से तो गाँधीजी बहुत श्याणे हैं, बहुत
ग्रे कैरेक्टर हैं। वो पागल हो जाते थे, डील ही नहीं कर पाते थे। गाँधीजी पहली
मीटिंग में आएँगे तो कुछ बोलेंगे, दूसरी मीटिंग में कुछ बोलेंगे। और दोनों ही मतलब
उतने ही सही हैं और उनके पीछे बीस करोड़ जनता खड़ी हुई है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
तो जो सबसे बड़ी हस्तियां होती हैं, उनमें ग्रे का बड़ा हैल्दी मिश्रण होता है। यही
उन्हें सफल बनाता है कि वे गेम बदलते रहते हैं। उनके लिए आदर्श उनके आदर्श हैं,
कोई बिहेवियर नहीं है। और वे अपने आदर्श से खेल रहे हैं, आपके आदर्श से नहीं। वे
अपने आदर्श कभी भी बदल सकते हैं। तब आप कहेंगे कि सर, आपने सिलेबस चेंज कर दिया।
वे कहेंगे, लेकिन सिलेबस तो मैं ही लिखता हूं ना, मैं जो मर्ज़ी करूं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - और यह ज़रूरत भी है। शंघाई उस ज़रूरत पर भी
सवाल कर रही है। कि डॉ. अहमदी सिर्फ सफेद क्यों नहीं हैं? मैडम जी पूरी काली क्यों
नहीं हैं? तो देवता तो कोई है नहीं। जो अरुणा की पूरी लाइन है, वो तो पूरी फ़िल्म
को लेकर होती है- सबको देवता चाहिए, मरने और मारने के लिए।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गौरव</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - क्योंकि हम सिर्फ़ देवता को ही हीरो मानने
को तैयार होते हैं</span>..<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - नहीं, हम एक को चुन लेते हैं। कि इसको
देवता बनाएँगे। उसको बनना पड़ेगा। तभी कुछ लोग जानबूझकर बन जाते हैं। और जो भी
आसुरिक होता है, वह छिपकर करते हैं फिर। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसे मोर्चा के लिए आईबीपी देवता है ना फ़िल्म में। उसके ख़िलाफ़ बोलो तो
मार दिया जाएगा। उन्होंने तय किया है कि ये देवता है, इसे कोई नहीं छुएगा। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गौरव</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - फ़िल्म की शुरुआत में जो कालिख पोतने का सीन
है, बहुत स्लो मोशन में, वह बाद में आया या स्क्रिप्ट में था? </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> एकदम स्क्रिप्ट में लिखा हुआ था। और वो ग़लत किया। एकदम ग़लत किया। वो अटका
देता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - मैं इससे सहमत नहीं हूं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - फ़िल्म की एक जेनुइन आलोचना है कि पहले 20
मिनट में पकड़ आते-आते आती है। फिर डॉक्टर का एक्सीडेंट होता है, उसके बाद गाड़ी आगे
चलती है। उसका एक मेन कारण है, यह कालिख वाला सीन। लेकिन इसके बिना भी हम नहीं कर
सकते थे। यह आगे कुआं, पीछे खाई वाला चक्कर था। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गौरव</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> लेकिन आपको ऐसा क्यों लगता है कि यह पकड़ को कमज़ोर करता है? </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> डबल ओपनिंग है ना। एक तो कहानी की शुरुआत तब है, जब गौरी फ़ोटो देखकर पूछती
है </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> दीदी, ये आदमी कौन है..और
दूसरी आईबीपी के इंट्रोडक्शन की ओपनिंग है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - तो वो डबल ओपनिंग आप फिर भी संभाल लोगे,
लेकिन उससे पहले एक और ओपनिंग जग्गू-भग्गू की। इसीलिए शुरू के 15-20 मिनट हम
डगमगाते...नहीं, डगमगाते नहीं हैं..यह कहानी में लोगों के दाख़िल होने का रास्ता
मुश्किल कर देता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इस पर बहुत बहस हुई
थी। शुरू में उर्मि इसके खिलाफ़ थीं। लेकिन ये मेरा पसंदीदा सीक्वेंस था, मेरे
पिटारे में पड़ा हुआ था। कि कहीं ऐसे दिखाएंगे कुछ स्लो मोशन में। स्लो मोशन एक
विज्ञान है। कि स्लो मोशन में क्या दिखता है। ऐसा नहीं कि कोई आदमी दौड़ रहा है,
उसे दिखाओ। लेकिन एक छोटी सी चीज, जिसे आप 2000 फ्रेम प्रति सेकंड में कह सकते हैं।
जैसे, ओए लकी में मिसेज हांडा का एक स्लो मोशन था, जब वो लिपस्टिक लगाती है। मिसेज
हांडा का वो राक्षसी रूप सामने आता है। ऐसा ही कुछ चाहता था। तो मेरे दिमाग में ये
प्रमोशन पिटारा आइडिया था और लिखते-लिखते वो हो गया। उस टाइम पे उर्मि ने कहा था
कि इस सीन में कुछ प्रॉब्लम है। लेकिन मैंने कहा कि नहीं, मुझे शूट करना है। किया।
ऐडिट पे लगाने के बाद मुझे उस सीन पे प्रॉब्लम आ गई। मुझे लगा कि ये सीन एक्स्ट्रा
है। ये दिखा रहा है कि देखो...मैं कितना अच्छा डायरेक्टर हूं, स्लो मोशन में मुंह
काला करते दिखा रहा हूं। तब मैंने उसे काट दिया और फिर पूरे ग्रुप को दिखाया।
मैंने ऐसे 3-4 बार काटने की कोशिश की और हर बार ग्रुप ने कहा कि नहीं, यह होना
चाहिए। उर्मि ने खुद कहा कि अभी ये कुछ बता रहा है, </span>it sets up the film<span style="font-family: Mangal;">.</span><br />
<br />
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
जिस समय में हम रह रहे हैं, यह उसकी बेहद व्यक्तिगत हिंसा है। एक खून वाली हिंसा
होती है, एक होती है आपके ज़मीर पे, आप पे हमला होता है ना, </span>physical attack<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> नहीं है, आपके विचारों पर हमला है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicyXaQV6EFvg4qPJD3Fx7q9hFQo3YmtlT533Jfl97GenRBHuwOurlaKyjhivSHV3T2-_L6syqIrNF-JCqxWyHl0ADhtKVhMqwcaB1lSOexKiuvmLnYTNIgzaSSLsWE9Bon435HYgMfQiw/s1600/Shanghai+Team+02.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicyXaQV6EFvg4qPJD3Fx7q9hFQo3YmtlT533Jfl97GenRBHuwOurlaKyjhivSHV3T2-_L6syqIrNF-JCqxWyHl0ADhtKVhMqwcaB1lSOexKiuvmLnYTNIgzaSSLsWE9Bon435HYgMfQiw/s400/Shanghai+Team+02.jpg" width="400" /></a>
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - मैं अपनी ज़िन्दगी का कीमती लम्हा बताता हूं
किसी फ़िल्म का..पाथेर पांचाली में अपु की मां है..और वो बूढ़ी औरत..इन्दिर ठाकरुन..वो
औरत, जो मर गई थी..उसके मरने से पहले का एक सीन है..जिसमें अपु की मां खाना-वाना
खाके..बंगाल में वो कांसे के कटोरे में दूध पीते हैं गाय का..तो जैसे ही वो दूध
पीने लगी, इन्दिर ठाकरुन, जो उनके घर में आश्रित है..वो उसके सामने आकर मुंह खोलकर
बैठ गई कि मेरे को भी दे दो। (मुँह खोलकर दिखाते हैं) वैसे तो ये कॉमिक सीन है। और
तब, अपु की मां दूध पीती जाती है..और उस बूढ़ी औरत का चेहरा छोटा होता जाता है..और
जो लालच है ना..और दूध की धार कटोरे के दोनों तरफ से उसके होठों से बह रही है..यह
बहुत डराने वाला है। मैं बंगाली हूं, मैंने देखा है अपने घर में ऐसे दूध पीते हुए।
तो मेरे लिए वह हिंसा बहुत बड़ी हिंसा है..<br />
<br />
<b>उर्मि</b> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> मैंने देखा है
साउथ में, मदुरै में, लाश को जलाने से पहले एक आदमी को उसके ऊपर चढ़ाई गई खाने की चीजें उठाकर खाते हुए..मारपीट की हिंसा कुछ
नहीं डराती उसके सामने। <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गौरव</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - कुछ ऐसे पसंदीदा सीन, जो शूट हुए हों लेकिन
किसी वजह से एडिटिंग के वक्त कटे हों?<o:p></o:p></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
</div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - एक भग्गू का डांस था, जब टीना आती है, वो
अजीब सा नाचता है। देखने में बहुत अच्छा था लेकिन उससे हमारी स्पीड जा रही थी। वह
प्रोमो में था। एक अभय का आखिर में डायलॉग था, जस्टिस का सपना मैंने छोड़ दिया है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> अभी फ़िल्म ख़त्म होती है कि ये सीएम पीएम बन सकती थी और भारत चीन बन सकता
था.. </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> - इसीलिए यह अब पहले से बड़ी फ़िल्म है। कौल के
इस सवाल के जवाब में, कि ये है तुम्हारी जस्टिस, जैसे ही अभय बोलता </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जस्टिस का सपना मैंने छोड़ दिया है। वो तो तब
मिलता, जब भारतनगर वालों को घर जैसा घर मिलता। वो तो होने नहीं वाला है, मेरे लिए
यही काफ़ी है। यह इतना लम्बा बोलता तो अंकुश बन जाती ना फ़िल्म। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उर्मि</span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> (थोड़े व्यंग्य से हँसकर) </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> लेकिन स्पष्ट तो हो जाती फ़िल्म। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिबाकर </span></b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">- स्पष्ट अभी भी है।<br /><br />(</span>यह लेख/इंटरव्यू अपने संपादित रूप में तहलका हिन्दी के 30 जून, 2012 के अंक में छपा है <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">)<o:p></o:p></span></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-64433695544985742842012-06-09T05:42:00.000-07:002012-06-09T06:48:30.071-07:00'शंघाई' हमारी राष्ट्रीय फ़िल्म है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj94W0-d6i17hCaE_Aa7ERrUvJW2MVhTNqa7uMoXzeI5oxzhvLdNU7qzyek00kimdEN9J0GBZXtZyQG-h2NfBbAZhn5xgU3lUCCTehyphenhyphenro6c-KDsjgD7wmOO_JMWvKDowudl11YWfiPNiwU/s1600/shanghai2.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj94W0-d6i17hCaE_Aa7ERrUvJW2MVhTNqa7uMoXzeI5oxzhvLdNU7qzyek00kimdEN9J0GBZXtZyQG-h2NfBbAZhn5xgU3lUCCTehyphenhyphenro6c-KDsjgD7wmOO_JMWvKDowudl11YWfiPNiwU/s400/shanghai2.jpg" width="400" /></a></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><b>एक लड़का है</b>, जिसके सिर पर एक बड़े नेता देश जी का हाथ है। शहर के शंघाई बनने की
मुहिम ने उसे यह सपना दिखाया है कि प्रगति या ऐसे ही किसी नाम वाली पिज़्ज़ा की एक
दुकान खुलेगी और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">समृद्धि इंगलिश
क्लासेज</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> से वह अंग्रेजी सीख
लेगा तो उसे उसमें नौकरी मिल जाएगी। अब इसके अलावा उसे कुछ नहीं दिखाई देता। जबकि
उसकी ज़मीन पर उसी की हड्डियों के चूने से ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं, वह देश जी
के अहसान तले दब जाता है। यह वैसा ही है जैसी कहानी हमें </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
के एक नायक (नायक कई हैं) डॉ. अहमदी सुनाते हैं। और यहीं से और इसीलिए एक विदेशी
उपन्यास पर आधारित होने के बावज़ूद शंघाई आज से हमारी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">राष्ट्रीय फ़िल्म</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> होनी चाहिए क्योंकि वह कहानी और शंघाई की कहानी हमारी
</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">राष्ट्रीय कथा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> है। और उर्मि जुवेकर और दिबाकर इसे इस ढंग से
एडेप्ट करते हैं कि यह एडेप्टेशन के किसी कोर्स के शुरुआती पाठों में शामिल हो
सकती है।</span></div>
<a name='more'></a><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन कपड़े झाड़कर
खड़े मत होइए, दूसरी राष्ट्रीय चीजों की तरह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
कहीं गर्व से नहीं भरती, कहीं अपने सम्मान में तनकर सीधे खड़े होने की माँग नहीं
करती, बल्कि आपकी छाती पर हथौड़े मारती है और आपके कानों को हमेशा के लिए आपके
ढाँचे से निकालकर एक बूढ़ी औरत की उस पुकार में ले जाती है, जो हमारे रचे इस वर्तमान
में रह नहीं पा रही, इसलिए अतीत में जाकर अपने बेटे कुक्कु को पुकारती रहती है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI">
<br />
</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कुक्कु कौन है?</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><o:p></o:p></span><br />
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वीडियो शूटर जोगी उस
बेटे की बेटी शालिनी से पूछता है। और हम सब एक दूसरे से। कुक्कु यूं तो शालिनी के
पिता हैं लेकिन वह हर आदमी भी है जिसे सच्चे होने की सज़ा मिली। जिसे हर शहर की
पुलिस झूठे केसों में ढूंढ़ती है, सताती है, ख़त्म करती है। जिसे किसी बेचैन रात में
इसीलिए कुचल दिया गया, क्योंकि वह कमज़ोरों के कुचले जाने का विरोध कर रहा था। जो
बराबरी के लिए लड़ रहा था, उसे पचासों लोगों ने मारा और हम सब की चुप्पी ने। कि हम
अख़बार पढ़ते रहे, वे सब बिके हुए अख़बार, जिन्हें इस बात की फ़िक्र ज़्यादा है कि एक
हीरोइन टीना की प्रियंका चोपड़ा से कोई अनबन है क्या। कि हम मॉल्स में जाते रहे, 35
रुपए का पानी पीने, 90 रुपए की मकई खाने, जिन्हें हमारी ज़मीन और उसी के कुंओं से
निकाला गया। हम उन काँच के दरवाज़ों के पीछे खड़े होकर उस मॉल में आने वालों से
समृद्धि इंगलिश क्लासेज से सीखी टूटी फूटी अंग्रेजी में कहते रहे, </span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मे आई चैक यू सर?</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और इस से भारत चमकता रहा, चमक रहा है, पुल, बाँध,
सड़क, एटोमिक पावर, स्काईस्क्रैपर, सेक्स, सेंसेक्स, आईपीएल, बिगबॉस। और सल्फ़ास
खाकर वे सब मरते रहे, जिन्हें हर रेल में चिपके हुए </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सिक्योरिटी गार्ड और हैल्पर की भर्ती</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के विज्ञापन ही मार डालते थे। टीवी पर ख़बर आई
कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हमारे पत्रकार ने शिवजी के
कुत्ते से बात की है।</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> हमने
आँखें गड़ाकर देखी भी। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
ख़ैर, डॉक्टर अहमदी ने जो कहानी सुनाई और जो दिबाकर बनर्जी और उनकी टीम ने हमें
सुनाई, उस कहानी पर हमारे और आपके बात करने का कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है, क्योंकि
जहाँ वह कहानी पहुँचनी चाहिए, वहाँ शायद </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">राउडी राठौड़</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> देखी जा
रही हो या अगली ऐसी ही किसी दूसरी फ़िल्म का इंतज़ार किया जा रहा हो। (मैं ग़लत सिद्ध
होऊं, यह चाहता रहूंगा) और जहाँ हम उसे देख रहे हैं, बात कर रहे हैं, वहाँ हमारे
पास उस कहानी के अच्छे अंत का शायद कोई विकल्प नहीं। बदलना तो है लेकिन बदलें
कैसे, यह सोचने की हमें फ़ुर्सत नहीं है। और साहस तो देखिए, महंगा बहुत है। <br />
<br />
मैंने भी तो यह फ़िल्म एक मॉल में देखी, झारखंड से आए एक गार्ड ने मुस्कुराकर मेरी
तलाशी ली जो बारह घंटे की एक रात के सौ रुपयों के लिए रात को एक दूसरी बिल्डिंग
में चौकीदारी करता है, और जिसके साथ खड़ा उसका कोई हमपेशा मुझे विकल्प देता है कि कि
मैं डेढ़ सौ रुपए में दो टब पॉपकोर्न ले सकता हूं या कोल्डड्रिंक की दो बोतल। <br />
<br />
</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का एक और नायक कृष्णन यह सब नहीं जानता था। वह विकास
के बाँध देखता था लेकिन उनके पानी में मिले इंसानी खून को, उसकी आईआईटी की पढ़ाई,
हाईप्रोफ़ाइल सरकारी नौकरी और विदेश जाने के सपने अनदेखा कर देते थे। शंघाई सबसे
अच्छा काम यही करती है कि उसके लैपटॉप पर आग फेंककर उसे भारतनगर के कीचड़ में
उतारती है और सब देखने देती है। तब लौटने या बचने का कोई रास्ता नहीं। वह ईमानदार
रहा है और दिमागदार भी, और उसी के पास शक्ति भी है। इसीलिए वह बाकी नायकों की तरह
शहीद नहीं होता। वही व्यवस्था का इकलौता उम्मीद भरा चेहरा भी है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdmVdGbH3QVkMi1wtozsPd0xgqmii_IXkzkTUudTuSaiEgDMJD8IMbG8nbdLNxSjC_Lot5Z4Opf83Dv5PYusecJkYBcMq2YlbyWMRSLb8NRR4GtmZ6ZNevMvE9WoV21fOQQw4ErN9b60E/s1600/shahghai3.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="267" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdmVdGbH3QVkMi1wtozsPd0xgqmii_IXkzkTUudTuSaiEgDMJD8IMbG8nbdLNxSjC_Lot5Z4Opf83Dv5PYusecJkYBcMq2YlbyWMRSLb8NRR4GtmZ6ZNevMvE9WoV21fOQQw4ErN9b60E/s400/shahghai3.jpg" width="400" /></a></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यूं तो </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> पर एक फ़िल्म की तरह भी बात की जा सकती है और बताया जा सकता है कि कैसे
इमरान हाशमी कोई और ही लगने लगते हैं, कैसे चुम्बन के एक पागल सीन में उत्तेजना के
अलावा सब कुछ है- सारा दर्द और गुस्सा, कैसे आप सिनेमाहॉल से बाहर आकर अभय देओल से
मिल लेना चाहते हैं, कैसे मुझ जैसे नासमझ का यह भ्रम चूर-चूर होकर टूटता है कि
कल्कि ज़्यादा अच्छी अभिनेत्री नहीं हैं, कैसे छोटे से छोटा एक-एक किरदार लिखा गया
है और कैसे सब अभिनेताओं ने उन्हें जिया है, कैसे फ़िल्म अपने गरीबों के साथ खड़ी
रहती है और उनके बुरे होने पर भी इसकी मज़बूर वजहों पर ज़्यादा ठहरती है, कैसे कर्फ़्यू
के एक सीन पर फ़िल्म अपने किरदारों के साथ न चलकर उसके साथ वाली समांतर सड़क पर चलती
है </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बन्द शटरों और आग को दिखाती
हुई, कैसे डॉ. अहमदी की </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">किसकी
प्रगति किसका देश</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> किताब बेच रहे
दुकानदार के चेहरे पर कालिख पोती जाती है, स्लो मोशन में, ताकि यह थोड़ी हम सबके
चेहरों पर भी पुते। थोड़ी उनके चेहरों पर भी जिन्हें </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भारत माता की जय</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> गाने में भारत माता का अपमान दिखता है, लेकिन अपनी और
गिरोह जैसी पार्टियाँ चलाने वाले अपने राजनेताओं की करतूतों में नहीं।
<br />
<br />
गौर कीजिए कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की रिलीज के दिन ही एक अदालत<span style="color: #333333;"><span style="font-size: 9px;"> </span></span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक मानवाधिकार संस्था की कार्यकर्ता और उसके
पति को इसलिए उम्रकैद की सजा सुनाती है क्योंकि उनके पास से प्रतिबंधित नक्सली
साहित्य बरामद हुआ था। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसीलिए </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> सौ प्रतिशत बेबाकी से कही गई एक दुर्लभ और सच्ची कहानी है जिस पर
प्रतिबन्ध लगाने की माँगें की जाएंगी, यह भी बड़ी बात नहीं कि ऐसा करने के लिए वही
हिंसके रास्ते अपनाए जाएँ जिनकी पोल </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> खोलती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शंघाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की कहानी को शायद कभी स्कूलों में नहीं सुनाया जाएगा, इस फ़िल्म को कभी
किसी कोर्स में भी शामिल नहीं किया जाएगा, जबकि उसका देखा जाना कम से कम वोट डालने
से पहले की ज़रूरी योग्यता तो बना ही देना चाहिए। <br />
<br />
लेकिन तब भी ख़त्म करने से पहले हमें शंघाई के दो और नायकों की भी बात करनी चाहिए। उसकी,
जो जोधपुर के अपने घर से तब भाग आया था जब उसकी दूसरी जाति की प्रेमिका के घरवाले
उसे मारने आ रहे थे और उसके पिता ने उसके लिए दरवाजा खोलकर पूछा था कि लड़ना है या
भागना है? तब वह भाग आया था लेकिन जब क्लाइमैक्स के एक सीन में वह सीपीयू लेकर
चीखता हुआ भागता है तो यह लड़ना ही है। आख़िरी लड़ाई, जिसका नायक वही है। और हमारी
पुलिस उसे अश्लील फ़िल्में बनाने के इल्ज़ाम में ढूंढ़ रही है। <br />
<br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgw7ijNZbgi8t601iv3VtNYQgE6Iv45Agu-iB-ACr5JcfwkdotCSmaXrO0pgCzqClGvBiQ9AEpXn3ZADtEQxUnpWLkeNrdPd8iNyJcpIUnGIkfrgh3i-U8RDYmfUmtN2606ckJ0XHD8Gwk/s1600/shanghai6.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="242" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgw7ijNZbgi8t601iv3VtNYQgE6Iv45Agu-iB-ACr5JcfwkdotCSmaXrO0pgCzqClGvBiQ9AEpXn3ZADtEQxUnpWLkeNrdPd8iNyJcpIUnGIkfrgh3i-U8RDYmfUmtN2606ckJ0XHD8Gwk/s400/shanghai6.jpg" width="374" /></a>
और एक और नायक शालिनी सहाय, जो अपनी सूरत से विदेशी लगती है</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और इसीलिए वह वीडियो शूटर उससे अपनी टूटी फूटी
अंग्रेजी में बात करता है। वह औरत के शरीर में सारी नैतिकता बसा देने वाले समाज पर
थूकती हुई अपने शरीर को खूंटी पर टांग देने को तैयार हो जाती है, ताकि न्याय मिल
सके। यह तब है, जब उसके पास न्याय का दम घोटने वाले हाथों को काट डालने के लिए
तीखे दाँत भी हैं। वह फ़िल्म के लगभग सब पुरुष किरदारों से ज़्यादा निडर है।<br />
<br />
और हाँ, अगर मैंने अनंत जोग, फारुक शेख, प्रोसेनजित, सुप्रिया पाठक और पितोबाश के
अभिनय की, निकोस की सिनेमेटोग्राफी और नम्रता राव की एडिटिंग की, प्रीतम दास के
साउंड डिजाइन की और माइकल मैक्लीयरी के बैकग्राउंड संगीत की कहीं तारीफ़ नहीं की तो
मुझे नादान समझकर माफ़ कीजिए। फ़िल्म को इस स्तर तक ले जाने वाले बहुत सारे और भी
लोग हैं, जिनके नाम मुझे नहीं मालूम। </span></div>
<div class="MsoNormal">
</div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कुल मिलाकर, राजनीति,
ब्यूरोक्रेसी, कॉर्पोरेट, और इनकी मुट्ठी में जनता - शंघाई हमारे समाज के हर
हिस्से को अलग फ़ॉर्मेट में, लेकिन उसी कैमरे से देखती है जैसे दिबाकर अपनी पहले की
फ़िल्मों में देखते आए हैं। लेकिन यह उन सबसे अलग है और बहुत आगे। यह आपसे पूछती है
कि क्या दिबाकर ख़ुद इससे ज़्यादा सम्पूर्ण और साहसी फ़िल्म बना पाएँगे? हम यह दिबाकर
से पूछते हैं। और चलते-चलते उन्हें बताते हैं कि वे हमारे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">राष्ट्रीय फ़िल्मकार</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसे हैं। अगर इससे कुछ बूंद भी शुक्रिया अता हो
सकता हो तो हमें चिल्लाकर कहने दीजिए कि हम उन्हें और उनकी फ़िल्मों को बेहद प्यार
करते हैं और उन्हें हमारे समय की सबसे अच्छी फ़िल्में मानते हैं, भले ही उन्हें ईनाम
दिलवाने और सुपरहिट बनाने की हमारी औकात न हो।</span></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-37834779491126840062012-05-30T21:44:00.000-07:002012-05-30T23:41:17.033-07:00क्या आपके ‘बुढ़ाना’ में भी कोई नवाज़ है?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><b></b></span>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi5_376LRTv52k3DeRsouCHBKgHral72-0lyWkH3I8199psIaJo1zZP8rN4GsFlLpC5JG1cDU2xx1uzPZqRf9gcpqL11gQh1gyHnWaz8Stcs9oJuIyuKnZ6RTkXoh3aAZuodsggmEnGvRI/s1600/NawazuddinSIddiqui.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi5_376LRTv52k3DeRsouCHBKgHral72-0lyWkH3I8199psIaJo1zZP8rN4GsFlLpC5JG1cDU2xx1uzPZqRf9gcpqL11gQh1gyHnWaz8Stcs9oJuIyuKnZ6RTkXoh3aAZuodsggmEnGvRI/s400/NawazuddinSIddiqui.jpg" width="400" /></a></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><b>एक लड़का</b>, जो बड़ौदा के एक कॉलेज में दिन
में थियेटर की पढ़ाई करता था और खर्च चलाने के लिए रात में एक पैट्रोकैमिकल
फ़ैक्ट्री में नौकरी करता था </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> 60
हजार वोल्ट के कैथोड और ऐनोड को पकड़े हुए यह जांचता हुआ कि अरब से आया हुआ यह तेल
कितना साफ है, कितना मैला। और बीच में सोने के घंटे कहां होते थे, उनका हिसाब कौन
देगा? कौन देखेगा </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पीपली लाइव</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के राकेश की उन आंखों के बीच में से झांककर,
जिन्हें एकाग्रता से ऐक्टिंग के सपने नहीं, कैथोड और ऐनोड देखने होते थे क्योंकि
पलक झपकते ही जान जा सकती थी। </span>
<br />
<a name='more'></a><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसलिए जब हम और आप </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कहानी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
के ख़ान को देखकर ताली बजा रहे हों, कुछ महीने बाद </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तलाश</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
देखकर या कुछ हफ़्ते बाद </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गैंग्स
ऑफ वासेपुर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के दबंग फ़ैज़ल खान को
देखकर या कान्स पहुंची </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मिस लवली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के सी ग्रेड फिल्म निर्माता को देखकर, तब यह
हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि हम दस-बारह साल पीछे लौटें और फिर उस से भी पीछे,
और एक अपराधबोध के साथ मुज़फ़्फ़रनगर के बुढ़ाना से आए उस लड़के को याद करें, जिसमें
हमेशा से उतनी ही प्रतिभा थी जितनी आज पहचानी जा रही है। लेकिन वे बदसूरत दिन थे,
जब उसे कितनी ही </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बड़ी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> फ़ॉर्मूला फ़िल्मों के ऑडिशन से लौटना पड़ता था
क्योंकि उसका कद छ: फुट नहीं था, उसका रंग गोरा नहीं था और उसे कभी यह बात समझ में
नहीं आई कि ऐक्टर बनने के लिए लोहा उठाने की क्या जरूरत है? नतीजा वही </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> कि एक अभिनेता, जो एक साथ तीन फ़िल्में लेकर
कान्स में जाता है और जिस पर हम सीना चौड़ा करते हैं, उसे आठ-दस साल पहले कितनी ही फिल्मों
में एक-एक मिनट के रोल करने पड़े थे, कितनी ही विज्ञापन फिल्मों में जूनियर
आर्टिस्ट बनना पड़ा था। जब हम मुग्ध होकर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सचिन आया रे भैया</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> वाले
विज्ञापन देखते थे, तब वह स्क्रीन पर कपड़े पीट रहे धोबियों में से एक था। </span><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हम एक्टर्स की भीड़ में छुप जाया
करते थे। ट्रॉली पर जब कैमरा आता था, तब </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सचिन आया रे भैया</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> गाते
हुए हम कपड़े पीटते रहते थे, लेकिन चेहरा फेर लेते थे। चेहरा भी नहीं दिखता था और
शाम को पैसे भी मिल जाते थे। पैसे चाहिए तो क्या करें? कुछ और कर नहीं सकते। बीच
बीच में गड़बड़ हो जाती थी कि जूनियर आर्टिस्ट का जो कोऑर्डिनेटर होता था ना, वो पकड़
लेता था हमें क्योंकि जूनियर आर्टिस्ट का कार्ड तो होता नहीं था हमारे पास। तो कई
जगह पर भगा भी दिया जाता था हमें।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
<br />
इस </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हम</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में और भी साथी थे, जिनमें से कुछ ने माया के इस शहर
के आगे घुटने टेक दिए और कुछ अब भी लड़ रहे हैं। जो अभी भी लड़ रहे हैं, उनके बारे
में बताते हुए नवाज़ हँसता है। यह रोने जैसा है।</span><br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ख़ैर, एक बड़ा किसान परिवार था। ऐसा इलाका
जहां जितना गन्ना होता है, उतनी ही हत्याएं, डकैती और ऑनर किलिंग भी होती हैं। ऐसे
में नवाज़ के पिता ने कहा कि तुम देहरादून शिफ़्ट हो जाओ। नवाज़ ने अपने भाई-बहनों को
देहरादून भेज दिया और ख़ुद गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार चला गया। फिर ग्रेजुएशन के बाद
दिल्ली। दो साल काम ढूंढ़ा लेकिन उसके लिए ग्रेजुएशन काम नहीं आई। उसके साथ रिश्वत
या सिफ़ारिश होती तो काम आ सकती थी। तभी पहली बार एक दोस्त के साथ मंडी हाऊस में
नाटक देखा। और नाटक ने उस लड़के को देखा। और चुना। <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वह जीवन का सबसे शुद्ध रूप था।
कोई करप्शन नहीं। मैं ऐसा ही कोई काम करना चाहता था। सब क्रियेटिव चीजों में ऐसा
ही है। वह हुनर आपके पास है तो कोई छीन नहीं सकता उसे। जब मैं किसी को स्टेज पर ऐक्टिंग
करते देखता था तो जो अच्छा लगता था, वो अच्छा लगता था। प्रतिभा को तुरंत वाहवाही
मिल जाती थी। कला में आप किसी को बेवकूफ नहीं बना सकते। जो सामने है, वही है।
इसीलिए कहते हैं कि ऐक्टिंग इज अ न्यूड आर्ट।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
दिल्ली में तब वह लक्ष्मीनगर में रहता था। उस एक-डेढ़ साल में उसने 150-200 नाटक
देखे। नौकरी में तो पहले वाला हाल ही था, लेकिन अब उसकी इतनी फ़िक्र नहीं थी। एक
काम मिल गया था, जिसके लिए बाद में और पागल होते जाना था। कमरा बन्द करके 18-18
घंटे सोचते रहना था, बड़बड़ाते रहना था और अपने किरदारों के समन्दर में उतरते रहना
था। बाद में यह किसी नए लड़के को बताना था तो आँखों में चमक आ जानी थी और जुनून की
कुछ बूंदें। <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ये काम साला, इतना गहरा है कि
जितना डूबते जाओ, उतना मज़ा आता है। ज़िन्दगी में यार, एक काम ठीक से कर लो, वो ही
बहुत है। और वो भी पूरा नहीं हो पाता। हर चीज में इतनी चीजें होती हैं। उसका कुछ
हिस्सा हाथ में आ जाए एक जीवन में, तो उतना ही काफ़ी है।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
तब वह दोस्तों के साथ नुक्कड़ नाटक करने लगा था और उससे थोड़े-बहुत पैसे भी मिल जाते
थे। एनएसडी में जाना चाहता था लेकिन कोई पूरा नाटक नहीं किया था, इसलिए क्वालीफ़ाइड
नहीं था। दिलचस्प बात देखिए कि हमारे यहां के ऐक्टिंग स्कूल ऐसे आदमी को तो मौका
तक देने को तैयार नहीं, जिसने पहले से नाटक न किए हों। इसीलिए वह बड़ौदा चला गया,
एमएस यूनिवर्सिटी में ड्रामा पढ़ने। और वहां रात की नौकरी भी की। लेकिन फिर एक साल
में ही वापस आ गया। तेल को दूसरे लोग भी जाँच सकते थे, उसे ख़ुद को जाँचना था। लौटकर
एनएसडी की परीक्षा दी और दाखिला हो गया। यह 1993 था।<br />
<br />
दो साल बीते। शांत और अंतर्मुखी व्यक्तित्व था। नाटक खूब किए लेकिन लगभग सभी कॉमिक किरदार।
उसके स्टेज पर आते ही लोग हँसने लगते थे। यही उसने बाद में </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बॉलीवुड</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में देखा। बाहर से आया है, गैरपारंपरिक चेहरा है तो ऐसा करो, इसे
कॉमेडियन बना दो, या कोई नेगेटिव रोल दे दो, या कोई चरित्र भूमिका। हीरो तो देखो
भाई, वही बनेगा जिसका बाप हीरो था। या जिसका कद इतना, चेहरा ऐसा हो। <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्यों बनेगा? उसमें क्या
काबिलियत है ऐक्टिंग की? नहीं है तो क्यों बर्बाद कर रहे हो सिनेमा को? और मीडिया
भी उन्हीं को प्रमोट कर रहा है। मैं तो उस वक्त था नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि जब
मुग़लों का राज था, उस वक्त मीडिया भी होता तो सिर्फ मुग़लों के बारे में ही लिखता।
क्योंकि वहीं से उन्हें पैसा मिलता। यही इस इंडस्ट्री में है। जैसे एक राजा का
सिस्टम होता है, इन लोगों का पूरा एक सिस्टम है। और उस सिस्टम के तहत सबको काम
करना पड़ता है। बाहर के लोगों को भी। कुछ विद्रोही टाइप के लोग आ जाते हैं। वे
विद्रोह करते हैं। उनमें से बहुत से लोगों को ख़त्म भी कर दिया जाता है। लेकिन
उनमें कुछ लोग इतने बेशर्म होते हैं कि हटते नहीं हैं। <br />
अवॉर्ड भी ऐसे ही हैं। टीवी का एक एपिसोड होता है वह पूरा। भरपूर पैसा मिलता है,
पूरा हिन्दुस्तान देखता है, वाहवाह होती है। उसमें इतने प्रोडक्ट लॉन्च होते हैं,
एक पार्टी सी होती है और उस स्टार को ईनाम दे दिया जाता है जो डांस करेगा वहां। ये
है अवॉर्ड की कीमत। पूरा लॉबी सिस्टम है कि इस बार उसके भांजे को दे दो, उसके पापा
को दे दो।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVMgOUhHwgYW227zek9HKTeeacWSUV-Gk2dV6YDedkvSpGVg6vfgDy8RGvTvYwOvSc5cgWQO_pBZDJJu-NHfg9jzLULT_KFcWqPH4OulGXq9pH2vVN30EFZNE-5Fu_EYKGBWoaNCeAFt8/s1600/nawazuddinfinal.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="214" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVMgOUhHwgYW227zek9HKTeeacWSUV-Gk2dV6YDedkvSpGVg6vfgDy8RGvTvYwOvSc5cgWQO_pBZDJJu-NHfg9jzLULT_KFcWqPH4OulGXq9pH2vVN30EFZNE-5Fu_EYKGBWoaNCeAFt8/s320/nawazuddinfinal.jpg" width="320" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
यह गुस्सा तब भी उसके भीतर था, भले ही कह न पाता हो। बाद में मुम्बई में नवाज़ का
एक निर्देशक दोस्त था, जिसकी फ़िल्म में उसे छोटा सा रोल मिला था। नवाज़ ने उससे कहा,
</span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मुझे तू लीड रोल दे दे अपनी फ़िल्म
में।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> वह बोला कि यार, आप हीरो
मैटीरियल नहीं हो। एक बॉडी बिल्डर किस्म का हीरो </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैटीरियल</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> उसका हीरो था। नवाज़ ने निर्देशक को समझाना चाहा, </span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसको भी तो कोई देखने नहीं आएगा। वो बहुत बॉडी बिल्डर
है, ये मैं मानता हूं कि ठीक है। लेकिन उसको क्यों देखने जाएंगे लोग? इसलिए कि वो
बहुत ख़ूबसूरत है? चलो, मान लो कि उसे 100 लोग देखने आए और मुझे 10 लोग देखने आए,
तो वे 10 लोग जाकर 100 लोगों से बात करेंगे। अगले दिन 110 लोग आएंगे माउथ
पब्लिसिटी से कि अच्छा ऐक्टर है, देख के आएंगे। तो मेरी यूएसपी ये है। और जिस तरह
के मैटीरियल की तू बात कर रहा है, ऐसे लोगों की फ़िल्में हर हफ़्ते आती थी पहले।
दूसरी लाइन के स्टार थे जो। कहाँ चलती थी उनकी फ़िल्में? आती थीं, ब्लैक मनी से
पैसा लाते थे पता नहीं कहाँ से। बनाते रहते थे।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />फ़िल्म आई और नवाज़ के कुछ मिनट
हीरो के कसरती जिस्म पर भारी पड़े। लेकिन उस निर्देशक दोस्त और उस जैसे बहुत से लोगों को नहीं समझना था, वे नहीं समझे।<br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ये चेहरे नहीं चलते, ऐसा कहते
हैं लोग। 2003-04 में इरफ़ान के साथ आसिफ़ कपाड़िया की जो शॉर्ट फिल्म </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बायपास</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> मैंने की थी, ब्रिटिश फ़िल्म काउंसिल की फ़िल्म थी वो।
फ़िल्म वहां के स्कूल कॉलेज में दिखाई गई तो लंदन के, यूरोप के लड़के-लड़कियां मुझे
बहुत खूबसूरत बोल रहे थे। तो ये तो नज़रिया है। अब यहाँ मेरे जैसे बहुत लोग हैं, तो
सबको यही लगता है कि ये तो गरीब है, ये बदसूरत है। यह परिभाषा बना ली है। वरना जिस
तरह के यहां स्टार हैं और जिन्हें ख़ूबसूरत बोला जाता है, उस तरह के लोग पश्चिम में
सड़कों पर झाड़ू भी लगाते हैं।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
ख़ैर, आख़िरी साल था एनएसडी का। एक निर्देशक आया मॉस्को से। नाम था वेलेंटाइन तबलेगो।
उसने पहली बार नवाज़ को उसके व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग किरदार दिया। बहिर्मुखी
किरदार। उसमें नवाज़ की पर्सनैलिटी खुल गई। </span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कहीं एक सुर अटकता है ना ऐक्टर का..अटक रहा हूं, अटक
रहा हूं...तो अचानक एक ऐसी प्रक्रिया से गुजरा..उस बन्दे ने स्टेनिस्ल्वस्की की जो
थ्योरी है...मैथड ऐक्टिंग..उसके तहत करवाया।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> <br />
</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
उसके बाद नवाज़ की नज़र बड़ी हो गई, आत्मविश्वास बढ़ा। एनएसडी की पढ़ाई पूरी करने के
बाद भी 3-4 साल दिल्ली में रहा। स्कूल, कॉलेज में वर्कशॉप करते हुए, नुक्कड़ नाटक
करते हुए। लेकिन दिल्ली का रंगमंच अपने अभिनेताओं को भूखा मारने के लिए भी ख़ुशी-ख़ुशी
तैयार हो जाता है। नवाज़ ने सोचा कि बम्बई निकला जाए। उससे पहले दिल्ली के थियेटर
में उनसे तीन-चार साल सीनियर कई ऐक्टर बम्बई चले गए थे, </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बैंडिट क्वीन</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में। मनोज वाजपेयी, सीमा बिस्वास और सौरभ शुक्ला। उन लोगों से पहले तो
ऐसा करने वालों को देखने के लिए अतीत में बहुत दूर तक देखना पड़ता था। लेकिन उन
लोगों के काम ने नवाज़ और उनके साथियों को हौसला दिया। टीवी में </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">स्वाभिमान</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में उन सीनियर्स को देखते थे, जिनके साथ कभी नाटक किए
थे। और देखते-देखते ही मुम्बई आ गए। लेकिन मुम्बई इतना आसान नहीं था, जितना लगने
लगा था। <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उस वक़्त फ़ॉर्मूला फ़िल्म बहुत स्ट्रॉन्ग
थी। उसके अलावा दूसरा सिनेमा ही नहीं बनता था। आउट ऑफ द ब्लू, बैंडिट क्वीन बन गई
थी एक। उसके बाद कोई इस तरह की फ़िल्म नहीं आई। तो सारे लोग टीवी वगैरा करने लगे थे।
लेकिन हम लोग जब आए, तब टीवी भी बदल गया था। एकता कपूर आ गई थी। उन सीरियल्स में
अगर भिखारी का भी रोल करना है तो छ: फुट का लम्बा, गोरा-चिट्टा लड़का चाहिए होगा।
तो टीवी में भी हमें खड़ा नहीं होने देते थे। इधर फ़िल्म भी नहीं मिल रही थी।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
</span><br />
’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सरफ़रोश</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का एक सीन दिल्ली में रहते हुए ही किया था। उसके
आख़िरी हिस्से में बमुश्किल पचास सेकंड का एक सीन था, जिसमें आमिर ने नवाज़ को गोली
मार देने का कहा था। बहुत बाद में </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पीपली
लाइव</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के ऑडिशन देखकर आमिर ने ही
नवाज़ को चुना। लेकिन उससे पहले नवाज़ को बहुत कुछ देखना था। ऐड में जूनियर
आर्टिस्ट्स की तरह आना था और चेहरा छिपाने के लिए कलाकारों की भीड में बार-बार गुम
होना था। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मुन्नाभाई एमबीबीएस</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक चालीस की लास्ट लोकल</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
में एक-एक सीन के रोल करने थे।<br />
<br />
लेकिन 2003 में </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ब्लैक फ़्राइडे</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> भी हो गई थी। अनुराग कश्यप ने पहले कभी
चलते-चलते ही बोला था कि अभी तो मैं कुछ नहीं हूं लेकिन जब किसी पोजीशन पर आ जाऊंगा
तो तुझे ज़रूर कुछ अच्छा काम दूंगा। <br />
<br />
</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ब्लैक फ़्राइडे</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में नवाज़ के तीन-चार सीन थे। उस फ़िल्म के बाद
फ़िल्मी दुनिया के काफ़ी लोगों को पता चल गया था कि एक अलग ऐक्टर आ गया है। उसके पास
भी दिखाने को एक अच्छा काम हो गया था। </span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसके बाद किसी डायरेक्टर को मैं अपना काम दिखाता था तो वो सीरियसली लेता
था। लेकिन देता एक ही सीन था।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> <br />
<br />
उसके बाद नंदिता दास की </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फ़िराक़</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> मिली, जिसकी एक कहानी में नवाज़ को मुख्य
भूमिका मिली। 2008 आ गया था। सिनेमा बदल रहा था। ऐसे निर्देशक आ रहे थे जो सितारों
के ख़ुमार में नहीं थे। <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अनुराग कश्यप का इसमें बड़ा रोल
था। वो आने वाले काफ़ी फ़िल्ममेकर्स का हौसला बढ़ाता था कि हम बनाएंगे, करो यार। मदद
करता था। और भी बहुत निर्देशक थे, जो बहुत कॉंन्फिडेंट हो गए थे। इस बीच ये हो गया
था कि किसी को ऐक्टर की जरूरत पड़ती थी तो कहते थे कि नवाज़ को बुला लो यार। उस
चक्कर में मुझे फ़िल्में मिलने लगीं। ब्लैक फ्राइडे के कास्टिंग डायरेक्टर ने
शिकागो में रहने वाले एक डायरेक्टर प्रशांत भार्गव को मुझे रेकमंड किया। उसने पतंग
बनाई और उसमें मुझे मेन लीड लिया।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><o:p></o:p></span>
</div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhNyrGkJtRP59HxferRAY5eyi4osQC6PN9_GiWy5uXpHYHIRCgq-esQcVZFT1_28HADSyBMo5yghr7fVYfVQdHIIZVZFDe2Rd36gkyEGsDXZ7JNJMInv-aZkW9KF7cYt_RPd3PEJAdeGZU/s1600/DSC_9044.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhNyrGkJtRP59HxferRAY5eyi4osQC6PN9_GiWy5uXpHYHIRCgq-esQcVZFT1_28HADSyBMo5yghr7fVYfVQdHIIZVZFDe2Rd36gkyEGsDXZ7JNJMInv-aZkW9KF7cYt_RPd3PEJAdeGZU/s400/DSC_9044.JPG" width="400" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यहां हमारी कहानी का नवाज़ या हमारे नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी हीरो बन गए। इसके बाद यह कहानी
बेहतर होती जाती है। संघर्ष कम होता जाता है और काम ज़्यादा। 2008 में शादी भी हो
जाती है। अंजलि उन्हें 2003 से जानती हैं। उन्होंने उन्हें लड़ते और हारते भी देखा
है और फिर जीतते भी। उन दोनों को साथ देखकर आप एक शुद्ध सकारात्मकता से भर जाते
हैं। अंजलि भी अभिनेत्री बनने आई थीं लेकिन वे कहती हैं कि अब उन्हें कैमरे के
पीछे रहना ही पसंद है। जब हमारे फ़ोटोग्राफ़र नवाज़ की तस्वीरें ले रहे हैं, तब भी
अंजलि कैमरे के पीछे हैं। जब वे कहती हैं कि तस्वीर अच्छी आई है तो नवाज़ उनकी तरफ
देखकर मुस्कुराते हैं। दोनों के बीच ऐसी मासूम, प्यारी और साझी मुस्कुराहट जिसे तमाम
स्टाइलिश उपमाओं के बावज़ूद मैं शब्दों में लिखने में असमर्थ हूं।<br />
<br />
इसी बीच मेरे लिए यह जानना ज़रूरी है कि ऐसे सरल नवाज़ अपने जटिल धूसर किरदारों की
तैयारी कैसे करते हैं? कैसे एक आदमी इतने विश्वसनीय ढंग से कोई और आदमी बन जाता
है, बना रहता है? <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं जाने-अनजाने मैथड ऐक्टिंग
को फ़ॉलो करता हूं। मैथड ऐक्टिंग का यहां तो बहुत मजाक उड़ाते हैं लोग। इसलिए उड़ाते
हैं कि ये तो कर नहीं सकते। उसमें बहुत मेहनत लगती है। एक साल में पांच फिल्में
नहीं कर सकते तब आप। उसके लिए बाकायदा आपको ऑब्ज़र्व करना पड़ेगा, पढ़ना पड़ेगा उस
किरदार के बारे में, बिल्कुल अलग हट के दिखाना पड़ेगा उस किरदार को। एक रीजनिंग
होती है, तर्क होता है। मैं क्यों कर रहा हूं, उसकी वजह क्या है। जब ये सवाल अपने
आप से पूछते हैं आप, तब आपको ही जवाब देना पड़ता है। तब वह किरदार विश्वसनीय बनता
है। तब यह सुपरस्टार्स की फ़र्ज़ी ऐक्टिंग की तरह नहीं होता। वैसे उनकी फ़ॉर्मूला
फ़िल्मों में इसकी ज़रूरत भी नहीं है। लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि कैसे 35-40 फ़िल्में
एक ही सुर, एक ही बॉडी लैंग्वेज पे करके चले जाते हैं ये लोग। दरअसल ये अपने को ही
जी रहे होते हैं। वही लोगों को अच्छा लगता है और वही ये करते हैं।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
प्रशिक्षण अभिनय में कैसे काम आता है?<br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जैसे अभी वासेपुर में मैंने
फ़ैज़ल ख़ान का रोल किया है। जिस आदमी पर वह किरदार आधारित है, उसे ऑब्ज़र्व करने गया
था मैं। मिला नहीं था। दूर से देखा था। लेकिन उसके आसपास के लोग, जो उसके हैंगओवर
में ही रहते थे, उसके जैसा ही चालचलन था उनका, उनसे मिला। क्या होता है न कि कोई
बॉस होता है न किसी शहर में, तो बहुत से लोग उसकी तरह बिहेव करने लगते हैं। जैसे
स्टार को फ़ॉलो करते हैं। जैसे अमिताभ बच्चन से न मिलो लेकिन अमिताभ की मिमिक्री
करने वाले किसी आदमी से मिल लो, तो आपको थोड़ा बहुत अंदाज तो हो ही जाएगा कि अमिताभ
ऐसे चलता है, बात करता है। तो इस तरह उसे ऑब्ज़र्व करने के बाद कैसे ऐक्टिंग में
दिखाना है, उसमें ट्रेनिंग काम आती है। दूसरा, आपको अन्दर से कोई चीज निकालनी है।
क्योंकि आपकी पर्सनैलिटी में ही सब कुछ छुपा है। पूरा ब्रह्मांड होता है आपके
अन्दर। जैसे आप अपने पिता या मां के सामने हैं, अपनी प्रेमिका के सामने वैसे नहीं
हैं। अपने भाई के सामने जैसे हैं, अपने दोस्तों के सामने वैसे नहीं हैं। तो आप ही
में देखो, कितने पहलू हैं। कितने व्यक्तित्व जीते हैं आप एक ही जीवन में। उस के
अलावा भी कितने सारे व्यक्तित्व छिपे रहते हैं आपके अन्दर। ट्रेनिंग उस चीज को
डिस्कवर करती है और बाहर लाने में मदद करती है।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
किसी किरदार में गहरे उतरते हुए क्या ऐसा नहीं होता जाता कि बहुत सारे किरदार
स्थायी तौर पर आपका हिस्सा बनते जाते हैं? हर कैरेक्टर का कुछ अंश छूटता जाता होगा
आपके अन्दर? <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हां, कुछ बचा रहता है लेकिन उसे
हटाने की ही पूरी जद्दोजहद रहती है। वासेपुर का किरदार ऐसा था कि मैं काफ़ी टाइम तक
उसी में रह गया। वह बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि मेरा व्यक्तित्व बिल्कुल भी उस
किरदार जैसा नहीं है। तो कोशिश थी कि एक भी बिट में ऐसा ना लगे कि ये ओढ़ा हुआ या
बनाया हुआ किरदार है, वह फ़ैज़ल ख़ान दबंग ही लगे, इसके लिए उसकी काफ़ी मानसिक तैयारी
की थी मैंने। इसलिए उसे छोड़ते हुए भी काफ़ी प्रॉब्लम हुई थी। साढ़े तीन महीने तक शूट
हुआ था। उसके बाद बीस दिन- एक महीना लगा था छोड़ने में। क्योंकि बहुत स्लो है वो।
मेरा एनर्जी लेवल बहुत है जबकि, क्योंकि दुबला पतला हूं। उसमें ऐसा हो गया था कि
यहां आने के बाद भी कोई आवाज़ देता था, तो धीरे से गरदन घुमाता था। ऐसा ही कुछ </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मिस लवली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के किरदार के साथ हुआ था। तो उनको हटाने के लिए मैं
अपने गांव में गया ताकि नॉर्मल हो जाऊं। लोकल ट्रेन में भी घूमा, ताकि धक्के
मुक्के लगें, गालियां मिलें, ताकि मुझे पता चले कि हां, मैं नवाज़ हूं, वासेपुर का
दबंग फ़ैज़ल खान नहीं हूं।</span>”<br />
<span style="font-family: Mangal;"><br /></span>
<span style="font-family: Mangal;">स्पर्श, बैंडिट क्वीन और सत्या नवाज़ को बहुत पसंद हैं। दुनिया भर का सिनेमा देखना
बहुत पसंद है। किंग्स स्पीच, ब्लैक स्वान, लाइव्स ऑफ अदर्स, द सी इनसाइड, द सीक्रेट
इन दियर आईज़, डिपार्चर, बैटल ऑफ अल्जीर्स, इनग्लोरियस बास्टर्ड्स, रेसलर्स।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वे कहते हैं कि विश्व
सिनेमा ही उन्हें भ्रष्ट होने से बचाए हुए है। अभिनेताओं में इरफ़ान और मनोज
वाजपेयी पसंद हैं। दिलीप कुमार, मोतीलाल और बलराज साहनी भी। मोतीलाल की बातें करते
हुए उनकी आँखों में चमक आ जाती है। <br />
<br />
</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यहां का ब्रांडो था वो आदमी। एक
फ़िल्म में आप उन्हें देख लो और दूसरी में कोई मेकअप नहीं, लेकिन पहचान नहीं सकते
आप।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> <br />
<br />
नवाज़ुद्दीन ने तय कर रखा है कि वे औरों की तरह, स्थापित होने के बाद कमर्शियल और
रीयल सिनेमा के बीच कोई संतुलन बिठाने की कोशिश नहीं करेंगे। वही फ़िल्में करेंगे,
जिनमें ख़ुद को खोज सकें, अपने भीतर उतर सकें। यही उनका लक्ष्य है। पिछले चार साल
से वे लगातार शूटिंग ही कर रहे हैं। उनकी नौ फ़िल्में रिलीज की कतार में हैं। लेकिन
उन्हें जल्दी से अपनी एनएसडी की एक दोस्त की ऐक्टिंग वर्कशॉप जॉइन करनी है, स्टूडेंट
बनकर। जाँचना है कि क्या वे वही बन रहे हैं, जो बनना चाहते थे। उन्हें लग रहा है
कि कहीं न कहीं उनके भीतर की प्रक्रिया में जंग लग रहा है और तमाम तारीफ़ों के
बावज़ूद अन्दर कहीं एक सेचुरेशन आ गया है जिसे सिर्फ़ वही देख पाते हैं। उन्हें उस
सेचुरेशन से लड़ना है और हमेशा स्टूडेंट बने रहना है। ऐसा नहीं होना कि हो गया मेरा
खेल और अब मैं जो करूंगा, वैसा ही लोगों को पसंद आएगा।<br />
</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
जैसे ही वक़्त मिलता है, नवाज़ बुढ़ाना चला जाता है। वहाँ, जहाँ अब भी ज़मीन के झगड़ों
और प्रेम-विवाहों पर हत्याएँ मामूली बात की तरह होती हैं। वहाँ, जहाँ उसके बचपन की
तरह ही </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बिंदिया मांगे बंदूक</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साधु और शैतान</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसी
फ़िल्में ही लगती हैं। लेकिन फिर भी वही उसका प्यारा घर है, जहाँ शहर का बेतहाशा
शोर नहीं है, पैसे और फ़िल्मों की चिल्लाहट नहीं है। वहाँ ईख के खेतों में घूमते
हुए वह ख़ुद से बार-बार कहता है, </span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हाँ,
मैं वही नवाज़ हूं। और वही नवाज़ रहूंगा।</span>”<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> <br />
<br />
हर बुढ़ाना में ऐसे नवाज़ हैं और हर मुम्बई में हमें उन्हें उनकी उदासियों से बचाना
है। उनके हाथों को साठ हज़ार वोल्ट से, कलाकारों को </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जूनियर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
कलाकार होने से और विद्रोहियों को टूटने से बचाना है। यह हमें अपने लिए ही करना है
कि अब किसी नवाज़ की कहानी को कान्स के लाल कालीन पर चलते हुए हँसने में इतना लम्बा
वक़्त ना लगे।<br /><br /><i>(यह लेख अपने संपादित रूप में तहलका हिन्दी के 15 जून, 2012 के अंक में छपा है।)</i>
</span></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-15423951279585473662012-05-14T05:12:00.000-07:002012-05-14T05:18:19.734-07:00"जब तुम मीठी नींद सोती हो, मुझे चेहरे पर बर्फ़ घिसनी होती है, ताकि मेकअप खराब न हो" : बबीता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZ7n6sSA33AqzwS5JIuwzOSBe70C-ji77IVqW6Y-HTYqqg9Bw7Lk4YHWrlBTK0mBM39KBUFfxjk7xeh5Zkl6npV7ahY-AhHWLIpvcC_YiyRWgGka3syGQKmFgpgWrjq_SSOvO-0crxfmY/s1600/Babita_16960.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZ7n6sSA33AqzwS5JIuwzOSBe70C-ji77IVqW6Y-HTYqqg9Bw7Lk4YHWrlBTK0mBM39KBUFfxjk7xeh5Zkl6npV7ahY-AhHWLIpvcC_YiyRWgGka3syGQKmFgpgWrjq_SSOvO-0crxfmY/s1600/Babita_16960.jpg" /></a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /><br /><br />फ़िल्में देखने वाली एक आम लड़की के फ़िल्म अभिनेत्री <b>बबीता</b> को लिखे गए एक शिकायती पत्र के जवाब में लिखा गया यह लेख '<b>माधुरी</b>' के </span><span style="font-family: Mangal;">1 मई, 1970 के </span><span style="font-family: Mangal;">अंक में छपा था। आज भले ही स्टार अपने ग्लैमर का घेरा तोड़कर इस तरह अपने जीवन को मामूली न बताएँ, लेकिन फ़िल्मी सितारों के लिए पागल इस देश में यह लेख आज भी उतना ही प्रासंगिक है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /></span></div>
<a name='more'></a><br />
<br />
<b>चिट्ठी</b> किसी लड़की की थी। फ़ोटो साथ नहीं भेजा था, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वरना अंदाज लगाती कि
सुंदर कहने लायक है या नहीं। भाषा से लगता था, विद्रोहिणी है। लिखावट उसके संयत और
सुसंस्कृत होने का भास देती थी। फ़िल्में देखने की वह बहुत शौकीन थी और फ़िल्म
कलाकारों के बारे में जानकारी हासिल करना अपनी </span>'<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हॉबी</span>' <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बनाई थी।</span><o:p></o:p><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चिट्ठी पढ़कर मुझे उस पर प्यार आ गया। उसकी सारी ईर्ष्या</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सारी जलन मुझ पर थी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं जो अपनी प्रसिद्धि
की कैदी आप हूं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिसे
फिल्मों में काम करने के अपराध में नजरबंद किया गया है।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><b>चंद्रमा का सा एक पहलू</b></span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आसमान पर चमकता हुआ चंदा हमें सिर्फ़ एक पहलू से दिखाई देता है। मेरे जैसे
दूसरे जो भी कलाकार हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसी चंद्रमा की तरह सिर्फ़ एक पहलू से पहचाने जाते हैं-
चमकने वाले</span>; <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पैसा</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">प्रसिद्धि</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शान और ऐश आराम में डूबे
हुए। दूसरी तरफ क्या हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चाँद के बारे में चाहे लोगों को न मालूम हो</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कलाकारों के बारे में कई
लोग जानते हैं। वही सब मैं अपनी इस बहन को बताना चाहती हूं जो मुझ पर खफ़ा है।<br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इन्होंने लिखा है</span>,<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>“<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ईश्वर का इंसाफ अंधा है। उसने
आपको खूबसूरती बख़्शी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ठीक
किया। बंबई जैसी महानगरी में पढ़ने-पनपने का मौका दिया</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वह भी ठीक। लेकिन क्या
आपके घर में पैसे की कमी थी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जो उसने आपको लाखों रुपया कमाने वाली हीरोइन बना दिया</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्या पहनने को कपड़ा
पूरा नहीं पड़ता था</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जो
खूबसूरत से खूबसूरत लिबास आपके होने लगे</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">खाने-पीने की बात छोड़ दीजिए- रोज़-रोज़ नई जगहें घूमने का हक
उसने आपके ही भाग्य में क्यों लिखा</span>?<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">...</span>”<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><b>जाकर भी न जाने की मज़बूरी</b></span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चिट्ठी बहुत लंबी है। भगवान की और बहुत-सी शिकायतें उन्होंने उससे की हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिसने उसकी मर्ज़ी के आगे
सिर झुका रखा है। मैं अभिनेत्री बनी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह मैं भगवान की ही मर्जी मानती हूं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वरना मेरी मर्ज़ी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरा इरादा यह नहीं था।
मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि जो हुआ</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गलत है। पर जो हुआ उतना ही नहीं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जितना उन्होंने समझा है।
मैं सुंदर हूं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह
उन्होंने समझा है। इसके लिए मैं धन्यवाद ही दे सकती हूं। वरना सौंदर्य तो मैंने वह
देखा है कि बस देखते ही रहो</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पलक झपकना भी समय की बरबादी मालूम पड़े। वह सौंदर्य यहाँ
बंबई में मैंने नहीं देखा</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जहाँ रहने के लिए वे मुझे सौभाग्यशाली मानती हैं। यहां तो
बंबई की सजी-संवरी पाउडरी खूबसूरती भर नजर आती है। वह सौंदर्य उसकी तरह की दूरदराज
जगहों में मिलता है, जहां से उनकी शिकायत आई है।<br /><span lang="HI"><br />कोई बताए मुझे कि किस्मत वाली वे हैं या मैं</span>? <span lang="HI">मैं तो चाह कर भी वहां नहीं जा सकती</span>, <span lang="HI">जहां</span>, <span lang="HI">जिस बस्ती में ऐसा
सौंदर्य बसता है। वहीं की क्यों कहूं</span>? <span lang="HI">मैं जब तक कश्मीर नहीं गई थी</span>, <span lang="HI">गुलमर्ग</span>, <span lang="HI">खिलनमर्ग</span>, <span lang="HI">चश्मेशाही</span>, <span lang="HI">जाने कितने नाम थे</span>, <span lang="HI">जो मैंने रट लिए थे। पर हुआ क्या है</span>? <span lang="HI">हुआ यह है कि कश्मीर मैं
कई बार हो आई हूं और ये नाम मेरे लिए आज भी उतने ही अजनबी हैं</span>, <span lang="HI">जितने तब थे। किसी
बढ़िया होटल में मुझे ठहरा दिया जाता है</span>, <span lang="HI">जिसके अहाते तक में घूमना मुझे मना होता है। होटल से मैं तब
निकल पाती हूं जब शूटिंग की हर तैयारी हो चुकी होती है। होटल के दरवाजे तक आई हुई
कार मुझे ले जाती है और फिर रिफ्लैक्टरों</span>, <span lang="HI">माइक</span>, <span lang="HI">कैमरा और कंटीन्यूटी का यही सिलसिला दिन भर चलता रहता है</span>, <span lang="HI">जिससे बंबई में भी निज़ात
नहीं। जब तक सूरज की उमंग में पीलापन नहीं आता</span>, <span lang="HI">निर्देशक की </span>'<span lang="HI">स्टार्ट</span>' <span lang="HI">और </span>'<span lang="HI">कट</span>' <span lang="HI">गूंजती रहती है। फिर गाड़ी में छिपकर होटल पहुंच जाओ और
खाना खाकर जल्दी ही सो जाओ</span>, <span lang="HI">ताकि अगली सुबह जब मेरी क्रोधित सहेली जैसी लड़कियां
सुबह-सुबह के कश्मीरी जाड़े को धता बताकर मीठी नींद में सपने बुन रही हों</span>, <span lang="HI">मैं शीशे से सामने बैठ
कर चेहरे पर बर्फ़ घिस सकूं</span>, <span lang="HI">जिससे मेकअप सारे दिन खराब न हो!</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रुई के फाहों-सी नर्म बर्फ जब बेआवाज गिर कर पेड़</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पत्ती</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सड़क और मकान सब का एक
जैसा श्रृंगार करती जाती है तो मेरा मन दौड़-दौड़ कर हर गिरते हुए फाहे को पकड़
लेने का करता है। दूर तक बिछी उस सफेद चादर पर चलते हुए हर कदम अपना निशान गहरा
छोड़ता जाता है। एक दिन आख़िर मैंने तय कर लिया कि बर्फ़ पर कदमों के निशान छोड़ते हुए दूर तक
निकल जाऊँ। लेकिन हुआ यह कि मुझे बाहर जाने की तैयारी करता देख निर्माता</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">निर्देशक घबराकर मुझे
रोकने लगे। क्योंकि अगले दिन शूटिंग थी और मुझे कुछ हो जाता तो</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">प्रसिद्धि के समंदर ने
मेरे सपनों को निगल लिया।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><b>एक बुलावा उस पार से</b></span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गनीमत की बात है कि मैं सिर्फ़ सपने निगल जाने तक सीमित रही</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वरना एक बार यहीं काल ने
अपना विकराल गाल मुझे लील जाने को खोल लिया। बर्फ़ पर ही दृश्य लिया जा रहा था। मुझे
फिसलकर गिर जाना था। जब तक रिहर्सल चल रही थी, मैं गिरने की सफल नकल कर रही थी। पर
जब दृश्य फिल्माया जाने लगा</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं सचमुच फिसल-फिसल कर भुरभुरी बर्फ़ पर कलाबाजियां खाती
हुई लुढ़कती चली गई और यूनिट के लोग खड़े वाह-वाह कर रहे थे कि क्या शॉट दिया है।
पहाड़ी ज्यादा खड़ी थी।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लुढ़के तो फिर भगवान मालिक। पता नहीं कहां रुकें और रुकें
तो पता चले कि तब आप अनंत यात्रा शुरू कर चुके हों। मेरी ये यात्रा रोकने के लिए एक
देहाती की शक्ल में भगवान ने अपना प्रतिनिधि भेजा। वह पगडंडी पर चढ़ा आ रहा था।
उससे टकराकर रुक न जाती तो कई शिकायतें छोड़कर चली जाती। किसी की सफाई देने का
मौका भी न मिलता।<br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह तो शहर से दूर की बात है। दिल्ली शायद हर डेढ़ दो महीने में चक्कर लग जाता
है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पर कुतुब मीनार मैंने
उतनी ही देखी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जितनी
हवाई जहाज से दिखाई देती है। लाल किले के बारे में जानकारी अब भी किताबी है।
चांदनी चौक ओर चांदनी का फर्क देखने का मौका कभी नहीं मिला। दिल्ली तो खैर दूर की
बात है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बंबई के मेरे वे प्रिय
रेस्तरां जो स्कूल-कॉलेज के जमाने में सहेलियों के साथ गप्पबाज़ी के अड्डे थे</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पराए हो गए। जिन दुकानों
के बाहर बार-बार सिर्फ इसलिए चक्कर काटा करती थी कि उनका सामान मुझे बहुत पसंद था</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आज पैसा होने पर भी मेरे
लिए पहुँच से बहुत दूर हो गई हैं।<br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">मेरी अनजान सहेली</span><span style="font-size: 12pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">अब भी तुम्हें मुझे से
ईर्ष्या है</span><span style="font-size: 12pt;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">माना
कि मेरे पास पहले की अपेक्षा पैसा ज्यादा है</span><span style="font-size: 12pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">पर मैं उसका क्या करूं</span><span style="font-size: 12pt;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">मैं
उससे कोई शौक पूरा नहीं कर सकती। मैं कई जगह जाती हूं</span><span style="font-size: 12pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">घूम-फिर
नहीं सकती। मेरी हस्ती वैसी ही है</span><span style="font-size: 12pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">जैसी किसी आर्क लैंप</span><span style="font-size: 12pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">कैमरा सोलर
या दूसरी किसी भी प्रॉपर्टी की। उसकी भी तो खूब देख-रेख</span><span style="font-size: 12pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">साज-संभाल
होती है! कीमती पोशाकों का क्या लालच</span><span style="font-size: 12pt;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">वे स्टूडियो पहुँच कर
पहनी जाती हैं</span><span style="font-size: 12pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">वहीं
उतार कर रख दी जाती हैं। उन्हें बबीता कहाँ पहनती हैं</span><span style="font-size: 12pt;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">कहानी का चरित्र पहनता है।<br />
</span></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-35703371171940231042012-05-07T11:40:00.000-07:002012-05-07T23:31:00.257-07:00"मैंने ख़ुद को जोकर बना लिया था" : किशोर कुमार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg58OrXhj8fv-SFN18IYFt015NOoAxmscVfn6fhgImgm5RppHBffrSI96amVLPkzHAffvh6XogKaw3doSKjSFbd1OPyIfyIRe4MtgHcO7u7vUWh6ZoHvjbPo9M-oEK3vb1sL1rDf5EAGLk/s1600/kishore1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg58OrXhj8fv-SFN18IYFt015NOoAxmscVfn6fhgImgm5RppHBffrSI96amVLPkzHAffvh6XogKaw3doSKjSFbd1OPyIfyIRe4MtgHcO7u7vUWh6ZoHvjbPo9M-oEK3vb1sL1rDf5EAGLk/s320/kishore1.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><i><b><br /></b></i></span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><i><b>किशोर कुमार</b> ने यह लेख साठ के दशक में <b>फ़िल्मफ़ेयर</b> पत्रिका के लिए लिखा था। वे कश्मीर से लौटे थे और अचानक उन्हें लगा था कि निर्माताओं की और उनकी ख़ुद की पैसे की भूख ने उन्हें एक गंभीर गायक से एक जोकर एक्टर और ऐसा गायक बनाकर रख दिया है जो बस निरर्थक यॉडलिंग में उलझा रहता है। यह दुर्लभ आत्मस्वीकृति है। हमने <b>तहलका</b> के <b>सिनेमा विशेषांक</b> में इसे फिर से प्रकाशित किया है।<br /></i> </span><br />
<a name='more'></a><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /><b>कुछ महीने पहले</b> काम से थोड़ी फ़ुर्सत पाकर मैं कश्मीर गया।
बहुत पहले मैंने अपनी पत्नी से और ख़ुद से भी वादा किया था कि मैं कश्मीर जाऊंगा। मुझे
ख़ुशी है कि आखिरकार मैंने वह वादा निभाया। खुशी इसलिए भी है कि बर्फ से ढकी चोटियों</span>,
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गहरी घाटियों और इस
जगह की शांति ने मुझ पर अनोखा असर किया। अचानक ही मुझे अहसास हुआ कि मैं कौन था और
क्या हो गया हूं। मैंने यह भी देखा कि मैं कहां बढ़ा जा रहा हूं। मैंने कई चीजें साफ-साफ
महसूस कीं और उन्होंने मुझे हिलाकर रख दिया।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पर इससे पहले कि मैं आगे बढ़ूं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह ज़रूरी है कि थोड़ा पीछे
लौटा जाए और जो बात मैं कह रहा हूं, उसकी पृष्ठभूमि समझी जाए।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह एक नौजवान की कहानी है। एक ऐसे संजीदा नौजवान की
कहानी, जिसे एक जोकर बना दिया गया। और वह कहानी सुनाने का वक्त आ गया है क्योंकि अब
वह नौजवान उस पड़ाव पर पहुंच गया है जहां उसकी यह मसखरी ख़त्म </span><span style="font-family: Mangal;">हो जानी चाहिए। </span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह किशोर कुमार की कहानी है। मेरी कहानी।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सालों पहले जब मैंने फ़िल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था
तो मैं एक दुबला-पतला गंभीर नौजवान था। मुझे अच्छा काम करने का जुनून था। मैं गाता
था। मेरे आदर्श केएल सहगल और खेमचंद प्रकाश थे। ऐसे नाम, जिनकी गूंज तब तक रहेगी जब
तक फिल्म इंडस्ट्री का वज़ूद रहेगा। मैं हमेशा इन दोनों हस्तियों को अपने लिए मिसाल
के तौर पर देखता था।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक प्लेबैक सिंगर के तौर पर मेरी शुरुआती कोशिशें खासी
कामयाब रही थीं। खेमचंद प्रकाश के साथ मैंने जो गाने गाए, वे गंभीर और सहज थे। उनमें
कोई जटिलता नहीं थी। खेमचंद प्रकाश को लगता था कि एक दिन मैं बहुत अच्छा गाने लगूंगा।
उनका सोचना ग़लत भी नहीं था।<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन यहीं मेरी डोर </span>'<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दूरदृष्टि</span>'<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span> <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वाले कुछ लोगों के हाथ में आ गई। उन्होंने तय किया कि इस लड़के
को कुछ सलीका सिखाना चाहिए। उन्हें लगता था कि मैं खुद को एक ऐसी शैली में ढाल रहा
हूं जो जल्द ही किसी काम की नहीं रहेगी। बिल्कुल उसी तरह, जैसे कल का अखबार आज के लिए
बेकार की चीज हो जाता है। उन्हें लगा कि कि मुझे आने वाले कल के हिसाब से ढलना चाहिए।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उनमें से एक ने मुझे सलाह दी</span>, "<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ऐसे मत गाओ। यह कुछ ज्यादा
ही सादा है। इसमें थोड़ा मसाला डालो। कुछ बूम चिक टाइप चीज करो। इसमें जैज़ और यॉडलिंग
डालो।"</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दूसरे ने कहा</span>, "<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">प्लेबैक सिंगिग में कोई भविष्य नहीं
है। एक्टिंग में आ जाओ। पैसा इसी में है।"</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो सलाहें आती गईं और मैं उन पर अमल करता गया। इस
तरह खुद को बदलने में मुझे ज्यादा वक्त नहीं लगा। गंभीर और आदर्शवादी लड़का जल्द ही
एक मगरूर और दूसरों में दोष ढूंढने वाला नौजवान बन गया। परंपराओं के लिए अब मेरे मन
में कोई सम्मान नहीं था। मैं हर चीज का मज़ाक उड़ाने लगा था। कुल मिलाकर कहें तो मैं
बहुत तेजी से वह किशोर कुमार बन रहा था जिसे आप सब जानते हैं।<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4uQIAc2nZcbOTjoXY3DTIrFl7CeZkE75rWOCjRY8Az28V4rkB9asXAbi5HABp5ISJ_0ymrcEx0uYy5_1_UbD4TnhbV6JmPS1LOXic6YsFLn2GY92iW2BfOS0o89Fmacbh7pGh3H5tC3c/s1600/PTDC0217.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4uQIAc2nZcbOTjoXY3DTIrFl7CeZkE75rWOCjRY8Az28V4rkB9asXAbi5HABp5ISJ_0ymrcEx0uYy5_1_UbD4TnhbV6JmPS1LOXic6YsFLn2GY92iW2BfOS0o89Fmacbh7pGh3H5tC3c/s320/PTDC0217.JPG" width="237" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
उस दिन को मैं ज़िंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा जब मैं अपने
गुरु खेमचंद प्रकाश पर भी हंस दिया था। मैंने उनसे कहा था</span>, "<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इन गंभीर चीजों को भूल जाइए खेमराज
जी। अब ये नहीं चलेंगी। अब लोग जैज़ चाहते हैं। उन्हें यॉडलिंग अच्छी लगती है।</span>"</div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यॉडलिंग के लिए मैंने उनके सामने एक नमूना भी पेश किया
था। वे बहुत नाराज हुए थे। उन्होंने मुझे न सिर्फ खूब फटकारा बल्कि चेताया भी कि मैं
एक दिन पछताऊंगा।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आज समझ में आया है कि वे सही थे। लेकिन तब मुझे इसमें
ज़रा भी शक नहीं था कि वे गलत हैं। हालात ने भी तो मेरा साथ दिया था। इसलिए मैंने गानों
में और ज़्यादा यॉडलिंग और जैज़ के प्रयोग किए। गाने भी हिट रहे।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">प्रयोग का यह भूत सिर्फ़ गाने तक ही नहीं रहा। अभिनेता
के तौर पर भी मैंने इसे दोहराया। अब तक मैं सामान्य तरीके से ही अभिनय करता आ रहा था।
मुझे वह दिन याद है जब एक जाने-माने निर्माता-निर्देशक ने सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए
मुझसे कहा था</span>, "<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तुम जो कर रहे थे किशोर, वह 25 साल पुरानी चीज है। अब जब तुम्हें बात समझ में आ
गई है तो मैं तुम्हें कुछ बनाकर ही रहूंगा।"</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरे दिमाग में उसके रहस्यमयी शब्द गूंजते रहे। शूटिंग
के दिन जब मैंने अपने डायलॉग बोले तो निर्देशक साहब बोले</span>, '<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ऐसे नहीं बच्चे। इसमें कुछ स्पेशल
डालो।</span>'</div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शॉट फिर से हुआ। निर्देशक साहब अब भी संतुष्ट नहीं थे।
सारा दिन रीटेक में ही चला गया। हर बार मैं पहले से ज्यादा घबरा जाता। मुझे समझ में
नहीं आ रहा था कि आखिर यह आदमी मुझसे डायलॉग बुलवाना कैसे चाहता है। </span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जब दिन ख़त्म हुआ तो मेरी हालत देखकर सेट पर मौज़ूद एक
कर्मचारी ने मेरे पास आकर कहा</span>, "<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उनके दिमाग में चार्ली चैप्लिन घूम रहा है। डायलॉग उसी स्टाइल
में बोलो।"</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">किस्मत से मैंने चार्ली चैप्लिन की कई फिल्में देखी हुई
थीं। अगले दिन जब शूटिंग शुरू हुई तो मैंने उसी अंदाज में अपने डायलॉग बोल दिए।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
'<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बहुत अच्छे</span>', <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">निर्देशक साहब चिल्लाए और मुझे गले
लगाते हुए बोले</span>, "<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरा सपना पूरा हो गया है।</span>"<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिर तो एक के बाद एक फिल्में मेरे पास आती गईं और मैं
अपनी कॉमेडी भूमिकाओं को जोश से निभाता गया। फ़ॉर्मूला यही था कि मुझे बेवकूफ़ाना से
बेवकूफ़ाना हरकतें करनी होती थीं। कूदना-फांदना</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">धड़ाम से गिरना</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चेहरे बनाना और कुल मिलाकर
कहें तो एक बंदर की तरह बर्ताव करना। मुझे यकीन था कि जनता भी यही चाहती है। मेरी फिल्में
हों या गीत</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लगातार हिट हो रहे थे। मुझे लगता था कि आलोचक कौन होते हैं यह कहने वाले कि अभिनय
की मेरी शैली खराब है। आखिर मैं तो वही कर रहा हूं जो जनता चाहती है।<br />
</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">समय के साथ मुझे और भी लोग मिलते गए जो इसी शैली को समर्पित
थे। उनमें मेरे साथी भी थे और निर्माता-निर्देशक भी। इस तरह मैं एक ऐसा बंदर बन गया
जिसे भारी मेहनताना मिलता था। मैं भी पैसा कमा रहा था और मेरे प्रोड्यूसर भी। मेरी
फिल्में हिट हो रही थीं और जनता खुश थी। इससे ज़्यादा किसी को क्या चाहिए</span>?</div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक फ़िल्म का उदाहरण मुझे याद आ रहा है। इस फिल्म में
कुछ ऐसे सीन थे जिनमें मेरा किरदार अपने बड़े भाई को गालियां दे रहा है। उसे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जलील कुत्ते</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसे शब्द कह रहा है। मुझे लगा कि
जनता निश्चित तौर पर इसे पसंद नहीं करेगी। छोटा भाई अपने बड़े भाई को गालियां दे</span>,
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यह भला किसे अच्छा
लगेगा? मैंने निर्देशक से यह बात कही। उसका कहना था</span>, '<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चिंता मत करो किशोर। तुम जो भी करोगे,
जनता उसे स्वीकार कर लेगी।</span>'</div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और जब फिल्म के प्रीमियर के दौरान ये सीन स्क्रीन पर
आए तो दर्शकों ने तालियां बजाईं। अब मुझे और पक्का यकीन हो गया था कि एक्टिंग का मेरा
यह स्टाइल सही है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसलिए मैं इसमें पूरी तरह से डूब गया। वह ऐसा वक्त था, जब मैं कहा करता था कि पैसा
ही सब कुछ है।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिर एक दिन मैंने अपनी ही फिल्म लांच की। इसका नाम था-
चलती का नाम गाड़ी। अपने सही होने पर मुझे इतना यकीन था कि जब संगीतकार एसडी बर्मन
ने इसके लिए बनाई हुई कुछ मौलिक धुनें मुझे सुनाईं तो मैंने उन्हें हड़का दिया। मैंने
कहा</span>, '<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्या
आपको लगता है जनता यह सुनना चाहती है</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कृपा करके आप किसी म्यूजिक स्टोर में जाइए और कुछ रॉक
एंड रोल रिकॉर्ड्स खरीदिए। लेकिन ध्यान रखें कि वे रिकॉर्डस न खरीद लें, जो दूसरे संगीतकार
भी खरीद रहे हों।</span>'<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसके बाद एक बड़ी अजब चीज हुई। इस फिल्म में मैं एक गायक
का किरदार निभा रहा था। मेरे एक गीत के लिए संगीतकार ने कहा कि इसे मेरी नहीं, बल्कि
किसी दूसरे प्लेबैक सिंगर की आवाज में रिकॉर्ड किया जाएगा। मैंने एतराज किया तो जवाब
आया कि यह शास्त्रीय गीत है और मैं शास्त्रीय गीत नहीं गा सकता। यह बात उस शख़्स के
लिए कही जा रही थी जिसने अपना करियर ही शास्त्रीय गीतों से शुरू किया था। सफलता और
घमंड से बनी मेरी दुनिया की बुनियाद पर यह पहली चोट थी।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिर मेरी फ़िल्म बंदी आई। ईमानदारी से कहूं तो इसे लेकर
मैं सशंकित था क्योंकि इसके दूसरे हिस्से में मुझे एक बूढे़ व्यक्ति की भूमिका अदा
करनी थी। यह एक गंभीर भूमिका थी। मुझे लगा कि जनता को यह पसंद नहीं आएगी। इसलिए इसकी
भरपाई के चक्कर में मैंने फिल्म के पहले हिस्से में अपनी चिरपरिचित एक्टिंग की अति
कर दी। लेकिन मुझे हैरानी हुई जब पहले हिस्से की आलोचना और दूसरे हिस्से की तारीफ़ हुई।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसके बाद आंखें खोलने वाली एक और घटना हुई। मेरी एक फिल्म
आई थी, आशा। यह इस सिद्धांत के साथ बनाई गई थी कि जितनी अति उतना अच्छा। इसमें वह सब
कुछ था जो जनता चाहती थी। रिलीज होने के बाद यह उम्मीदों पर बमुश्किल आधी ही खरी उतर
पाई। इसके बाद एक आलोचक ने लिखा कि अगर मैं इसी रास्ते पर चलता रहा तो मेरे लिए अपना
दायरा बढ़ाना और दूसरी तरह की भूमिकाएं करना मुश्किल होगा। मुझे लगा कि उसकी बात सही
है।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिर अब कश्मीर में मैंने ख़ुद को अपने असली रूप में देखा।
मुझे लगा कि मैं एक बेमतलब का मसखरा हूं। ऐसा आदमी, जिसे बस मसखरी के लायक ही समझा
जाता है। मुझे लगा कि मैं पैसे के पीछे भागने वाला एक ऐसा इंसान हूं जिसने अपना स्तर
सबसे नीचे कर दिया है, इस यकीन में कि उसकी फ़िल्में लोगों द्वारा सराही जाती हैं। मुझे
अहसास हुआ कि मैं एक ऐसा कलाकार हूं जिसने इतना काम सिर पर ले लिया है कि वह लगभग पागल
हो गया है। वह मानसिक रूप से बेचैन रहता है, चिंता करता रहता है और उसे नींद नहीं आती।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं समझ गया कि मैं और मुझसे जुड़े लोग फ़िल्मों के नाम
पर बेवकूफ़ी बना रहे हैं। मुझे महसूस हुआ कि समकालीन फ़िल्म संगीत एक तमाशा बन कर रह
गया है। मुझे यह अहसास हुआ कि मैं ही नहीं, मेरे बड़े भाई अशोक कुमार भी उस नाव पर
सवार हैं। उन्हें सब ऐसी फ़िल्में दी जा रही हैं जो उनकी महान प्रतिभा के साथ न्याय
नहीं करतीं।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मुझे एक किस्सा और याद आता है। मैं एक म्यूजिक स्टोर
में था। वहां एक सेल्समैन ने मुझसे कहा कि आजकल विदेशी जब पूछते हैं कि इंडियन रिकॉर्ड्स
में क्या नई चीज आई है तो उसे समझ में नहीं आता कि वह क्या करे। उसका कहना था</span>,
"<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं उन्हें क्या दिखाऊं</span>?
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नए के नाम पर या तो
मशहूर उस्तादों की कुछ रिकॉर्डिंग्स हैं या फिर केएल सहगल के गानों के रिकॉर्ड। मैं
उन्हें फ़िल्म संगीत वाले रिकॉर्ड कैसे दिखाऊं</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उन्हें तो झटका लग जाएगा।</span>" <span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसलिए जब मैं अपनी छुट्टी से लौटा तो मैं फ़ैसला कर चुका
था। मैंने सोच लिया था कि अगर अब मुझे ऐसी भूमिकाओं के प्रस्ताव आते हैं तो मैं सीधे
उन्हें ठुकरा दूंगा।
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
</span>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
</span>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFDz2Xm45vaVFgvWB8uyWhjjTq0CirhfTrTV2FgbDF65JOsx1FMYoBH3T4_GVS8uj8fd2vkaVHFytBzM6bSz1w5OCLvulJYbwoQTCetR_n8njUGCBvG7F-QJ_Yc26V3SZ79EndEJWNc-k/s1600/kishore.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFDz2Xm45vaVFgvWB8uyWhjjTq0CirhfTrTV2FgbDF65JOsx1FMYoBH3T4_GVS8uj8fd2vkaVHFytBzM6bSz1w5OCLvulJYbwoQTCetR_n8njUGCBvG7F-QJ_Yc26V3SZ79EndEJWNc-k/s320/kishore.jpg" width="274" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
बम्बई वापस आने के बाद जल्द ही दो फ़िल्मकारों ने यह कहते
हुए मुझसे संपर्क किया कि वे मुझे अपनी फ़िल्म में लेना चाहते हैं। वे सुबह-सुबह मेरे
घर आए। मेरा सेक्रेटरी भी घर पर था। मेरी पत्नी पोर्च में एक सब्जीवाले से सब्जियां
खरीद रही थी। इन निर्देशकों ने बात मेरी तारीफ से शुरू की। उनका कहना था कि मैं एक
जीनियस हूं और उनके पास मेरे लिए एक बढ़िया किरदार है। उनमें से एक ने कहा</span>,
"<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आप सिचुएशन सुनिए।
आप हीरोइन के बेडरूम में घुसते हैं। आपको पता है ना, किस तरह</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हा हा हा..। आप एक साड़ी
पहनकर कमरे में घुसते हैं। है न शानदार</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसके बाद आपको पता है ना कि क्या करना है</span>?"<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैंने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा</span>, "<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक मिनट। मैं आपको बताता
हूं कि मैं क्या करूंगा।"</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वे कुछ समझते, इससे पहले ही मैंने छलांग लगाई और दो कलाबाजियां
खाते हुए पोर्च में पहुंच गया। दोनों लोग चकरा गए। मैंने अपने सेक्रेटरी से कहा कि
आगे वह उन दोनों से बात कर ले। फिर मैं बिना कुछ कहे भीतर चला गया। थोड़ी देर बाद जब
मैं बाहर आया तो दोनों लोग जा चुके थे।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैंने सेक्रेटरी से पूछा</span>, "<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्या हुआ</span>?"</div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI">"</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उन्हें लगा कि आप पागल हो गए हैं। वे बहाना बनाकर निकल
गए</span><span lang="HI">"</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">, सेक्रेटरी
ने कहा।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ख़ैर, मुद्दा यह है कि बेकार की चीजों के पीछे भागने की
इस अंधी और गलत दौड़ को छोड़ने का वक्त आ गया है। मैं अब सीधा चलना चाहता हूं। अगर
कॉमेडी है तो वह गूढ़ होनी चाहिए। संगीत वास्तव में हिन्दुस्तानी होना चाहिए। फ़िल्मों
का कोई मतलब होना चाहिए।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं ख़ुद एक फ़िल्म बनाना चाहता हूं। मैं इस पर जल्द ही
काम शुरू करूंगा। मैं ख़ुद इसे निर्देशित करूंगा और इसमें संगीत भी दूंगा। यह मेरी उन
फिल्मों से बिल्कुल अलग होगी, जिनकी दर्शकों को आदत हो चुकी है। मुझे पता है कि मेरे
कई दोस्त और शुभचिंतक यह सुनते ही मेरी तरफ दौड़ेंगे और सलाह देंगे कि मैं ऐसी बेवकूफी
न करूं। वे मुझे मनाने की कोशिश करेंगे कि मैं वही करता रहूं जो मैं अब तक सफलतापूर्वक
करता आ रहा हूं। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि उनकी बात न सुनूं।<br />
<br />
</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अगर फ़िल्म चल जाती है तो बहुत अच्छा। अगर नहीं चली, तो
भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। एक फिल्म फ्लॉप हो सकती है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दूसरी भी और फिर तीसरी-चौथी भी। हो
सकता है कि मैं अपना सारा पैसा गँवा दूं। वह पैसा, जिसकी कभी मैंने इतनी पूजा की है।
हो सकता है कि मैं नाकामयाब हो जाऊं और मुझे इंडस्ट्री छोड़नी पड़े। पर कम से कम मुझे
इस बात के लिए तो याद किया जाएगा कि मैंने कुछ अच्छा करने की कोशिश की। लोग शायद कहेंगे
कि </span>'<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बेचारा
किशोर कुमार</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जोकर बनकर अच्छा-खासा चल रहा था। फिर उसने कुछ अलग और अच्छा करने की कोशिश की।
देखो क्या हाल हो गया उसका!</span>' <span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भले ही ऐसा हो जाए लेकिन मुझे लगता है कि यह
भी </span><span style="font-family: Mangal;">मेरे लिए</span><span style="font-family: Mangal;"> </span><span style="font-family: Mangal;">अच्छा ही होगा।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-left: .25in;">
<o:p></o:p></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-73722562200536269302012-05-03T02:45:00.000-07:002012-05-03T03:01:36.678-07:00जादू की क्लिप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<i style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;">हिन्दी सिनेमा में स्त्री</i><span style="font-family: Mangal; font-size: 12pt;"><br /></span><br />
<div class="MsoNormal">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSul6cdNxfaliEU7-ok_rlgYbst7XicE5XJFhhm2_i26if4NtOcz4X8NMYFzmppP2VTNElC0YBBROkJicel3J9cbYY5-1hKcGpTCEOGNLHYEESHEroEFTFUpFpdA6xy1bsXeQCnHqvi6g/s1600/vidya_balan-ishqiya.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSul6cdNxfaliEU7-ok_rlgYbst7XicE5XJFhhm2_i26if4NtOcz4X8NMYFzmppP2VTNElC0YBBROkJicel3J9cbYY5-1hKcGpTCEOGNLHYEESHEroEFTFUpFpdA6xy1bsXeQCnHqvi6g/s400/vidya_balan-ishqiya.jpg" width="400" /></a></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /><b>रा.वन की शुरुआत</b> के
एक दृश्य में बहुत सारे मेकअप और कम कपड़ों के साथ सलीब पर लटकी प्रियंका </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बचाओ बचाओ</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की गुहार लगा रही हैं और तब हीरो शाहरुख उन्हें बचाने
आते हैं। यह सपने का सीन है लेकिन हमारे सिनेमा के कई सच बताता है। एक यह कि
हीरोइन की जान (और उससे ज्यादा इज्जत) खतरे में होगी तो हीरो आकर बचाएगा और इस
दौरान और इससे पहले और बाद में हीरोइन का काम है कि वह अपने शरीर से, पुकारों से
और चाहे जिस भी चीज से, दर्शकों को पर्याप्त उत्तेजित करे। लेकिन अच्छा यही है कि
इज्जत बची रहे और लड़की इस लायक रहे कि हीरो उसे साड़ी पहनाकर मां के सामने ले जा
सके। </span><br />
<a name='more'></a><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हिन्दी फिल्मों में </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इज्जत</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले शब्दों में
से है और जैसा </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जब वी मेट</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का स्टेशन मास्टर अपनी बिंदास नायिका से कहता
भी है कि अकेली लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है। यह हैरान करने वाली बात है कि
नायिका की इज्जत अगले कुछ ही क्षणों में खतरे में पड़ जाती है और नायक न हो तो अब
तक साहसी लग रही नायिका के साथ कुछ भी हो सकता है। इसीलिए वह बार-बार पुरुष के
कदमों में गिरती है। अधिकतर जगह नायिका को नायक के बराबर दिखाने वाली </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बॉबी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की नायिका भी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">झूठ बोले
कव्वा काटे</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> गाने में अपने
प्रेमी के पैरों की धूल अपने माथे पर लगाती है। क्योंकि जब वह मायके जाने की बात
करती है तो प्रेमी दूसरा ब्याह रचाने का कहता है और लड़की तुरंत कदमों में - मैं
मायके नहीं जाऊंगी। <br />
<br />
</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इंसाफ का तराजू</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की जीनत अपने पति से कहती है कि हां, शादी के
बाद मैं मॉडलिंग नहीं करूंगी। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिलवाले
दुल्हनिया ले जाएंगे</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की सिमरन
कहती है कि सपने नहीं देखूंगी। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अभिमान</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की जया कहती है कि गाना नहीं गाऊंगी। बहुत
सारी फिल्मों की नायिकाएं खुशी-खुशी नौकरी छोड़ने और बेडरूम के अलावा कहीं भी छोटे
कपड़े न पहनने के लिए तैयार हो जाती हैं और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साहिब बीवी और गुलाम</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की छोटी बहू कहती है कि जब तक कोठे पर शराब के नशे
में धुत्त पड़े पति के पैरों की धूल नहीं मिलेगी, उपवास नहीं तोड़ेगी।<br />
<br />
</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जो हुक्म मेरे आका</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> वाले इस </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नहीं</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
और पैरों की धूल की बात बार-बार होती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बंदिनी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की प्रगतिशील
लगती नायिका फिल्म के सब मुख्य पुरुष किरदारों के पैर बार-बार छूती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मुकद्दर का सिकंदर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के आखिर में जब सिकंदर अपनी रामकहानी सुनाता है तो
राखी उसे भगवान कहती हुई पैरों में गिर जाती हैं।</span>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNE-dxuLP-GGfIjhlqwdhm5SPda8kZdryA8lX8i7eZ9RyAfVg9oBTmsmzwcUPCq9iU239xEaPZPkJulJzweQ3YUsgr5Q9tvhluoeGCYgj2oGeXOnwEW79OZbq5LH08-iubqJpdPy4RRhg/s1600/meena-wallpapers.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNE-dxuLP-GGfIjhlqwdhm5SPda8kZdryA8lX8i7eZ9RyAfVg9oBTmsmzwcUPCq9iU239xEaPZPkJulJzweQ3YUsgr5Q9tvhluoeGCYgj2oGeXOnwEW79OZbq5LH08-iubqJpdPy4RRhg/s320/meena-wallpapers.jpg" width="320" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कभी कभी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में राखी और अमिताभ की शादी नहीं हो पाती क्योंकि
अमिताभ नहीं चाहते कि अपनी खुशी के लिए मां-बाप को दुखी किया जाए। इसके बाद आखिर
तक फिल्म दुखी अमिताभ को नैतिक रूप से ज्यादा सही दिखाती है और राखी के मन में
अपराधबोध रहता है। यह अपराधबोध हमारे समाज और सिनेमा की उन सब लड़कियों में भी है,
जो खूबसूरत नहीं हैं, जिनके पिता उनकी शादी के लिए दहेज नहीं जुटा पा रहे या जिनकी
तथाकथित इज्जत लुट गई है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सत्यम
शिवम सुन्दरम</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की जीनत का चेहरा
जला हुआ है, इसलिए वह अभागी है और मंदिर में ज्यादा वक्त बिताती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गाइड</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> सबसे विद्रोही फिल्मों में से है, जिसकी नायिका बिना तलाक लिए अपने पति
को छोड़ती है और एक गाइड के साथ लिव-इन में रहती है, लेकिन उसमें भी देव आनंद जब
वहीदा को अपनी मां के पास ले जाते हैं तो कहते हैं कि मां, यह एक अभागन है। </span></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
जैसा अमिताभ </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कभी कभी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में राखी से कहते हैं, वैसा ही कुछ </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के शाहरुख काजोल से कहते हैं। वह भागना चाहती
है, उसकी मां भी चाहती है कि वे भाग जाएं, लेकिन शाहरुख </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हिन्दुस्तानी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> हैं, उन्हें </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हिंदुस्तानी
लड़कियों</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की इज्जत की फिक्र है।
लंदन में पली बढ़ी सिमरन भी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरे
ख्वाबों में जो आए</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> गाती है और
जब ख्वाब वाला आता है, तब कबूतरों को उड़ाते और बेटियों को बांधते बाउजी की पालतू
गाय बनकर अपने पंजाब आ जाती है। जहां खूब सरसों है, गाने हैं, खुशी है लेकिन आजादी
नहीं है। ऊपर से उसका प्रेमी उसे यह बता रहा है कि तुम अपने पिता की संपत्ति हो
इसलिए उनके साइन के बिना तुम्हें नहीं ले सकता। आखिर में मार खाते हुए वह सिमरन को
बाउजी को सौंप भी देता है </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> आपकी
अमानत है </span>–<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और चूंकि हैप्पी
एंडिंग है, लड़की अपने प्रेमी के रूप में दूसरे बाउजी के साथ चली जाती है।<br />
<br />
यही फिल्मों की अच्छी भारतीय लड़की की परिभाषा है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कुछ कुछ होता है</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के शाहरुख को भी यही चाहिए, इसीलिए माइक्रो मिनी स्कर्ट
वाली रानी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ओम जय जगदीश हरे</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> गाकर अपनी पवित्रता सिद्ध करती हैं। अच्छी
लड़कियों को इसी तरह पवित्र रहना होगा क्योंकि जैसा अधिकांश हिन्दी फिल्मों की तरफ
से </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जख्मी औरत</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की डिंपल अदालत में कहती हैं कि औरत की इज्जत
एक बार लुट गई तो कभी नहीं लौट सकती या </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इंसाफ का तराजू</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की नायिका
कहती है कि औरत के मन की पवित्रता से बड़ी उसके तन की पवित्रता है। यह तब, जब ये
फिल्में उन औरतों की कहानियां हैं, जो </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एंग्री यंग मैन</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के से
तेवरों से अपने बलात्कारियों को खत्म करती हैं। इसी साल आई </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हेट स्टोरी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की नायिका ऐसे एक हादसे के बाद कहती है कि शहर तो बदला जा सकता है, शरीर
नहीं। <br />
</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB4EtkPJwOVSrb78MpxZXAktvSUJ4C_tyzY5qoPdjIHXv5nILL4i7pUsWo6libV0kzy4Hlp6zbyPabRMPz-tcV-YbJSs7viCCrUqOS6u6hlQgW1i0Jv29Sj0_LMVAtPHC1WQISsVjmBuk/s1600/ddlj.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB4EtkPJwOVSrb78MpxZXAktvSUJ4C_tyzY5qoPdjIHXv5nILL4i7pUsWo6libV0kzy4Hlp6zbyPabRMPz-tcV-YbJSs7viCCrUqOS6u6hlQgW1i0Jv29Sj0_LMVAtPHC1WQISsVjmBuk/s320/ddlj.jpg" width="320" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हालांकि नायिका की इज्जत तो आम तौर पर बचा ली जाती है लेकिन नायक की बहनें अक्सर
नहीं बच पातीं। वे इस तरह कहानी में मकसद पैदा करती हैं। साथ ही खलनायक या नायक के
विरोधी पक्ष के किसी भी आदमी की बेटियां, बहनें किसी बहाने से नायक के करीब आने की
कोशिश करें तो उसे उनसे कैसा भी सलूक करने का पूरा हक है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बाजीगर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
में वह उनसे प्यार करके उनकी हत्या कर सकता है और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बंदिनी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
में तो खुद नूतन एक औरत की इसलिए हत्या कर देती हैं क्योंकि उनके देशभक्त प्रेमी
ने उनसे शादी न करके उस औरत से की। फिल्म उस प्रेमी से कभी सवाल नहीं करती और नूतन
ने तो खैर अच्छा काम किया ही। <br />
<br />
हीरोइन के नहाने, तैरने या कपड़े बदलने के दृश्य अक्सर उसे चाहने वाले पुरुष की
मौजूदगी में और सिर्फ उसकी मौजूदगी में ही होते है। ऐसा नहीं कि वह हेलन की तरह
आधे-अधूरे कपड़ों में भीड़ के सामने कैबरे में नाचने लगे। तब उसे अपने प्रेमी के साथ
कुर्सी पर बैठकर वह नाच देखना चाहिए और जब कैबरे डांसर नाचती हुई आकर प्रेमी को
यहां-वहां छुए तो मुस्कुराते रहना चाहिए या ज्यादा से ज्यादा कुछ सेकंड का झूठा
गुस्सा दिखाना चाहिए। नायिका </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शोले</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में खलनायक के सामने नाचेगी तो नायक की जान
बचाने के लिए। तब सब चलता है। तब वह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चोली के पीछे क्या है</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
पर भी नाच सकती है, भले ही वह पुलिस ऑफिसर हो। नायक की जान बचाना महान काम है और उसके
जीवन का जरूरी कर्त्तव्य। इसके बदले में वह कभी भी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
के सनी की तरह खून से उसकी मांग भरेगा और कहेगा- तुम कहीं भी जाओ, रहोगी तो किरण
सुनील मल्होत्रा ही।<br />
<br />
</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तुम मेरी हो</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का यह अधिकार अनगिनत गानों के बोलों में भी
देखा जा सकता है और हद तब हो जाती है, जब </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ब्लड मनी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के कुणाल खेमू
अपने सच्चे प्यार का ऐलान करते हैं- तेरे जिस्म पे, तेरी रूह पे, बस हक है मेरा।
</span>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbeqZAw_08cQxzf_V8q0bFuI1Qko1phRQ041caBn5DyQv-rJqfGxeoFJkj46XVfvjVZHRz4Uc4L6nee_jksFwfSgXDRuTaoH_znNsTG98sovR2a4gYeVyt0VogqAbjHlzwHKO0Ft0HZPA/s1600/fire.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="217" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbeqZAw_08cQxzf_V8q0bFuI1Qko1phRQ041caBn5DyQv-rJqfGxeoFJkj46XVfvjVZHRz4Uc4L6nee_jksFwfSgXDRuTaoH_znNsTG98sovR2a4gYeVyt0VogqAbjHlzwHKO0Ft0HZPA/s320/fire.jpg" width="320" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रूह का तो कहना मुश्किल है, लेकिन नायिका के इसी जिस्म पर हिन्दी सिनेमा का इतना हक
रहा है कि वह जैसे ही आजाद होकर इसे अपने सुख के लिए इस्तेमाल करना चाहती है तो संस्कृति
घोर खतरे में पड़ जाती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फायर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> इसीलिए प्रतिबंधित होती है। ऐसा शायद नहीं
मिलेगा कि स्पष्ट शारीरिक इच्छाओं के साथ भी वह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अच्छी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
लड़की के किरदार में हो और हीरो उससे प्यार करे। संभव है कि यह यथार्थ की विडंबना
ही हो कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ओए लकी लकी ओए</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की नायिका की बहन कभी हिन्दी फिल्मों की
नायिका नहीं हो पाती। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिस्म</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की बिपाशा या </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गुलाल</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
की आयशा मोहन भी शारीरिक पहलें करती हैं लेकिन यह उनके षड्यंत्र का हिस्सा है और
इस तरह वे बुरी हैं, भले ही दूसरी वजहों से। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रॉकस्टार</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की नरगिस अपनी जिन्दगी में ऐसा कुछ नहीं करती लेकिन हिन्दी सिनेमा के लिए
यही बड़ी बात है कि हीरोइन हीरो के साथ जाकर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जंगली जवानी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> देखे, और वह भी तब, जब वे प्यार न करते हों। इसी तरह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ख्वाहिश</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की मल्लिका लाज-शरम को कूड़ेदान में फेंकती है और
कंडोम खरीदने जाती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नो वन
किल्ड जेसिका</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> एक कदम आगे जाती
है और पत्रकार रानी की प्रेमकहानी दिखाए बिना उन्हें एक लड़के के साथ अंतरंग होते
हुए दिखाती है। तभी फोन बजता है और सब कुछ बीच में छोड़कर रानी निकल पड़ती हैं। काम
प्यार या सेक्स से ज्यादा जरूरी है या नहीं, ऐसा पहले अक्सर पुरुष ही तय करते आए
हैं।</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />लेकिन ऐसा कम है कि वे काम करती हों या उनका काम, प्रेम या पुरुषों से इतर भी
कहानी का हिस्सा हो। अस्सी के दशक की कई फिल्मों में हेमा, डिंपल और रेखा
पुलिसवाली बनी हैं लेकिन वे अक्सर औरतों के या अपने ऊपर हुए अन्याय का बदला ले रही
होती हैं। अन्याय और उसकी लड़ाई की कहानियों के अलावा स्त्रियों की मजबूत या मुख्य भूमिकाओं
वाली फिल्मों में वे सबसे ज्यादा बार वेश्या या नर्तकी होती हैं। और जहां कहानी
अपने मुख्य किरदार के लिंग पर निर्भर नहीं है, वहां निन्यानवे फीसदी संभावना है कि
पुरुष ही मुख्य भूमिका में होगा। स्त्री की </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चमेली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">,
</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बवंडर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">, </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पाकीजा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> या </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डर्टी पिक्चर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> तो हैं
लेकिन उसकी कोई </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मुन्नाभाई
एमबीबीएस</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> या </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रंग दे बसंती</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> नहीं। उनमें वह बस सहायक है। यूं तो </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आवारा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में नरगिस और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ऐतराज</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में करीना वकील बनी हैं लेकिन दोनों का पेशा
फिल्म के लिए तभी अहमियत रखता है, जब उन्हें अपने प्रेमियों/पतियों को बचाना हो। आम
फिल्मों में वैसे तो उनका पेशा दिखाने की जरूरत नहीं समझी जाती लेकिन दिखाया जाता
है तो सबसे ज्यादा बार वे टीचर या डॉक्टर बनती हैं। वे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हम आपके हैं कौन</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसी कई फिल्मों में कम्प्यूटर साइंस पढ़ती बताई जाती
हैं लेकिन कम्प्यूटर के पास भी नहीं फटकतीं। नायिका को ज्यादा दिमाग के काम करते
नहीं दिखाया जाता और अक्सर उसके बेवकूफ होने को उसका </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्यूट</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
होना कहकर बेचा जाता है। अगर हीरोइन चश्मा लगाती है, खूब पढ़ती है तो या तो फिल्म
के अंत तक उसका मेकओवर हो जाएगा और वह आपको एक तड़कते-भड़कते गाने पर नाचकर दिखाएगी
या हीरो को दूसरी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सुन्दर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> हीरोइन से प्रेम हो जाएगा। चश्मे वाली,
पढ़ने-पढ़ाने वाली लड़कियां/औरतें बहुत नाखुश रहेंगी, अतिवादी होंगी और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मासूम</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसी कई फिल्मों में वे मासूम नायिका को आजादी और स्त्री-समानता जैसी
बातों से बरगलाने की भी कोशिश करेंगी लेकिन नायिका झांसे में नहीं आएगी। आखिर में
वे लौटकर आएंगी और कहेंगी कि तुम सही थी, पति के बिना जीवन नर्क है। सबक यह कि
पढ़ने और सोचने से दिमाग खराब हो जाता है। चश्मा लगाने से चेहरा खराब होता है इसलिए
उसे उतरवाने के लिए </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कल हो न हो</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का शाहरुख जान लगा देगा। इन्हीं सब वजहों से </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">प्यासा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की माला सिन्हा से </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चुपके चुपके</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की जया और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दिल</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की माधुरी तक वे किताबें लेकर तो बहुत घूमती
है, लेकिन उनका खास महत्व नहीं होता। प्यार और शादी के बाद तो बिल्कुल भी नहीं। <br />
</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPWkyOf_s0gWHwQJ_IWVCFHS1uvHsDGhbPP4yTXSvVr1PxDxfbCFvDXGDgYf1nOtjlSd2zjDBJ-VjFDwa25qo7GS9pDI-FBExdzlekW9LSFdjncTVk0UrqHCAMjtMOy-iq4E-EC9nJlq0/s1600/motherindia.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="234" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPWkyOf_s0gWHwQJ_IWVCFHS1uvHsDGhbPP4yTXSvVr1PxDxfbCFvDXGDgYf1nOtjlSd2zjDBJ-VjFDwa25qo7GS9pDI-FBExdzlekW9LSFdjncTVk0UrqHCAMjtMOy-iq4E-EC9nJlq0/s320/motherindia.jpg" width="320" /></a></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अपने करियर में ज्यादा महत्वाकांक्षी होकर </span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आंधी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
या </span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कॉर्पोरेट</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसी फिल्मों में वह अपने साथ के पुरुषों
जैसे काम करने लगती है तो हारती है, अकेली रह जाती है। यथार्थ क्या सिर्फ इतना ही
है या यह उसे सबक है? </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बन्दिनी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के अशोक कुमार की वही हिदायत कि पुरुष के
कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने की कोई जरूरत नहीं है, यह तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक
होगा। <br />
<br />
सबक बहुत हैं। मसलन बहुत बार वह गुरूर में होगी और गोविन्दा जैसे नायक उसके गुरूर
को जूते तले कुचलकर उसे सुधारेंगे और तब प्यार करेंगे। वह किसी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> औरत का घर तोड़ने की कोशिश करेगी तो आखिर में लानतें मिलेंगी और
मियां-बीवी खुश रहेंगे, भले ही वह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सिलसिला</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> हो या </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बीवी नम्बर वन</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">। सबक </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">प्यार का पंचनामा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जैसी लड़कों की दोस्ती की फिल्में भी हैं,
जिनमें उनके </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बराबर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> काम करने वाली सब लड़कियां संवेदनहीन और बुरी
सिद्ध की जाती हैं और लड़के उन्हें गाली देते हुए उनके बिना खुशी से रहना तय करते
हैं। लड़कियों की दोस्ती की इक्का-दुक्का </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">टर्निंग थर्टी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> या </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आयशा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> हैं लेकिन उनमें जय-वीरू की मिसालें कहां! <br />
<br />
खैर, नाउम्मीदी की यह पुरुष-सत्तात्मक उमस तो है लेकिन इसमें समय-समय पर ठंडी हवा
के झोंके और कभी-कभी एयर कंडीशनर भी हैं। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मदर इंडिया</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> है जो भूखी
औलाद के लिए खाना लाने को कीचड़ में भी उतर सकती है लेकिन साथ ही उस औलाद के कीचड़
होने पर उसे गोली भी मार सकती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चक
दे इंडिया</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> है, जिसकी लड़कियों को
उन सब चीजों से लड़ने और जीतने की जिद है जो उन्हें चूल्हों और परदों में झोंकना
चाहती हैं। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डोर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की गुल पनाग और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कहानी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
की विद्या बालन हैं जो भले ही उस परम कर्त्तव्य यानी पति की जान बचाने या जान का
बदला लेने के लिए सैंकड़ों किलोमीटर दूर जाएं, लेकिन औरत होना उनके रास्ते में नहीं
आता। शरीर न उनकी बाधा बनता है, न हथियार। दिलचस्प यह है कि उनकी कहानियों में
पुरुष वैसे ही चुप और भले सहायक हैं, जैसे औरतें ज्यादातर फिल्मों में रहती आई हैं।
</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लव आजकल</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की नायिका शादी से अगले दिन भी शादी तोड़कर किसी और के
पास जा सकती है और इस बार उसे मंडप छोड़कर भागने पर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कटी पतंग</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की आशा पारेख की तरह उम्र भर पछताना नहीं पड़ता। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अर्थ</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
की शबाना और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लक बाय चांस</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की कोंकणा को कोई शिकवा नहीं, लेकिन वे अपने
पुरुषों के बिना अलग रहना चुनती हैं, और इस निर्णय के बाद वे दुखी नहीं हैं। नई
पारो भी अपने शक्की और स्वार्थी देव के बिना रो-रोकर नहीं मरती और शादी कर लेती है।
</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक हसीना थी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की उर्मिला, </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">खून भरी मांग</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की रेखा और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ओमकारा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की कोंकणा अपने साथ बुरा करने वाले पुरुषों
को खत्म करते हुए इस बात का बिल्कुल लिहाज नहीं करती कि वे उनके प्रेमी या पति थे।
</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सात खून माफ</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की प्रियंका तो ऐसा छ: बार करती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सीता और गीता</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की हेमा और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चालबाज</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की श्रीदेवी एक
फिल्म के भीतर ही एक कमजोर औरत को निडर औरत का जवाब हैं। </span>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2LiZcaSMLyY4wzNH5OkFUdCTK1Jg7je9d9J2qD9pD9LBHlt__YHierX7CE2gd3VqpN9AyrrB5I7aBPM0Zz3t1C0ecDK3bw52V1IgTdL40HYqTCZKJPOoxxr_9ApOscRox_wQ2yWgmi6s/s1600/chak-de-india-042408020.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="218" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2LiZcaSMLyY4wzNH5OkFUdCTK1Jg7je9d9J2qD9pD9LBHlt__YHierX7CE2gd3VqpN9AyrrB5I7aBPM0Zz3t1C0ecDK3bw52V1IgTdL40HYqTCZKJPOoxxr_9ApOscRox_wQ2yWgmi6s/s320/chak-de-india-042408020.jpg" width="320" /></a><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आई एम</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
की नंदिता दास को बच्चा चाहिए लेकिन इसके लिए भी उसे किसी की जरूरत नहीं। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जूली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> से लेकर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्या कहना</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> तक वे बिना शादी के अकेली अपने बच्चे को
पालने को तैयार हैं, लेकिन घुटने टेकने के लिए नहीं। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चीनी कम</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की तब्बू और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जॉगर्स
पार्क</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की पेरिजाद को जब प्यार
होता है तो उन्हें अपने प्रेमी की उम्र और समाज की तिनका भर भी परवाह नहीं है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वेक अप सिड</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में वह लापरवाह बच्चे जैसे अपने दोस्त को बेहतर जीना
सिखाती है और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">प्यासा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में वह एक वेश्या है लेकिन पूरे सभ्य समाज के
बीच वही है जो उसके नायक को पहचानती है और उसे उसके लक्ष्य तक पहुंचाती है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">देव डी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की चंदा है जो अपनी मर्जी से वेश्या बनती है और पढ़ती
भी है, खुश भी रहती है और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शोर
इन द सिटी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बिना झिझक के कहती है
कि उसकी गृहणी नायिका ने </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">द
एल्केमिस्ट</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> अपने प्रकाशक पति से
पहले और बेहतर ढंग से पढ़ी है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जुबैदा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> अपने ऊपर लगे सब तालों को तोड़कर फेंकना चाहती
है और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मम्मो</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> देशों के बीच लगे तालों को। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तनु वेड्स मनु</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की कंगना शादी के लिए देखने आए लड़के से पव्वा चढ़ाकर
मिलती है, जेसिका छूकर गुजरने वाले मनचलों को गालियां देती हुई मारती है और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ये साली जिन्दगी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की चित्रांगदा खुद को मारने वाले अपहरणकर्ता को जान
से मार देती है।</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />
वे अब भी प्यार करती हैं और गाने गाती हैं लेकिन उनके पास जादू की एक क्लिप भी है
जिससे वे बाल भी बांधती हैं, ताले भी खोलती हैं और सिर भी। उनकी आवाज अब भी नर्म
है लेकिन उन्होंने नाखूनों की धार तेज कर ली है। <br />
<br />
बाहर देखिए, उजाला हो रहा है।<o:p></o:p></span></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-52514030825507320512012-05-01T03:44:00.000-07:002012-05-01T04:10:27.590-07:00"सेक्शुएलिटी से हमेशा पुरुषों को ही क्यों परेशानी होती है?" : अनुराग कश्यप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpmfdfoW5kAx9NjM91L8NZXUAJhMQZcVPOYZhyF9FbYgoL-QA-K7cc3IV_hh2GqWXiOOAlgtjOMLQy20lk3mz1IxS2xKYqdC8L5wOS-vZSkOxKdp8YNPQWq_TNmvcTCx65kWSHtTzXA8c/s1600/anurag-kashyap.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpmfdfoW5kAx9NjM91L8NZXUAJhMQZcVPOYZhyF9FbYgoL-QA-K7cc3IV_hh2GqWXiOOAlgtjOMLQy20lk3mz1IxS2xKYqdC8L5wOS-vZSkOxKdp8YNPQWq_TNmvcTCx65kWSHtTzXA8c/s1600/anurag-kashyap.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="284" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpmfdfoW5kAx9NjM91L8NZXUAJhMQZcVPOYZhyF9FbYgoL-QA-K7cc3IV_hh2GqWXiOOAlgtjOMLQy20lk3mz1IxS2xKYqdC8L5wOS-vZSkOxKdp8YNPQWq_TNmvcTCx65kWSHtTzXA8c/s320/anurag-kashyap.jpg" width="320" /></a><br />
<i><span lang="HI"><span style="font-family: Mangal;"></span></span></i><br />
<i><span lang="HI"><span style="font-family: Mangal;"><i><span lang="HI"><span style="font-family: Mangal;"></span></span></i></span></span></i><br />
<div style="display: inline !important;">
<i><span lang="HI"><span style="font-family: Mangal;"><i><span lang="HI"><span style="font-family: Mangal;"><i><span lang="HI"><span style="font-family: Mangal;">(</span><b>अनुराग कश्यप</b><span style="font-family: Mangal;"> से </span></span><b>अजय ब्रह्मात्मज</b></i><span style="font-family: Mangal;"><i> की बातचीत पर आधारित यह लेख '<b>तहलका</b>' के सिनेमा विशेषांक (15 मई, 2012) में छपा है। अनुराग जिस ईमानदारी से अपने जीवन और काम के बारे में बात करते हैं, वह 'सही' और 'अच्छा' होने के इस समय में बहुत दुर्लभ है। </i></span><i>उनका शुक्रिया कि वे उम्मीद जगाते हैं और बेशर्म अँधेरे में टॉर्च लेकर खड़े रहते हैं।) </i></span></span></i></span></span></i></div>
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><br /><br /><br />‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दैट
गर्ल इन यलो बूट्स</span>’ </b><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><b>के समय</b>
सब बोल रहे थे कि क्यों बना रहे हो</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मत बनाओ। मुझे जितने ज्यादा लोग बनाने से मना करते हैं मुझे
उतना ही लगता है कि मुझे यह फिल्म जरूर बनानी चाहिए। </span><br />
<a name='more'></a><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
<br />एक समय था, जब सब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लोग</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चाहते</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">थे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कि</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कुछ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">करूं।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जितने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लोग</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चाहते</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">थे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कि मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रास्ता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बदल</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दूं</span><span lang="HI">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उन</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लोगों</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">को</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">छोड़कर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अलग</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गया।</span><span lang="HI"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;">तभी</span> <span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;">आरती</span> <span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;">भी</span> <span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;">छूट</span> <span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;">गई।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उस</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">समय</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दबाव</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">में</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फालतू</span><span lang="HI">-</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फालतू</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिल्में</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लिखता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">था,</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सिर्फ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसलिए
कि गाड़ी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">की</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">किश्त</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भर सकूं।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गाड़ी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">में</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घूमता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नहीं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हूं।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लाइफ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">स्टाइल</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वही</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">था।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उतना</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ही</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बड़ा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चाहिए।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अगर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">छोटा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">होता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दबाव</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कम</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">होता।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जितना</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फालतू</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">काम</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">करता</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जितनी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घटिया</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिल्म</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लिखता,</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अंदर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गुस्सा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उतना</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बढ़</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जाता।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अंदर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ही</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अंदर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ब्लेम</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">करने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लग</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गया</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">था</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अपने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चारों</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तरफ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लोगों</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">को।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कोई</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">काम</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नहीं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">करता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">था।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लोग</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बैठे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रहते</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">थे</span><span lang="HI">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इंतजार</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">करते</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">थे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कि</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिल्म</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शुरू</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">होगी।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कोई</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">काम</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नहीं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">करता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">था।</span><span lang="HI"> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सरकार</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हुई</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसमें</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">के</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">के</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">निकल</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गया।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">की</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिम्मेदारी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चल</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रहा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">था।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अंदर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गुस्सा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जाता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">है
फिर।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लोगों</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">का</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अपना</span><span lang="HI">-</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अपना</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वजूद</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बन</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गया</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वही</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">होता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">है। के</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">के</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">के</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पास</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पैसे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पास</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्यों</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नहीं</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैंने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कहा</span><span lang="HI">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यार</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इतने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साल</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घूमा।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नारियल</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पानी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">का</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बोझ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अपने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कंधे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घूमा।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिर
धीरे</span><span lang="HI">-</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">धीरे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैंने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वे सब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चीजें</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उठा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फेंक</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दीं जो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पीठ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">घूमता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">था।</span><span lang="HI"> </span><br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फिल्म</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">के</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साथ</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ग्रुप</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बना</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">है</span><span lang="HI">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उससे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बार</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">निकल</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गया।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बाद</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">में</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">का</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कंसर्न</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जैसा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जाता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">है।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सब</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इस</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बात</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">के</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लिए</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लडऩे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लगते</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कि</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हमारा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पैसा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कोई</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">और</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">खा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रहा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">है।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कहता</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हूं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कि</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">खाने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">दे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">न</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">यार</span><span lang="HI">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पिक्चर</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बनाने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">को</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मिल</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">रही</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">है।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
<br />
जब मैं राइटर एसोसिएशन का मेम्बर बनने जाता था तो वहां पर एक सरदार जी हुआ करते थे।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वो मुझसे एक्स्ट्रा पैसा
मांगते थे, </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अच्छा
बेटा, आपका </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सत्या</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">का नॉमिनेशन हमारे हाथ में
है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शूल</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">का अगले साल आपको आठ हजार
देना पड़ेगा।</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> मैं बोलता
था, भाड़ में जाओ, मुझे नहीं चाहिए अवॉर्ड। उस समय सब बोलते थे कि मैं बेवकूफ हूं।
और तो और, कितनी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बार</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मुझसे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्रेडिट</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तक ले
लिया</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गया</span><span lang="HI">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जिन</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लोगों</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ने</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्रेडिट</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लिया</span><span lang="HI">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आज</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वे</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लोग</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">कहां</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हैं? मेरी तो जिंदगी की आधी चीजें इसीलिए हुई हैं कि
पैसा या ऐसी बाकी चीजें मुद्दा ही नहीं बनीं। अगर मुद्दा बनतीं तो मेरी आधी फिल्में
नहीं बनतीं। <br />
<br />
मेरे साथ दूसरी समस्या थी कि मैं बहुत ही बिखरा हुआ आदमी था। शादी जब हुई तो एक ही
लडक़ी थी जो पसंद भी करती थी और शादी भी करना चाहती थी। जिस लडक़ी का पहली बार हाथ पकड़ा,
उसी से शादी भी की। और शादी के बाद से ही गड़बड़ चालू हो गई। आरती की तरफ से कम</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरी तरफ से ज्यादा। मैं
थोड़ा बिखरने लगा था और बहुत ज्यादा बिखरने लगा था। मैं कनफ्यूज हो गया था। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सत्या</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तक सब ठीक था। मेरा वो केस
तब से चालू हुआ जब </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पांच</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बनी । मेरी जो ऐंठ थी, न
जाने कहां-कहां ले गई। आरती तो मेरे हिसाब से हमेशा बहुत खयाल रखने वाली थी लेकिन इमोशनल
कनेक्ट एक अलग होता है। मेरा कुछ चीजों को महत्व नहीं देना भी बहुत बड़ी समस्या रहा।
पता नहीं, वही छोटे शहर से आना, ब्वॉयज हॉस्टल में पढऩा, अचानक लड़कियों को देखना, ऐसा
लडक़ा रहना जो अठारह-उन्नीस साल की उम्र में लडक़ी सिगरेट पीए तो कहे कि गलत बात है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हाथ पकड़े, कहे शादी कर लें,
कहे नहीं करनी चाहिए। ऐसे आदमी से ऐसा आदमी बना जिसने </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">देव डी</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बनाई। मिडिल क्लास के एक
छोटे शहर के आदमी ने अचानक एक ऐसी चीज को काबू किया जो खतरा भी थी और आकर्षण भी और
रहस्य भी थी। आधी जिंदगी निकल गयी वो रहस्य सुलझाने में कि क्या है, आखिर है क्या ये
चीज। </span><o:p></o:p></div>
<br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">उसी आधी जिंदगी में 2000-2001 था, जब मुझे कुछ भी समझ में नहीं
आ रहा था और कोई मुझे समझने वाला भी नहीं मिल रहा था। फिर ये होता है न कि कहीं मैं
ही तो गलत नहीं हूं। रामू से मिलने से पहले मैं कहां शराब पीता था। सिगरेट भी नहीं
पीता था। एकदम क्लीन था। तब मैं दुबला-पतला सा था। वो अलग ही है जोन</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बहुत मुश्किल
है अब वहां जाना। इतना जरूर बोल सकता हूं कि मैं वफादार नहीं रहा था। बहुत बुरी तरह
बिखरा था। इमोशन चला जाता है। इमोशनली बिखरा हुआ था। मेरा ये था कि कोई ट्रेन की
घटना होती थी कि ये आदमी गया, कहीं किसी के साथ सो के आ गया। मैं कहीं चला जाता था
तो चला जाता था। मैं लौटता नहीं था। फिर लौटता था तो लौट के आ जाता था। फिर कब तक ऐसे
कोई डील करेगा? फिर शराब में मैं बहुत बुरी तरह जा चुका था। तब मैं कहां होता था, मुझे
नहीं मालूम। यह अंदर काम को लेकर भी था और आदमी को लेकर भी। वो हर चीज को लेकर था।
मैं वो समझ नहीं पा रहा था। एक ही चीज मुझे पकड़े हुए थी, वो थी मेरी बेटी आलिया। आलिया
थी, इसीलिए हमलोग इतना लंबा ला सके। एक होता है पति-पत्नी का रिश्ता, वो तो आलिया के
जन्म के बाद ही खत्म हो गया था। हम वहीं अलग कमरे में रहते थे। वहीं गद्दे पर सोया
रहता था</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वहीं दारू
पीता था</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वहीं बातें
करता था। लेकिन उससे पहले भी शायद आरती को मैंने कभी उस तरह से प्यार नहीं किया जिस
तरह से उसने मुझे किया। तकलीफ भी उसकी थी,</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पैशन भी उसका था</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">प्यार भी उसका था मेरे प्रति।
मेरा सबकुछ सिनेमा ही था।</span><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br /></span><br />
<div class="MsoNormal">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpz-YABvpb4RXKTDTjZe5DgNB1hBHRZQpIjE5sCv2-54lApkj55zRmiwEOyyF_wduiOB3w7Ok6o_81Q5axU0H58kpEWPjbbhhq8mHxXTt_7w8Yqqk0zfDBrkVKQbdrNrfkM4OsddSH9YY/s1600/Kalki-and-Prashant-Prakash.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="222" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpz-YABvpb4RXKTDTjZe5DgNB1hBHRZQpIjE5sCv2-54lApkj55zRmiwEOyyF_wduiOB3w7Ok6o_81Q5axU0H58kpEWPjbbhhq8mHxXTt_7w8Yqqk0zfDBrkVKQbdrNrfkM4OsddSH9YY/s400/Kalki-and-Prashant-Prakash.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">That Girl in Yellow Boots</td></tr>
</tbody></table>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span lang="HI"><br /></span></span><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span lang="HI"><span lang="HI">कल्कि का महत्व यह रहा कि उसकी जिन्दगी भी लगभग मुझ जैसी ही थी। वो भी बिखरी हुई
थी। उसके मां-बाप का तलाक हुआ था बारह साल की उम्र में। वह अपनी मां की मां बनी हुई
थी। मां को खाना खिलाना</span>, <span lang="HI">मां को संभाल के बैठाना। कल्कि ने वो सब देखा है। कल्कि मेरी
जिन्दगी में आयी तो उसमें क्या दिख रहा है</span>? <span lang="HI">उसमें मुझे लगता है कि उसको ऐसा कोई चाहिए था जो उसका विरोध
करे। मुझे कोई ऐसा चाहिए था जो मुझमें स्थायित्व लाए। उसने धीरे-धीरे मेरे सिस्टम से
ड्रग्स और बाकी चीजों को निकाला, संयम लाई। यह निर्भरता निकालते ही मैं आजाद हो
गया। फिर कल्कि की भी ऐंठ थी क्योंकि वो भी ऐसी चीजों से डील कर रही थी। सब उसको गोरी
की तरह देखते हैं। वो गोरी भले ही है लेकिन पली-बढ़ी तो तमिलनाडु के गांव में ही। वो
तो गोरी चमड़ी में ठेठ देहाती है। कोई तमिल बोलने वाला मिल जाए तो ऐसे घुलमिल जाती है
कि जैसे उसके गांव का हो। वो तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">फिट ही नहीं होती हाई सोसायटी में। न हाई सोसायटी में फिट होती
है, न आम समाज में फिट होती है। वह इन सब चीजों से जूझ रही थी। उसकी ऐंठ को कंट्रोल
करने में मेरी ऐंठ खत्म हो गई। </span><br />
<br />
<span lang="HI">मेरी
फिल्मों के लिए लोग कहते हैं कि कोई समाधान तो दिखाओ। मैं कहता हूं, आप समाधान किसके
लिए ढूंढ़ रहे हो</span>? <span lang="HI">समाधान
दुनिया के लिए ढूंढ़ रहे हो तो</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">मैं दुनिया को तो संतुष्ट नहीं कर सकता। क्या मैं खुद
संतुष्ट होना चाहता हूं? नहीं। तब क्यों दिखाऊं? मुझे समस्या ज्यादा दिखानी है।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">मैं चाहता हूं कि लोग उसके
बारे में सोचें और ज्यादा बहस करें। मैं नहीं चाहता कि मैं चैप्टर को वहीं बंद कर दूं
और किताब खत्म होने पर आप बोलें कि अंत में अच्छा सॉल्यूशन था। वो मुझे नहीं करना है।
</span>‘<span lang="HI">यलो बूटस</span>’ <span lang="HI">में हमने शूट किया था कि
वो किरदार अंत में मरता है। पिक्चर एडिट हुई तो हमने निकाल दिया उसका मरना। वो भीड़
में खो जाता है। लोग बोलते हैं, यार ऐसे आदमी को, साले को मारना चाहिए। मैं कहता
हूं कि ऐसे आदमी अक्सर मरते नहीं हैं। उसी मोड़ पर मैं फिल्म को खत्म करना चाहता था।
अगर उस किरदार को मार दिया तो कहानी उस लडक़ी की रह गयी। जहां उस कैरेक्टर को नहीं मारा</span>, <span lang="HI">वहां वो एक अलग लेवल पर चली
गई कि ये सब की प्रॉब्लम हैं और ऐसे लोग हैं अभी भी। यह डराता है। फिर वो एक आदमी
की कहानी नहीं लगती, लोग उसको भूलते नहीं। वो बहुत जरूरी है मेरे लिए कि आदमी अपने
अंदर ढूंढ़े। अपने अंदर का पाप ढूंढ़े या समस्या ढूंढ़े या समाधान ढूंढ़े। </span><br />
<br />
<span lang="HI">बाहर के दर्शकों
की मेरे काम के प्रति जो प्रतिक्रिया रही है, वो हिंदुस्तान से ज्यादा अच्छी रही है।
मेरी </span>‘<span lang="HI">देव डी</span>’<span lang="HI"> सबसे ज्यादा सफल रही है लेकिन वो
बाहर उस तरह नहीं सराही गई जिस तरह </span>‘<span lang="HI">ब्लैक फ्रायडे</span>’ <span lang="HI">या </span>‘<span lang="HI">नो स्मोकिंग</span>’ <span lang="HI">सराही गई थीं या </span>‘<span lang="HI">गुलाल</span>’ <span lang="HI">भी। <br />
<br />
पश्चिम में चीजों को देखने का तरीका अलग है। उनकी काम करने की पूरी संस्कृति भी
हमसे अलग है। वहां पर निर्देशक अपना मॉनीटर खुद लेकर चलता है। उसके पास पांच स्पॉट
ब्वॉय नहीं होते जो उसका सामान उठाएं और चाय पिलाएं। चाय भी लेनी होती है तो खुद जाकर
लेता है। कैमरामैन अपना कैमरा खुद लेकर चलता है। चार अटैंडेंट नहीं चलते, फोकस कूलर
नहीं चलता। साउंड वाला अपना साउंड का सामान खुद साथ लेकर चलता है। बारह लोगों की टीम
होती है। जब मैं इंग्लैंड गया था और डैनी बॉएल को फोन किया तो वह बोला, यार कल घर
की टंकी ठीक करूंगा, इसलिए कल नहीं मिल पाऊंगा। मैंने पूछा, आप ठीक करोगे? बोला</span>, <span lang="HI">हां कौन ठीक करेगा? उसका
</span>‘<span lang="HI">कौन करेगा</span>’<span lang="HI"> इतना स्वाभाविक था कि मेरा घर है
तो मैं ही ठीक करूंगा न? हमारे यहां ऐसा नहीं होता। मैं मुरारी को फोन करूंगा कि एक
प्लम्बर ढूंढ़ कर लाओ और टंकी ठीक करवा दो। ठीक करवाते समय भी मुरारी खड़ा रहेगा और
मेरा सर्वेंट खड़ा रहेगा। वहां पर आदमी खाना खुद बनाता है, घर खुद साफ करता है। और
जो घर साफ करते हैं या ड्रायविंग करते हैं</span>, <span lang="HI">लोगों के काम करते हैं, वो हर घंटे 20 पाउंड मतलब 1400 रुपए
एक घंटे के लेते हैं। यहां जितने भी बड़े लोग हैं, उनके घर में बाई आती है कपड़े धोने
के लिए।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">अगर वो
इतना ही आसान काम है तो खुद धो लें। वे पाले ही इसी तरह गए हैं। हमारे देश की
समस्या यह है। यहां कोई भी कोई बात खड़े होकर समझना नहीं चाहेगा, चाहे उसे कैसे भी
समझाया जाए। हर आदमी लाट साहब है। वो होटल में आकर चुटकी बजा कर वेटर को बुलाने वाला।
वहां पर जाकर देखिए कि कोई भी वेटर को चुटकी बजा कर नहीं बुलाएगा। वहां</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">वेटर का अपना व्यक्तित्व
होता है। वो आपके ऊपर कमेंट भी करेगा, आपके जोक पर हंस भी देगा और आपके ऊपर जोक भी
कर देगा। </span><br />
<br />
<span lang="HI">यहां पर तो
वेटर मतलब ऐसे ही मक्खी है, उसे फाड़ देते हैं हम लोग। यहां पर रिक्शा अगर ब्लॉक कर
दे तो लड़ जाते हैं कि रिक्शा आ गया मेरी गाड़ी के सामने। वहां पर जो पब्लिक ट्रांसपोर्ट
की गाड़ी होती है उसके लिए अलग लेन होती है।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">वे कहीं से भी यू टर्न ले सकते
हैं। आम आदमी नहीं ले सकता। यह सब बहुत अंतर है हमारी संस्कृति में, सोच में और
इसीलिए दर्शकों और समाज में भी।</span></span></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span lang="HI">
</span></span><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span lang="HI"><span lang="HI">प्रॉब्लम यह है कि हमारे यहां जब कोई बच्चा नहीं सीख रहा है तो उससे बच्चे को तोला
क्यों जाता है</span>? <span lang="HI">प्रॉब्लम
मेरा वहां है। प्रॉब्लम यह है कि आप ने मापदंड तय कर लिया है और चाहते हैं कि सब उसमें
फिट हों। मुझे उसमें दिक्कत नहीं है कि बच्चा जा रहा है और जाकर सीख रहा है। वो तो
अच्छी बात है, बहुत बढिय़ा बात है। लेकिन जो बच्चा नहीं सीख रहा है</span>, <span lang="HI">वो मेरा विषय है। जो अपनी
जिन्दगी ढर्रे पर चला रहा है, उसमें मुझे दिलचस्पी नहीं है। उसमें है, जो आदमी लीक
से हट के जा रहा है और वो कुछ भी नहीं कर रहा है जो उससे उम्मीद की जा रही है। हम क्यों
तय कर लेते हैं कि यह कुछ करेगा ही नहीं। <br />
</span></span></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span lang="HI"><span lang="HI">चीजों में परफेक्शन
क्यों होना चाहिए? जैसे मेरी फिल्मों के गानों के लिए कुछ लोग बोलते हैं कि</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">गाने एकदम सधे हुए नहीं है,
और अच्छे गाए जा सकते थे। सबसे बड़ा प्रोडयूसर बोलता है, यार ये गाना वडाली ब्रदर से
गवाओ तो एक अलग लेवल पर जाएगा। मैं कहता हूं कि लेवल पर नहीं ले जाना है मुझे। तानसेन
थोड़े न बैठा हुआ है।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">तानसेन होता तो मैं गवाता किसी आज के तानसेन से। </span>‘<span lang="HI">गैंग्स ऑफ वासेपुर</span>’<span lang="HI"> में हम लोगों ने एक हाउस वाईफ से
गाना गवाया है, वहां के लोकल सिंगर से गाना गवाया है। <br />
</span></span></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span lang="HI"><span lang="HI">एक और
दिक्कत है कि सब को हर बार सामाजिक क्रांति वाला कटाक्ष ही चाहिए। उन्हें कठोरता हजम
नहीं होती। वो जो पहले था, वो गुस्सा था। </span>‘<span lang="HI">शूल</span>’ <span lang="HI">का मनोज बाजपेयी हो या जो </span>‘<span lang="HI">पांच</span>’ <span lang="HI">में था, वो गुस्सा था, जिससे युवा जुड़ते हैं। युवाओं को बार-बार
वही चाहिए कि कोई उनके इतिहास पर बोले। उन्हें </span>‘<span lang="HI">यलो बूट्स</span>’ <span lang="HI">की कठोरता हजम नहीं होती है क्योंकि उस में कोई सामाजिक
स्टैंड लेने वाली चीज या क्रांति नहीं है। उसमें ऐसी सच्चाई है जिसे लोग स्वीकार
नहीं करना चाहते। बहुत सारे दर्शकों को दिक्कत यही रही है कि आप अपनी फिल्मों में
सेक्स को लेकर इतना असहज करने वाली बातें क्यों करते हैं? ऐसे लोग हमेशा पूछते हैं
कि आपकी सेक्स लाइफ कैसी है</span>? <span lang="HI">तो दमन उनके अंदर इतना भरा पड़ा हुआ है कि वे स्वीकार नहीं
कर पाते। कहते हैं कि यह आपका चरित्र है। मैं कहता हूं कि हम विस्थापित हैं और
हमारे विस्थापन में जिस तरह की सेक्शुएलिटी है, वही आएगी। बाहर ये चीजें इतनी नॉर्मल
है कि चीजें बाहर आती नहीं है। वह मेरी फिल्मों में है क्योंकि हमारी जिन्दगी में
है। आप सडक़ पर चले जाइए</span>, <span lang="HI">आप मंदिर-मस्जिद जाएंगे, आप देखेंगे कि कोई लडक़ी वहां से निकली
या कुछ हुआ तो अचानक लोगों की नजरें कैसे घूम जाती हैं। आप गुजर रहे होते हैं तो देखते
हैं लडक़ी को। क्यों देखते हैं</span>? <span lang="HI">वो क्या चीज है</span>, <span lang="HI">जिसे आपने दबाया है लेकिन फिर भी आप आकर्षित होते हैं। कहीं
न कहीं वो आपके अंदर है। मुझे लगता है कि सेक्शुअली मैं बाकी लोगों से ज्यादा भाग्यशाली
हूं क्योंकि मैं इस बारे में खुल कर बात कर सकता हूं। </span><o:p></o:p></span></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span lang="HI">
<span style="font-family: 'Times New Roman'; font-size: 12pt;"><br />
</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt;">जब आप चीजों को ऐसे देखते हैं कि यह गंदा है तो प्रॉब्लम हमेशा
रहेगी। लेकिन एक बात देखिए, सेक्शुएलिटी के बारे में हमेशा आदमी को क्यों परेशानी
होती है? औरतों ने कभी सवाल नहीं किया। </span><span style="font-family: 'Times New Roman'; font-size: 12pt;">‘</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt;">देव डी</span><span style="font-family: 'Times New Roman'; font-size: 12pt;">’ </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt;">या </span><span style="font-family: 'Times New Roman'; font-size: 12pt;">‘</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt;">गुलाल</span><span style="font-family: 'Times New Roman'; font-size: 12pt;">’ </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt;">देखने के
बाद मुझे औरतों ने कहीं पर आकर पकड़ कर यह नहीं बोला कि ये क्या दिखाया तुमने और क्यों
दिखाया? हमेशा आदमियों ने बोला है। यह एक तरह का तालिबान है।</span></span></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">
</span></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-10856275406709269232012-03-18T13:05:00.001-07:002012-04-05T00:27:47.887-07:00‘क्या सर सर लगा रखा है? मुझसे बात कीजिए ना!’<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIQW3paktYgqhFjmRuJINt93iuwCTmHHAm9o3GnavvptXR9X5Bxm7xkPce3U7R9Y3vfpVtM6VD9zApUGw6AEOe_Sl5tVBET4NkKIBa0YMHSPjLxAiSpIWI0FCReoEObzrZDgU3vFT-C34/s1600/kahaani.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIQW3paktYgqhFjmRuJINt93iuwCTmHHAm9o3GnavvptXR9X5Bxm7xkPce3U7R9Y3vfpVtM6VD9zApUGw6AEOe_Sl5tVBET4NkKIBa0YMHSPjLxAiSpIWI0FCReoEObzrZDgU3vFT-C34/s400/kahaani.jpg" width="400" /></a><b>एक अकेली गर्भवती औरत</b>, अनजान शहर में अपने पति को ढूंढ़ती और वह शहर भी शोर और भीड़ से भरा कोलकाता, जो उसका नाम भी अपनी मर्ज़ी से बदल देता है जैसा ये सब महानगर हम सबके साथ करते हैं, और जो उसे यक़ीन दिलाना चाहता है कि हारकर अपने घर ज़िन्दा लौट पाना भी इस हत्यारे समय में बहुत बड़ी बात है। और इस कहानी से आप सोच रहे होंगे कि अपने पति की इकलौती तस्वीर हाथ में लेकर कोलकाता की तंग गलियों में घूमती यह औरत बहुत आँसू बहाएगी, उन ‘यथार्थपरक’ फ़िल्मों की तरह, जो हमारे यहाँ फ़ेमिनिस्ट फ़िल्में बनाने का सबसे लोकप्रिय ढंग रहा है। वे फ़िल्में, जो दुनिया को आईना तो दिखाती हैं, लेकिन अपनी स्त्री को हिम्मत कभी नहीं देतीं। वे उसे डांस बार में नाचते, वेश्या बनते, कास्टिंग काउच में शरीर देकर हीरोइन बनते बार-बार दिखाते हैं क्योंकि उनमें शरीर दिखाने के बहुत मौके हैं और इस तरह ‘एंटरटेनमेंट वैल्यू’ भी, और इस तरह राष्ट्रीय पुरस्कार भी। ख़ैर छोड़िए, अब तो एक राष्ट्रीय पुरस्कार हमारी विद्या बालन के पास भी है और यह राष्ट्रीय पुरस्कारों की ज्यूरी के लिए निश्चित रूप से गर्व करने की बात है।<br />
<a name='more'></a><br />
यह सच है कि ‘कहानी’ के पास बहुत अच्छी स्क्रिप्ट और उससे भी दो कदम आगे का प्रामाणिकता से भरा निर्देशन (और प्रोडक्शन डिजाइन) है, जिसमें आप शहर की धड़कनें सुन सकते हैं, उसे अंगडाइयां लेते देख सकते हैं, उसे डरते, उदास होते, भागते और रोते हुए। लेकिन यह भी सच है कि विद्या बालन के बिना फ़िल्म का उतना ज़िन्दा होना बहुत मुश्किल होता। वे जब इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक बड़े अफ़सर को आंखों में आंखें डालकर कहती हैं कि बेहतर होगा कि वह उसे न बताए कि उसे क्या करना चाहिए तो उनकी आंखों में ‘मेरे साथ बहुत बुरा हुआ है’ वाला गुस्सा नहीं है। वे उस तरह लड़ाई लड़ती हैं जैसे हमारी फ़िल्मों में अब तक अक्सर हीरो ही लड़ा करते हैं। वे पुरुष को अपना दुश्मन नहीं मानती लेकिन यह भी नहीं कि उसके प्यार और सहारे के बिना यह कहकर चलने से इनकार कर दें कि दुनिया बहुत जालिम है। कभी-कभी इम्तियाज अली की फ़िल्में अपनी स्त्रियों को इतनी आज़ादी देती हैं या शायद सिर्फ़ बेफ़िक्री, और बाद में वे भी अकेले में अपनी नायिकाओं को बेचैन होने देती हैं। भले ही वह प्रेम के कारण हो, लेकिन ‘जब वी मेट’ की गीत जब अकेली होकर बच्चों को पढ़ाने लगती है तब भी वह पूरा समय उदास ही है। बैकग्राउंड में ‘आओगे जब तुम साजना’ की कल्पनाएँ हर बार बजनी ही हैं। लेकिन कहानी में रवींद्रनाथ टैगोर का ‘एकला चलो रे’ बजता है और सिर्फ़ बैकग्राउंड में नहीं। और अच्छा यह है कि उस ‘एकला चलो रे’ में कहीं भी पुरुषों के लिए गालियाँ नहीं हैं, बल्कि दुनिया के लिए प्यार है।<br />
<br />
फिर भी अपनी ऊपरी परत में ‘कहानी’ फ़ेमिनिस्ट फ़िल्म होने का दावा नहीं करती। यह एक रोचक रहस्य कथा है जो आपकी साँसों को अपनी मुट्ठियों के बीच दबाए रखती है और अपने कमाल के इंटरवल सीन के अलावा भी बार-बार आपको चौंकाती है। आप फ़िल्म के दौरान शंकित हो सकते हैं कि कहीं अंत में सब गड़बड़ा न जाए, लेकिन बेफ़िक्र रहिए, यह अपनी सबसे ख़ूबसूरत अदा अंत के लिए बचाकर रखती है।
<br />
<br />
फ़िल्म की कास्टिंग बहुत अच्छी है – वह आदमी, जो मारने से पहले नमस्कार बोलता है, आपके दिमाग में देर तक बैठा रह जाना है और प्यारे परमब्रता, जो इतने शरीफ़ हैं कि लगता है कि ग़लती से पुलिस में आ गए हैं। सिनेमेटोग्राफर सेतु और एडिटर नम्रता राव थ्रिलर के लिए ज़रूरी तनाव और डर बहुत अच्छे से रचते हैं। हां, फ़िल्म कुछ दृश्यों पर थोड़ा और ठहरती तो ज़्यादा मानवीय हो सकती थी।लेकिन यह कमी नहीं है और फ़िल्म के लेखक उसे लाख संभावनाओं के बावज़ूद कहीं भी सतही ढंग से भावुक और प्रत्याशित नहीं होने देते, यह बड़ी बात है।
<br />
<br />
विद्या बालन हमारे समय का सबसे बड़ा फ़िल्मी हीरो बनकर उभरती हैं। पुरुष उनके किरदार के लिए साथी भी है लेकिन कभी-कभी सिर्फ़ सारथी भी हो सकता है और अपने क्लाइमैक्स के आवेगमयी क्षणों पर हॉल में सीटियां बजवाने के लिए उन्हें न हमारे सितारे नायकों की तरह शर्ट उतारने की ज़रूरत पड़ती है और न हमारी नायिकाओं की तरह क्लीवेज दिखाने की। उनसे प्यार होता जाता है और दिल में इतना आदर उमड़ता है कि उसकी बात फिर कभी करेंगे।</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-26595872816827232612011-10-06T03:37:00.000-07:002011-10-06T03:37:24.519-07:00साहेब, बीवी और गैंगस्टर: बीवी बदली, सिनेमा नहीं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-wLFol74U22CWUwH7loCoXr9gySA7qT1U_DIw5SnPbuK_np_SsP_F7CgmK0w58TJU36xmwxl-t8EXOrg1rAN48TFc4Ys2Lgniai74WNc6TWQpXYPkMUoa20JEBa0iZMA9QnpxjYlBhzk/s1600/1795%2528800x600%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-wLFol74U22CWUwH7loCoXr9gySA7qT1U_DIw5SnPbuK_np_SsP_F7CgmK0w58TJU36xmwxl-t8EXOrg1rAN48TFc4Ys2Lgniai74WNc6TWQpXYPkMUoa20JEBa0iZMA9QnpxjYlBhzk/s320/1795%2528800x600%2529.jpg" width="320" /></a><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><b>तिग्मांशु के पास</b>
माहौल बहुत सारे लोगों के सिनेमा से अलग है। ज़मीन, जंगल और हवेली, तीनों को वे
अच्छे से पहचानते हैं लेकिन इनके साथ कहानी कैसे कहनी है, यह शायद उतने अच्छे से
नहीं। उनके अपने प्रशंसक हैं जो उत्तर प्रदेश के अपराध और राजनीति के गठजोड़ की
कहानियों के लिए उन्हें उम्मीद भरी नज़रों से देखते हैं और कुछ दफ़ा मुझे भी लगा है
कि शायद उनके सिनेमा में वाकई ऐसा कुछ अद्भुत हो जो उन्हें मेरे पसंदीदा
निर्देशकों में से एक अनुराग कश्यप के पसंदीदा निर्देशकों में से एक बना देता है।
लेकिन वह जो भी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अद्भुत</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> है, मैं उसे पकड़ नहीं पाया। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साहेब बीवी और
गैंगस्टर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> औसत से अच्छी तो है
लेकिन उससे ज़्यादा नहीं।</span></div>
<a name='more'></a><br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तिग्मांशु के पास
खुरदरापन तो है लेकिन वो उसे अपनी वज़हों तक कभी नहीं ले जाता। इसलिए वो अक्सर मुझे
लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा की शहरी-एनआरआई प्रेम कहानियों के बिल्कुल विलोम की तरह
लगता है। दोनों एक खास जगह की खास तरह की कहानियाँ कहते हैं जो उसी जगह और माहौल
के लोगों को ज़्यादा अच्छी लगती हैं। दोनों कहानियों और सिनेमा की आत्मा की बजाय
उसके जिस्म के मेकअप में ज़्यादा यक़ीन करते हैं। एक जगह महंगी कारें और
स्विट्जरलैंड वह मेकअप करते हैं और दूसरी जगह छोटे शहर, उनकी भाषा और धांय धांय
गोलियाँ और इस बार तो पुरानी हवेली और राजा भी। मेरे ख़याल से जैसे कोई फ़िल्म सिर्फ़
इसलिए अच्छी नहीं हो सकती कि वह स्पेन या स्विट्जरलैंड को अच्छे से दिखाती है,
वैसे ही सिर्फ़ इसलिए भी अच्छी नहीं हो सकती कि यूपी या पंजाब को अच्छे से दिखाती
है। कम से कम पहली बार के बाद तो नहीं। यह उसकी एक ख़ूबी ज़रूर हो सकती है लेकिन
उतनी ही बड़ी जितनी अच्छे खाने में अच्छी थाली होती है। यहां ये बात भी जोड़ी जाए कि
इस फ़िल्म की भाषा उस तरह से किसी ख़ास ज़मीन से नहीं जुड़ी, जिस तरह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ओमकारा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> जुड़ी है या दिबाकर की फ़िल्में दिल्ली की भाषा से जुड़ी
हैं। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साहेब, बीवी और गैंगस्टर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के डायलॉग बहुत मज़ेदार हैं और फ़िल्म की बड़ी
ताकत हैं लेकिन इतने भी नहीं कि वे अकेले पूरी फ़िल्म का बोझ उठा लें।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जो </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शागिर्द</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में बिल्कुल नहीं था, इस बार तिग्मांशु ने संगीत को
इस्तेमाल करने की अच्छी कोशिश की है और इंटरवल से तुरंत पहले जब </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं इक भंवरा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बहना शुरू होता है तो आप उसके साथ बहते हैं। फ़िल्म के
पास </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जुगनी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> भी है और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अंखियां</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साहेब बड़ा हठीला</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> भी और इनमें से किसी भी गाने के बारे में
उतनी बात नहीं हुई है, जितनी के वे हकदार हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फ़िल्म </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साहेब, बीवी और गुलाम</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का एडप्टेशन है। और इसमें कुछ बातें ख़ुश करने वाली
हैं। गुलाम अब बेचारा लगने वाला गुरुदत्त नहीं रहा जो नौकरी की तलाश में शहर आया
है और साहेब की हवेली की भव्यता को देखकर ही सहम जाता है। वह आपकी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्लास</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में भले ही शामिल न हो पाया हो लेकिन बीते कुछ दशकों में उसने बन्दूक
चलाना सीखा है और उसकी नज़र आपके जूतों पर नहीं, पगड़ी पर है। अब भी उसे घुसते ही
बताया जाता है कि आपसे नज़रें न मिलाए और हो सकता है कि वह अब भी न मिलाए, लेकिन
उसके दिल में न आदर है और न डर। संजय चौहान और तिग्मांशु ने इस परिवर्तन को बहुत
अच्छे से पकड़कर रखा है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन साहेब नहीं
बदले। बस वे अब चुनाव लड़ने लगे हैं। उन्हें अब भी ग़लती करने वाले का नाम ढ़ाई सौ
रुपए की गोली से रोशन करना ही सबसे ठीक विकल्प लगता है और उनकी रातें दूसरी औरत के
घर ही बीतती हैं। अलग ये है कि हमारे सिनेमा को व्यभिचार को अब इशारों में नहीं
दिखाना पड़ता। तिग्मांशु चाहें तो कितनी भी बार उस दूसरी औरत की पीठ और क्लीवेज
दिखा सकते हैं। पहली औरत की भी। तीसरी और चौथी औरत की भी। सेक्स को कैसे दिखाना है,
यह उनका अपना सौंदर्यबोध और मन तय करेगा और उस पर मैं कुछ भी कहूं तो लग सकता है
कि मैं सेंसर का एजेंट हूं। और वैसे भी त्वचा जितनी दिखती है, दर्शक उतने ही ख़ुश
होते हैं। और मुझे भी भला क्यों बुरा लगेगा, लेकिन आप इस ढंग से वक्ष दिखाते हुए उत्तेजित
तो कर सकते हैं लेकिन सिनेमा की वो खूबसूरती पैदा नहीं कर सकते, जो </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नो स्मोकिंग</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के बिस्तर के एक सीन में दो हाथों का मिलना पैदा कर
देता है। शायद एक वज़ह यह भी हो कि तिग्मांशु के पास राजीव रवि नहीं हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन जो भी हो,
तिग्मांशु डीटेल्स पर उतना ध्यान नहीं देते। वे छोटी चीजों को दिखाना पसंद नहीं
करते। उनकी फ़िल्म अपने दृश्यों की गहराई और घटनाओं की परतों पर नहीं, सीधे घटनाओं
पर ही टिकी है लेकिन वे क्लाइमैक्स में ऐसी ग़लतफ़हमियों का सहारा लेते हैं, जो टीवी
के धारावाहिकों में ज़्यादा दिखती हैं। लगभग वैसी ही ग़लतफ़हमियाँ और विश्वासघात,
जैसे विशाल भारद्वाज की अच्छी फ़िल्मों में होते हैं लेकिन यहाँ वे आपके गले नहीं
उतरते। सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि फ़िल्म इतनी जल्दी में रहती है कि आप चौंक तो
सकते हैं लेकिन उसके किरदारों के लिए ख़ुश या दुखी नहीं होंगे (<i>लेकिन यह ख़ुश या
दुखी होना ज़रूरी भी है क्या? तेज तो </i></span><i>‘</i><i><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ये साली ज़िन्दगी</span>’</i><i><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> भी है लेकिन यह उसकी खूबी लगती है</span></i><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">)। वह भी तब, जब माही गिल को छोड़कर फ़िल्म के
लगभग सभी मुख्य किरदार पूरा समय अच्छी एक्टिंग करते हैं। माही गिल कई दृश्यों में
नहीं जानतीं कि उन्हें करना क्या है। ख़ासकर पागलपन के अपने दौरों में और भीतर तक
बसे उस दुख में, जिस पर मीना कुमारी मील का पत्थर लगा गई हैं। मेरी आशंका के उलट
रणदीप हुडा अपने रोल को निभा ले जाते हैं। गेंदासिंह बने विपिन शर्मा ख़ुश करते
हैं। फ़िल्म की एक और अच्छी बात यह है कि यह अपने सब किरदारों के साथ आपको वक़्त
गुज़ारने देती है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फ़िल्म की बीवी के
बारे में मैं सबसे आख़िर में बात करना चाहता था। बीवी एक तरफ़ बहुत बदली भी है और
दूसरी तरफ़ बिल्कुल भी नहीं बदली। इस किरदार को भी तिग्मांशु और संजय ने ग़ुलाम या
गैंगस्टर की ही समझदारी से गढ़ा है। वह प्यार के लिए तरसती तो है लेकिन उस तरह टसुए
बहाती हुई </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ना जाओ सैंया</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> नहीं कहती बल्कि पागल होकर चिल्लाती है। उसे
गोली चलाना आता है और वह किसी खोखली शारीरिक नैतिकता और समर्पण के भ्रम में
ज़िन्दगी नहीं गुज़ार रही। तिग्मांशु के सिनेमा का एक आइकॉनिक दृश्य वह है, जिसमें
माही और रणदीप एक दूसरे को बेतहाशा चूम रहे हैं और दोनों के हाथों में पिस्टल हैं।
वहाँ फ़िल्म कविता को छूती है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन अफ़सोस, ऐसा
एकाध बार ही होता है। <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-16172749240543435512011-09-13T03:57:00.000-07:002011-09-13T04:06:11.638-07:00The Insider: एक आदमी जो ज़्यादा जानता था<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpUvCRyOzuGaLIypqF5JokzREm1afzk-RNkT-ul613aE9w-dUakQz3d59Kn9u8RjvJg7oL2C1Lt7Ez-SHcaIpLG7LFESscSLnjWP_GTLrPre11io1ZvMCziZhzhhDXhGIXbMN8By-4jXg/s1600/The+insider.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="138" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpUvCRyOzuGaLIypqF5JokzREm1afzk-RNkT-ul613aE9w-dUakQz3d59Kn9u8RjvJg7oL2C1Lt7Ez-SHcaIpLG7LFESscSLnjWP_GTLrPre11io1ZvMCziZhzhhDXhGIXbMN8By-4jXg/s320/The+insider.jpg" width="320" /></a></div>
अच्छी थ्रिलर बनाना तब और मुश्किल हो जाता है जब आपको ना किसी की हत्या की गुत्थी सुलझानी हो और ना पैसा और जीत जैसे किसी प्रत्यक्ष <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/MacGuffin">मैकगफ़िन </a>के पीछे भागना हो। इस ख़ूबसूरत फ़िल्म में निर्देशक <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Michael_Mann_(director)">माइकल मैन</a> और उनके साथ इस फ़िल्म को लिखने वाले लेखक <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Eric_Roth">एरिक रोथ</a> बहुत स्वाभाविक ढंग से तनाव पैदा करते हैं। एक सच्ची कहानी, कॉर्पोरेट, पत्रकारिता और एक वैज्ञानिक की, जो बहुत आसानी से किसी उबाऊ रपट जैसी बन सकती थी, उसमें आप भावुक होते हैं और बार-बार परेशान होते हैं कि किसी भी कीमत पर सच के साथ खड़े होने वाले लोगों को हमने इतना अकेला क्यों छोड़ दिया है।<br />
<br />
इसे देखने के बाद आप और गहराई से जानेंगे कि कैसे 'हमेशा आपके साथ' जैसी टैगलाइनों और प्यारे बच्चों की मुस्कुराहटों वाले विज्ञापन देने वाली कम्पनियाँ आपकी जान को मिट्टी जितना महत्व भी नहीं देतीं, आज़ाद प्रेस का मतलब क्या है और जब जब आप चैन की साँस लेते हैं, बाहर धूप या बारिश में कितने लोग उन सचों को सामने लाने के लिए अपनी साँसें रोककर रिपोर्टिंग करते हैं और गवाहियाँ देते हैं, जो आपके ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी हैं।<br />
<br />
इस फ़िल्म की बात इसके संगीतकारों <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Pieter_Bourke">Pieter Bourke</a> और <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Lisa_Gerrard">Lisa Gerrard</a> के काम से मोहब्बत हो जाने की बात कहे बिना ख़त्म नहीं की जा सकती। और ना ही <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Russell_Crowe">Russell Crowe</a> के गले लगने की ख़्वाहिश पैदा किए बिना।<br />
<br />
जिस रिपोर्ट पर यह फ़िल्म बनी है, उसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं- <a href="http://mariebrenner.com/PDF/TheManWhoKnewTooMuch.pdf">The Man Who Knew Too Much</a><br />
<br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">The Insider (1999)</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">English</span><br />
<div style="text-align: -webkit-auto;">
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">Director- Michael Mann</span></div>
<div style="text-align: -webkit-auto;">
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">Writer- Eric Roth, Michael Mann, Marie Brenner</span></div>
<div style="text-align: -webkit-auto;">
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">Cast- Russell Crowe, Al Pacino</span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-59892443265968995052011-07-25T09:40:00.000-07:002011-09-13T04:11:13.389-07:00Still Walking: "मैंने माँ को कभी कार में नहीं बिठाया"<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFvLZEMzquNd21yS6mV43V4MZHRjROHNTZUaukNyavGvZWcx7GPnMh4sfIOryLUa-G_OkT0ohs4CF4vjqenTniLK68Ab3wJt5vEWtZPSIAhefuVeH7TGy5aFH884Eh_s_W9JyX-hTEJK0/s1600/Still+Walking.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="176" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFvLZEMzquNd21yS6mV43V4MZHRjROHNTZUaukNyavGvZWcx7GPnMh4sfIOryLUa-G_OkT0ohs4CF4vjqenTniLK68Ab3wJt5vEWtZPSIAhefuVeH7TGy5aFH884Eh_s_W9JyX-hTEJK0/s320/Still+Walking.png" width="320" /></a></div>
एक बेटा है जो छोटे शहर में अकेले रहने वाले माता-पिता से मिलने जाता है, एक रात के लिए। बस उन चौबीस घंटों की बड़ी कहानी। पिता, जो तब अख़बार पढ़ते रहते हैं जब सब फ़ैमिली फ़ोटो खिंचवा रहे हैं। माँ, जिसने उस एक रात के लिए बेटे के लिए पाजामा खरीदकर रखा है और बेटा अपने साथ लाए कपड़े ही पहनना चाहता है। माँ, जो मज़ाक में अपनी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना बताती है कि उसका दिल करता था कि अपने बच्चों की कार में बैठकर शॉपिंग करने जाए। यह बच्चों के लिए छोटी बात है। इतनी आसान कि कहते हैं, कभी भी चलो। लेकिन कब?<br />
<br />
इन सबके बीच में ही गहरा दुख बैठा हुआ है। अन्दर कहीं जमा हुआ, जिसमें बाथरूम की पुरानी टाइलों की तरह धीरे-धीरे अन्दर कुछ टूटता जाता है। हम सबके दुख, जिनसे हमें ठीक से नज़रें मिलाना भी नहीं आता। यह भी नहीं आता कि अगली सुबह बस अड्डे पर छोड़ने आए माँ बाप से विदा लेंगे तो क्या कहेंगे? कौनसी बात है जो उन्हें तसल्ली दे सकेगी कि जब वे मरेंगे तो अकेले नहीं होंगे? क्या हमीं को ख़ुद पर यक़ीन है?<br />
<br />
इसे देखने से मत चूकिए। यह rare फ़िल्म है।<br />
<br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">Still Walking (<span class="Apple-style-span" style="line-height: 19px;"><i>Aruitemo Aruitemo</i></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">) - 2008<br />
Japanese</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">Director- Hirokazu Koreeda</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">Cast- Hiroshi Abe, Yui Nutsukawa, You</span></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-86742638727377014332011-07-05T21:06:00.000-07:002011-07-05T21:09:40.426-07:00कांति शाह के पास पैसा होता तो वे Delhi Belly से बेहतर फ़िल्म बनाते<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiky6lVHUeI-ycZVBAC1yDHetiYpVkgt1xT8flUANdIX0HvofZZTqXneVpXVriKM72iqF-LJ_t5v14rlJlg-jQaRv4hWZGG8AumIIrYnbOcweJOgX2CzbeSQ8N8TXhqdYjq2HWwmnxAJq8/s1600/Delhi+Belly+Movie+Review.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="220" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiky6lVHUeI-ycZVBAC1yDHetiYpVkgt1xT8flUANdIX0HvofZZTqXneVpXVriKM72iqF-LJ_t5v14rlJlg-jQaRv4hWZGG8AumIIrYnbOcweJOgX2CzbeSQ8N8TXhqdYjq2HWwmnxAJq8/s320/Delhi+Belly+Movie+Review.jpg" width="320" /></a></div><div class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal;">मैंने कुछ साल पहले एक बच्चे को बाकी बच्चों को एक चुटकुला सुनाते देखा और सुनाने से पहले सुनाने वाले ने बाकी बच्चों से यह कहा कि सुनने के बाद जो नहीं हँसा, वह बेवकूफ़ होगा। चुटकुला पूरा हुआ और कई बच्चे हँसे।</span> </div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आमिर ख़ान ने अपनी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">महान</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> फिल्म के प्रचार के दौरान भी ऐसा ही कुछ कहा कि पकाऊ और खूसट लोगों को यह फ़िल्म पसंद नहीं आएगी। यह लगभग ऐसा ही है कि कचरा दिखाने से पहले कहा जाए कि आपको यह सुन्दर नहीं लगा तो आपको ख़ूबसूरती की समझ नहीं है। </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डेल्ही बैली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> से जुड़ी हँसने की यही इकलौती बात है कि कोई आदमी, चाहे वह कितना भी बड़ा स्टार क्यों न हो, दर्शकों को इतना बेवकूफ़ कैसे समझ सकता है।</span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नहीं जी, हमें गालियों से कोई प्रॉब्लम नहीं है और न ही किसी ऐसी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">चमत्कारिक</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> नई चीज से, जिससे अक्षत वर्मा और अभिनय देव हमें चौंकाना चाहते हैं। हम हर नई चीज के लिए बाँहें फैलाकर बैठे हैं और कब से इस इंतज़ार में हैं कि यहाँ भी कोएन ब्रदर्स या टैरंटिनो की भाषा का इस्तेमाल करके अच्छी फिल्में बनें। लेकिन आपके इस </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नई तरह के सिनेमा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के क्रांतिकारी नारे से हमें ऐतराज़ है। क्योंकि आपके पास कहने को तीन भी ग्राम नई बात नहीं है और बाकी चीजें तो आप भूल ही जाइए। </span></div><a name='more'></a><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आपने बस पिछले कुछ सालों की विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी और राजकुमार गुप्ता इत्यादि की कुछ फिल्में देख ली हैं और अपने मन में यह भ्रम पाल लिया है कि ऐसी फिल्में बनाना तो चुटकियों का खेल है। करना क्या है कि पुरानी दिल्ली में चले जाते हैं। पैसा तो मामाजी के पास खूब है ही इसलिए कहीं भी शूटिंग कर सकते हैं। परमिशन लेने में भी ज़्यादा दिक्कत नहीं आएंगी और इसलिए देव डी की तरह कार में कैमरे छिपाकर भी शूटिंग नहीं करनी पड़ेगी। फिर एक घर दिखाते हैं, जिसकी छत टूटने वाली हो। एक स्कूटर भी चाहिए बिल्कुल कबाड़ जैसा। कहीं कहीं कुछ </span>catchy <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पोस्टर और साइनबोर्ड भी लगा देंगे। कोई आदमी हमारे तीन नायकों के लिए स्लोगन वाली टीशर्ट खरीद लाएगा। कई शॉट ऐसे भी लेंगे जिनमें बिजली के तारों का जंजाल उभरकर दिखे। फिर जब सड़क की भीड़ में भागने का कोई सीन दिखाना होगा, तब छत पर से उन्हें देख रहे लोगों के क्लोज अप बिल्कुल </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आमिर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की तरह दिखाएँग़े। (हालाँकि जितना मुझे याद है, वहाँ भी ऐसे सीन बिल्कुल ओरिजिनल नहीं थे, लेकिन इन सब पर बाद में) एक जौहरी को दिखाना है तो उसे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">खोसला का घोंसला</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के ब्रोकर के किरदार से उठा लेते हैं। और ओमकारा में इतनी गालियाँ थीं यार, शायद इसीलिए उसकी </span>critics <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ने इतनी तारीफ़ की तो ऐसा करते हैं कि जहाँ भी कुछ और कहने को न मिले, एक गाली डाल दो। (और दुर्भाग्य से कहने को बहुत कम ही मिलता है, इसलिए हर चुटीले डायलॉग की कमी किसी निर्दोष गाली को ही पूरी करनी पड़ती है)</span></div><br />
<div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शायद अक्षत और अभिनय को लगा कि इस तरह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भारतीय नए सिनेमा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का पूरा पैकेज एक साथ तैयार हो जाएगा और जब बदलाव लाने वाले फिल्मकारों की गिनती हुआ करेगी तो हमारा नाम भी उसमें जुड़ जाएगा। लेकिन सर, अच्छी फिल्में बनाना इतना ही आसान होता तो हर वो आदमी ऑस्कर जीत चुका होता, जो अच्छा आर्ट डायरेक्टर अपने साथ जोड़ सकता है।</span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">विशाल, अनुराग या दिबाकर की नकल पर यह एक ज़मीनी फ़िल्म बनाने की कोशिश है लेकिन हुज़ूर, ऐसा बार-बार ज़मीन या मटमैली दीवार दिखाने से नहीं होता। ऐसा उस सीन से भी नहीं होता, जब आपका नायक बाथरूम में जंजीर खींचता है और टंकी पर लगा लोहे का ढक्कन उसके सिर पर आ गिरता है। ऐसा घर, जो कभी भी टूट सकता है और उसका किराया वे नहीं दे पा रहे। यह बात और है कि उनमें से एक बड़े अंग्रेज़ी अख़बार का जर्नलिस्ट है और दूसरा फ़ोटोग्राफ़र और तीसरा एक कंपनी में कार्टूनिस्ट है। वे इतने गरीब हैं लेकिन उनके उसी टूटे फूटे बाथरूम में महंगे साबुन और शेविंग क्रीम रखे हैं। पता नहीं, कैसा कॉम्बिनेशन है! </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal">‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डेल्ही बैली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> हर वो आदमी बना सकता है, जिसके पास बहुत सारे पैसे, दस गालियों को कहने का सलीका और ऊपर लिखे निर्देशकों की एक-एक फिल्म की डीवीडी हो। साथ में छिपाकर रखी गई कांति शाह की </span>Z <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ग्रेड फ़िल्मों की भी (गुंडा, लोहा, डुप्लीकेट शोले, शीला की जवानी आदि आदि)। </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डेल्ही बैली भारतीय समाज के टैबुओं से मुनाफ़ा कमाने के लिए बनाई गई फ़िल्म है। हॉल में दर्शक गालियों के अलावा बस एक या दो बार ही हँसते हैं। लेकिन गालियों पर वे ऐसे प्रफुल्लित होते हैं, जैसे कितना मज़ा आ गया। जबकि उन्हीं गालियों को वे अपने जीवन में किसी का अपमान करने के लिए या आदत की तरह ही इस्तेमाल करते हैं। लेकिन बड़े पर्दे पर बड़े सितारों को वही गालियाँ देते सुनना न जाने उन्हें कौनसा रस दे जाता है। मेरे ख़याल से दर्शक में जितनी सेक्सुअल कुंठाएँ होंगी, उसे यह फिल्म शायद उतनी ही अच्छी लगे। मैंने आज तक विश्व सिनेमा के किसी भी निर्देशक को गालियों का चुटकुले की तरह इस्तेमाल करते नहीं देखा। वहाँ वे इतने स्वाभाविक ढंग से आती हैं और बस कहानी या डायलॉग के एक हिस्से की तरह ही रहती हैं। </span>Scorcese <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">की </span>GoodFellas <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">में 300 बार </span>Fuck <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बोला गया है और तब भी बहुत संभव है कि आप घंटों उसके बारे में बात करें और गालियों की बात ही न करें। इसीलिए </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डेल्ही बैली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> अपने देसी अंदाज़ के गानों के बिना भी उतनी ही भारतीय है- अपनी भारतीय कुंठाओं के कारण। </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal">‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डेल्ही बैली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के तीन नायकों में से एक से जब एक वेश्या अपना मेहनताना माँगती है तो वह उसके स्तन दबाकर चला आता है। लोग झूम उठते हैं। यही तो है, जो वे लगभग हर औरत के साथ सार्वजनिक रूप से कब से करना चाह रहे थे और अब फिल्म में ये हो रहा है। और क्या चाहिए? </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसके अलावा फिल्म के एक नायक के पादने का दृश्य दस बार है और आप चाहें या न चाहें, आमिर ख़ान चाहते हैं कि यही नया भारतीय सिनेमा बने।</span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8Ah83e79q2L2JQMYxU-Gl5MQzrty3dwYTGkbXBF7dFbRgno9M6-sydUM_4kQb6KOEBEVbh5YtZDw2swrLCE9gzW6BvPhNMLh3lautEly4w4gmb0tN-CVTJUZ2YUxwiA0COcRscvvyQew/s1600/poorna-jagannathan-delhi-belly.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8Ah83e79q2L2JQMYxU-Gl5MQzrty3dwYTGkbXBF7dFbRgno9M6-sydUM_4kQb6KOEBEVbh5YtZDw2swrLCE9gzW6BvPhNMLh3lautEly4w4gmb0tN-CVTJUZ2YUxwiA0COcRscvvyQew/s200/poorna-jagannathan-delhi-belly.jpg" width="143" /></a><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फ़िल्म को संगीतकार राम संपत ही कुछ मिनट के लिए झेलने लायक बनाते हैं। इमरान ख़ान के बारे में बात करना उन्हें वह महत्व देना होगा, जिसके वे क़ाबिल नहीं हैं। तीनों नायकों में वीर दास ही कुछ बेहतर हैं। विजय राज के पास बहुत सारा स्टाइल तो है लेकिन बिना अच्छे डायलॉग्स के वो जाया हो जाता है। शहनाज़ का इस्तेमाल उनकी हँसी और क्लीवेज दिखाने के लिए ही हुआ है। औरतों को भोगने के सामान से तिनका भर भी ज़्यादा न समझती इस फ़िल्म में पूर्णा जगन्नाथन ही अपने किरदार को थोड़ी सौम्यता देती हैं। </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मैं सिनेमाहॉल में बहुत कुछ सहन कर चुका आदमी हूँ, फिर भी फिल्म की पहली दस मिनट के बाद ही मेरा हॉल में से उठ आने का मन हुआ। फ़िल्म </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डबल धमाल</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> या अनीस बज़्मी की किसी भी फ़िल्म जितनी ही कॉमेडी या स्तरीय है, यह तो अलग बात है। बड़ा दुख यह भी नहीं कि यह मिथुन की </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">गुंडा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> + </span>Mise-en-scene <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">से ज़्यादा कुछ नहीं है। सबसे ज़्यादा गुस्सा तब आता है, जब यह आपकी पसंदीदा फ़िल्मों की शैली की भोंडी नकल करते हुए महान बनने की कोशिश करती है। </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal">‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">डेल्ही बैली</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> उतनी ही खराब है, जितनी कोई फ़िल्म हो सकती है। इसे बार-बार बुरा बताया जाना चाहिए। </span></div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-64895704526333553542011-07-02T09:43:00.000-07:002011-07-01T21:13:45.675-07:00The Breakfast Club: "जब आप बड़े होते हैं तो आपका दिल मर जाता है"<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWYgvIKciFovGCG3cFJAR4ELXwRjcoN0hIzpl60WUDB98VKeo69RpZwzi0ekg6yCLVWdMz5e0gpsCU80VQNfhWaoOy8IHAhJduMk-_U4UUU2whX83Pqv-tsQ-j4sR5pFOe34j1vfxgZHE/s1600/the-breakfast-club-571857l.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWYgvIKciFovGCG3cFJAR4ELXwRjcoN0hIzpl60WUDB98VKeo69RpZwzi0ekg6yCLVWdMz5e0gpsCU80VQNfhWaoOy8IHAhJduMk-_U4UUU2whX83Pqv-tsQ-j4sR5pFOe34j1vfxgZHE/s400/the-breakfast-club-571857l.jpg" width="400" /></a></div><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;">एक दिन की कहानी। छुट्टी का एक दिन, लेकिन स्कूल में। पाँच किशोर जिन्हें उनकी दुनिया उसी नज़र से देखना चाहती है जो नज़र उसने ख़ुद बनाई है। यह आसान है ना कि एक को पढ़ाकू समझ लें और दूसरे को सुन्दर लेकिन बेवकूफ़। और चूंकि वे सिर्फ़ वही स्टीरियोटाइप नहीं हैं, जो आपने गढ़े हैं तो नियम तो टूटेंगे ही। तब आप फ़िक्र करेंगे कि बीस साल बाद दुनिया का क्या होगा जब हम बूढ़े हो जाएँगे और ये बच्चे देश चलाएँगे। यह बच्चों और किशोरों के साथ हमारे समाज के दोगले व्यवहार की प्यारी सी कहानी है। कि कैसे आपने अपनी कुंठाओं को खत्म करने के लिए उनका इस्तेमाल किया है, कैसे अपनी नाकामियों का ग़म भुलाने को आप अपनी उम्मीदें उनके सिर पर लाद देते हैं और फिर जब वे कहते हैं कि आपने उन्हें कुचल दिया है तो आप कहते हैं - </span><span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;">"हमने बच्चों के लिए क्या क्या किया और अब वे सब भूल गए।" </span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;"> शुक्र मनाइए साहब कि भूल गए। जो आपने उनके साथ किया, वही लौटाते तो क़यामत ना आ जाती? </span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;">The Breakfast Club (1985)</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;">English</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;">Director- John Hughes</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', sans-serif;">Cast- <span class="Apple-style-span" style="-webkit-border-horizontal-spacing: 5px; -webkit-border-vertical-spacing: 5px; line-height: 17px;">Emilio Estevez, </span><span class="Apple-style-span" style="-webkit-border-horizontal-spacing: 5px; -webkit-border-vertical-spacing: 5px; line-height: 17px;">Molly Ringwald, </span><span class="Apple-style-span" style="-webkit-border-horizontal-spacing: 5px; -webkit-border-vertical-spacing: 5px; line-height: 17px;">Judd Nelson, </span><span class="Apple-style-span" style="-webkit-border-horizontal-spacing: 5px; -webkit-border-vertical-spacing: 5px; line-height: 17px;">Anthony Michael Hall, </span><span class="Apple-style-span" style="-webkit-border-horizontal-spacing: 5px; -webkit-border-vertical-spacing: 5px; line-height: 17px;">Ally Sheedy</span></span></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-2084303477365018812011-06-14T22:49:00.000-07:002011-06-14T22:49:27.845-07:00अपने ही रचे हुए शोर में भटकी शैतान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTlg1x1Dogb3h3kd1pWNE0GnMv8tG4FXGzZt1uBAMCbVvIB2aCqRs_K7Wt96v1uGngqAS3ltttd-E59eCRe0ERYNKKkx52fkEbY_q0rCOXZ9D_TjlUgiUgKsObuGCMXFa4AdYBjlXEib0/s1600/shaitan-2011.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTlg1x1Dogb3h3kd1pWNE0GnMv8tG4FXGzZt1uBAMCbVvIB2aCqRs_K7Wt96v1uGngqAS3ltttd-E59eCRe0ERYNKKkx52fkEbY_q0rCOXZ9D_TjlUgiUgKsObuGCMXFa4AdYBjlXEib0/s320/shaitan-2011.jpg" width="221" /></a></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शैतान का एक छोटा सा हिस्सा है जिसमें कहानी फ्लैशबैक के अन्दर फ्लैशबैक में जाती है और दो-चार मिनट में ही आपको दिखाती है कि एक अमीर पिता की औलाद ने अपने पिता से पैसे ऐंठने के लिए क्या किया। कहानी को सुनाते हुए आपको बताते रहना कि हम कहानी सुना रहे हैं और उसकी संरचनात्मक बातें मज़ेदार ढंग से अपने दर्शकों के साथ बाँटना, यह बहुत कम कहानियों में होता है। हिन्दी फिल्मों में तो ऐसी कोई </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नई लहर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> शायद अब तक नहीं आई जिसमें पात्र अपनी कहानी के स्पेस से बाहर आकर अचानक कैमरे से बातें करने लगें या अपने दर्शकों को इतना समझदार मान लें कि कहानी कहते हुए उसके बनने की प्रक्रिया के बारे में बात करने की हिम्मत करें।</span></div><a name='more'></a><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">तो शैतान की सबसे बड़ी खासियत यही है कि उन चार-पाँच मिनट में यह उस </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नई लहर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में डुबकी लगाती है। आप चौंकते हैं, बेहद ख़ुश होते हैं और सोचते हैं कि काश, पूरी फिल्म ही ऐसी होती तो क्या कमाल होता!</span><br />
<div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन ऐसा नहीं है। खासकर इंटरवल के बाद तो धीरे धीरे शैतान अपनी हरकतों के लिए शर्मिन्दा सी होने लगती है। उसकी सब शैतानियाँ अपना सामान समेटने लगती हैं और आखिर तक जाते जाते वह अपने उन सब दावों को धोखा दे जाती है जो हमें यह उम्मीद दिखा रहे थे कि यह भारत में अपनी तरह की पहली फिल्म होगी। हाँ, यह हो सकती थी और कुछ हिस्सों में है भी लेकिन हिस्से काफ़ी नहीं होते और कोई फिल्म क्या कह रही है, यह उसके निष्कर्ष से शायद ज़्यादा पता चलता है। कहीं न कहीं आखिर में </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शैतान</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> अपने होने पर </span>apologetic <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">है। मैं यह नहीं चाहता कि यह ड्रग्स और दिग्भ्रमित युवाओं का समर्थन करती लेकिन आखिर में यह रूटीन की मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय ज़िन्दगी का समर्थन करती है। उस बहन का, जो अपनी छोटी बहन से ज़बरदस्ती मॉडलिंग करवाती है। उस पिता का, जो माँ खो चुकी अपनी बेटी को बारह साल तक भी उस दुख से बाहर निकालने में कामयाब नहीं हो पाया, जो समझाता कम, डाँटता ज़्यादा है और फिल्म कहना चाहती है कि वह बहुत फ़िक्रमन्द है। शैतान आखिर में सब सामाजिक चीजों के साथ खड़ी हो जाती है। यहाँ तक कि पुलिस के भी साथ। यह समाज के आगे व्यक्ति के हारने की कहानी है और ऐसा असल में होता भले ही हो, लेकिन यह चुभता इसलिए है कि फिल्म उसे आदर्श अंत की तरह पेश करती है। तब यह उन अनुभवों की कहानी बन जाती है जिन्हें लेखक-निर्देशक खुद ठीक से नहीं पहचानते। उनकी बारीकियों में न उतर पाने की अपनी कमी को वे शोर और सिनेमेटोग्राफी से छिपा लेना चाहते हैं।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span style="mso-spacerun: yes;"><br />
</span></span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शैतान की तेज शुरुआत बहुत सारी नई चीजें भी लेकर आती है। खासकर अपनी सिनेमेटोग्राफी में। लगभग सब मुख्य किरदारों के पहले सीन उन्हें उल्टा देखने से शुरू होते हैं। एक अलग एंगल से दुनिया को देखने वाले युवाओं की कहानी के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता था? बिजॉय इस फिल्म को बहुत बड़े बजट की बनाना चाहते थे लेकिन आखिर उन्हें कम में बनानी पड़ी। मगर सिनेमेटोग्राफर मैडी कहीं भी उस कम बजट वाली बात को महसूस नहीं होने देते। सिनेमेटोग्राफी के बाद फिल्म का संगीत सबसे ज्यादा मोहता है। अनुराग से किसी भी तरह जुड़ी फिल्मों ने पिछले कुछ सालों में संगीत को जिस तरह फिल्मों में चार क्या दस-बारह चाँद लगाने के लिए इस्तेमाल किया है, वह काबिले तारीफ़ है। इसी जगह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शैतान</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">देव डी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के सबसे करीब खड़ी होती है। चार पाँच लोग पुलिस से बचते हुए छतों पर भाग रहे हैं और पीछे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">खोया खोया चाँद</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बजता है। ऐसा ही असर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फरीदा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">साउंड ऑफ शैतान</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> पैदा करते हैं।</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अपने शोर और चकाचौंध के बीच शैतान दरअसल खालीपन की फ़िल्म है। उन युवाओं की कहानी जिन्हें अपने दुख दुनिया के सबसे बड़े दुख लग रहे हैं और जिनके लिए उन्हें अपने परिवार और आसपास की दुनिया ज़िम्मेदार लग रही है। हम सब भी किसी न किसी रूप में उस गुस्से को महसूस कर चुके हैं या कर रहे हैं। शैतान के युवा उस गुस्से को निकालने के लिए असल दुनिया से बाहर आकर कुछ दोस्तों की एक अलग दुनिया बनाते हैं और इस तरह उस कबूतर की तरह हो जाते हैं जो आँखें बन्द करने के बाद सोचता है कि बिल्ली उसे नहीं खाएगी। </span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इस आँखें बन्द करने के बाद की अपनी बन्द रंगीन दुनिया में वे हीरो हैं। अय्याशी उनका राष्ट्रगान है। लेकिन इस दुनिया में रहना हमेशा संभव नहीं है। शैतान बाहर की दुनिया से उनके फिर से मिलने और टकराने की बात करती है। उसका गुस्सा अनुराग की रिलीज न हो पाई फिल्म </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पाँच</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के युवाओं का गुस्सा ही है जिसकी ठीक ठीक वज़ह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पाँच</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की तरह ही फिल्म की कहानी नहीं बताती और उसे बतानी भी नहीं चाहिए थी। क्योंकि आप अपने आसपास की शहरी दुनिया एक बार देखेंगे तो उसकी हज़ार वज़हें दिख जाएँगी।</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शैतान उनकी बन्द दुनिया की कहानी सुनाते हुए पूरी ईमानदार है और साहसी भी लेकिन बाहर की दुनिया से टकराव शुरू होते ही वह बिखरने लगती है। आखिर तक जाते जाते तो कई जगह वह उन हिन्दी फिल्मों जैसी हो जाती है जिनमें माँ बाप हमेशा सही होते हैं और बच्चे भटके हुए होते हैं। यह सही है कि अपने गुस्से में फिल्म के मुख्य किरदार भटके थे लेकिन आप उनके गुस्से की वज़हें क्यों नहीं मिटाते और उन्हें मिटाए बिना ही हैप्पी एंडिंग भी दिखाना चाहते हैं।</span></div><div class="MsoNormal"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_7IJJB6v7eARwogUSvBVEp6dhRPFnYm4adWkO38wV9sHoadRjUVtYDzEU_uWicxvz3Fhzzv86yvJ1kkTlb0EJdIOVQ5rhhmzs0f74hKad6R5JpMoTC_Z_pyvG_CHSNQJ6EHS1-yg62VA/s1600/shaitan-kalki.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_7IJJB6v7eARwogUSvBVEp6dhRPFnYm4adWkO38wV9sHoadRjUVtYDzEU_uWicxvz3Fhzzv86yvJ1kkTlb0EJdIOVQ5rhhmzs0f74hKad6R5JpMoTC_Z_pyvG_CHSNQJ6EHS1-yg62VA/s320/shaitan-kalki.jpg" width="320" /></a><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इससे कहीं बेहतर जगह </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पाँच</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> खत्म हुई थी। उसमें कुछ कमियाँ थीं लेकिन अपने मैसेज को लेकर वो कहीं भी कनफ्यूज नहीं थी। बेहतर दुनिया का सपना तो शायद सब डार्क फिल्में बनाने वाले लोग देखते हैं लेकिन उसे बनाने के लिए वे सतही ढंग से यथार्थ से नहीं भटक जाते।</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इसीलिए शैतान पलायन की फिल्म है। पहले हाफ में यह अच्छा है क्योंकि उसके किरदार यथार्थ से पलायन कर रहे हैं और उन्हें यह पूरी सच्चाई से दिखाती है। दूसरे हाफ में फिल्म खुद ही यथार्थ से पलायन कर जाती है। यह ऐसा ही है कि अपने रचे हुए शोर में आप खुद ही बहरे हो जाएँ। थोड़ी देर तक लगातार परछाइयाँ देखते देखते आप यह भूल जाएँ कि ये असली लोग नहीं है। इसीलिए जिस पॉइंट पर शैतान पाँच से अलग रास्ता लेती है, उसी पर अपने आप को दगा देने लगती है।</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शैतान का एक और मज़बूत पहलू उसके एक्टर हैं। कल्कि से लेकर राजीव खंडेलवाल और राजकुमार यादव तक। फिल्म जहाँ कमज़ोर पड़ती है, वहाँ अपने अभिनेताओं का सहारा लेकर, खासकर कल्कि और उनकी कहानी का सहारा लेकर इमोशनल करने की कोशिश करती है। लेकिन जानबूझकर ऐसा करना आपको फिल्म से दूर ही करता है। जब आप कहानी के किसी हिस्से को एक टूल की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं, तब आप अपने दर्शकों को बेवकूफ़ समझ रहे होते हैं।</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><br />
</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मगर जो भी हो, अगर आप बाद में शैतान के बारे में सोचें तो आपको उसके विजुअल्स, उसका संगीत और उसकी गति (आखिरी आधे घंटे को छोड़कर) याद आएगी। शैतान शुद्ध सिनेमा होने की कोशिश है। एक पुलिसवाले का दूसरे पुलिसवाले का पीछा करने का लम्बा सीक्वेंस उसके सबसे खूबसूरत हिस्सों में से है। शैतान वैसी ही होना चाहती है। अपने वर्तमान को जीती हुई और कहानी कहने की टेंशन से बेफ़िक्र। इस ख़याल को इज़्ज़त देती हुई कि सिनेमा अपने आप में एक स्वतंत्र माध्यम है और इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वह कहानी का ग़ुलाम हो। मेनस्ट्रीम में बने रहने के लिए उसे कहानी सुनानी पड़ी है लेकिन अन्दर कहीं वह कहानी सुनाना नहीं चाहती। वह उससे आज़ाद होना चाहती है। लेकिन इसे भी वह साध नहीं पाती। बल्कि इस चक्कर में वह खोखली होती जाती है और चमत्कार करने के अपने बेवज़ह के ओवर कॉन्फिडेंस की वज़ह से साधारण।</span><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-13033073518245762952011-05-14T20:45:00.000-07:002011-05-14T20:46:30.939-07:00शागिर्द: आधे हथियार और मिट्टी से इश्क़<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><a href="http://www.bharatstudent.com/ng7uvideo/bs/gallery/normal/movies/bw/2011/apr/shagird/shagird_006.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: justify;"><img border="0" height="213" src="http://www.bharatstudent.com/ng7uvideo/bs/gallery/normal/movies/bw/2011/apr/shagird/shagird_006.jpg" width="320" /></a>तिग्मांशु धूलिया के पास कुछ ऐसी चीजें हैं जो उनकी शैली की फिल्में बनाने वाले समकालीन फिल्मकारों के पास उस तरह से नहीं हैं। अनुराग और विशाल के पास आपराधिक डार्क ह्यूमर हैं लेकिन अनुराग उनकी कहानियाँ कहते कहते थोड़ा शहर की तरफ बढ़ जाते हैं और विशाल गाँव की तरफ। अपनी पहली फिल्म ‘हासिल’ की तरह तिग्मांशु छोटे शहर या कस्बे को बेहद विश्वसनीय ढंग से दिखाते हैं। हैरत की बात यह है कि इस बार वे पुरानी दिल्ली में उसे खोजते हैं। इस तरह उनकी पूरी फिल्म मिट्टी के रंग की हो जाती है। </div><a name='more'></a>शायद अनुराग की फिल्मों से उनका अंतर कम शहरी या ज्यादा शहरी होने का नहीं है। उसी शहर और उन्हीं किरदारों की कहानी में अनुराग साइन बोर्डों, रंगी हुई दीवारों और गहरे गुस्सैल रंगों पर ज्यादा ठहरते हैं और तिग्मांशु खंडहरों और कबाड़ में ज्यादा। ‘शागिर्द’ के कई महत्वपूर्ण सीक्वेंस दिल्ली के ऐसे ही खंडहर किलों, पुरानी दिल्ली के गोदामों या टूटे दरवाजे वाले घरों के आसपास हैं। तिग्मांशु की अच्छी बात यही है कि कहानी फिल्माने का उनका एक मौलिक स्वर है। लेकिन ‘शागिर्द’ वहां बिखरती है, जहाँ उसके सामने सवाल आता है कि सेट तैयार है और मूड भी, लेकिन अब अपनी कहानी कहो। तब तिग्मांशु जैसे अस्सी या नब्बे के दशक की उन कहानियों की तरफ जाते हैं जिनमें एक मंत्री या नेता को राजनीति का प्रतिनिधि दिखाया जाता था, एक पुलिस अफसर को पुलिस का और उनकी यारी या दुश्मनी की कहानी कही जाती थी। इसीलिए तिग्मांशु के पास मज़ेदार ज़मीनी डायलॉग तो हैं लेकिन कहानी उनकी अपनी नहीं लगती। वह कई बार सुनी हुई कहानी लगती है इसलिए न तो वह वैसी सिहरन पैदा कर पाती है जैसा नैतिकता के सवाल में न फँसी हुई किसी फिल्म को करना चाहिए और न ही अपने किरदारों से मोह जगा पाती है। आपको न उनकी फ़िक्र होती है और न आपको उन पर गुस्सा आता है। गलियों और सड़क के कुछ दृश्य आपको बेहद खूबसूरत लगते हैं और उनके और कुछ अच्छे डायलॉग्स, अच्छे अभिनेताओं के सहारे आप फिल्म देखते जाते हैं। लेकिन फिल्म में पत्रकार बनी रिमी सेन जब पुलिस पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाकर चिल्लाती हैं तो वह बहुत बार सुनी बात लगती है। ऐसी बातें अब हममें आक्रोश नहीं जगाती। स्टिंग ऑपरेशन और फिल्में ही हमें इतना कुछ दिखा चुके हैं कि किसी नेता का अपने स्वार्थ के लिए अपने ही किसी भी आदमी को मरवा देना तक हमें चौंकाता नहीं। फिल्म जितनी गोलियाँ खर्च करती है, उतनी क्रूर होने की बजाय साधारण होती जाती है।<br />
<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">लेकिन शागिर्द के पास नाना पाटेकर हैं जो ‘अब तक छप्पन’ के अपने किरदार के एक विस्तार में ही हैं लेकिन कहीं कहीं नई तरह से मंत्रमुग्ध करते हैं। उनसे भी ज्यादा मुग्ध जाकिर हुसैन करते हैं जिन्हें देखा जाना अभी बाकी है और उन्हें इससे पहले शायद ही इतना महत्वपूर्ण किरदार मिला हो। मोहित अहलावत बस इतना करते हैं कि काम बिगाड़ते नहीं, लेकिन कहीं कहीं तो वे सहजता से खड़े भी नहीं हो पाते। ‘आई एम’ में कमज़ोर पड़े अनुराग कश्यप अपने पहले बड़े किरदार में पास हो जाते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">तिग्मांशु की एक कमी और रही। गाना तो था ही नहीं, बैकग्राउंड संगीत भी कहीं फिल्म में कुछ जोड़ता नहीं। जबकि अनुराग और विशाल की ऐसी फिल्मों में संगीत ही काफी असर पैदा करता है। इसीलिए लगता है कि तिग्मांशु आधे हथियार लेकर क्यों उतरे हैं? </div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-87803199976415015432011-05-04T12:22:00.000-07:002011-05-04T12:31:22.935-07:00शोर in the City: वे आपका भेजा उड़ाएँगे और दिखाएँगे कि शहरों से मोहब्बत कैसे की जाती है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXfNLEUhHTWfq_-KJgDD1K_I3NfEcKx7JNDCnbhFdsRNinKwxucoGKmnzCW3PALRIVz1tLdYoctP412nXNW5z0Cqxi0HhGctW1siNLC8MSd6A4a9eNQb9OJgniJ0V4XEyG92rbO7xmLOs/s1600/shor-in-the-city-8a.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXfNLEUhHTWfq_-KJgDD1K_I3NfEcKx7JNDCnbhFdsRNinKwxucoGKmnzCW3PALRIVz1tLdYoctP412nXNW5z0Cqxi0HhGctW1siNLC8MSd6A4a9eNQb9OJgniJ0V4XEyG92rbO7xmLOs/s320/shor-in-the-city-8a.jpg" width="320" /></a></div>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">शोर इन द सिटी</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बॉलीवुड की कमबैक फ़िल्म है। बस इस कथन में से थोड़ी सी अतिशयोक्ति कम कर दें तो जो बचता है, बिल्कुल वही। मुम्बई की भीड़ में भी यह किसी बच्चे की पहली साँस जितनी ताज़ी है। यह शोर में सुकून तलाशती है और पाती भी है। यह अपने शहर से रूठती है और मान भी जाती है। उसे कोसती भी है और दुआएँ भी देती है। शहर चुप मुस्कुराता रहता है और किसी सुहानी शाम में उसे जी भर के चूमता है।</span><br />
<a name='more'></a><br />
<div class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal;">मुझे याद नहीं आता कि पिछले कुछ महीनों में किसी फ़िल्म ने हॉल से इतना ख़ुश होकर लौटने की वज़ह दी हो। वह भी तब, जब इसमें तुषार कपूर हैं जो मेहनत तो बहुत करते दिखते हैं लेकिन फिर भी अपनी डायलॉग डिलीवरी नहीं सुधार पाते। मगर उनकी भरपाई करने को राज-कृष्णा के पास एक से एक कमाल एक्टर हैं। पितोबाश तो हैं ही। वे 99 में भी एक छोटे से रोल में थे, लेकिन याद रहे। अच्छे एक्टर यही करते हैं। उन्हें हीरो वाले डायलॉग्स या क्लाइमैक्स में जीतने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आप उन्हें बाइक पर दो लोगों के पीछे बिठाइए और बस झाँकने की इजाज़त दीजिए। वे अपना जादू दिखा देंगे। यहाँ तो राज-कृष्णा ने अपने हर एक किरदार के लिए इतनी मेहनत की है, इतने प्यार से उन्हें गढ़ा है। फ़िल्म में कोई आदमी छोटे रोल में नहीं है। एकाध मिनट के लिए स्क्रीन पर आने वाले कैरेक्टर भी आपको याद रहते हैं।</span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ज़ाकिर हुसैन, जो एक एन आर आई से फ़िरौती माँगने वाले तीन अपराधियों में से एक हैं, बहुत ख़ूबसूरती से परदे को जीत लेते हैं। यही वे अभिनेता हैं, जिन्हें आप फ़िल्म देखते हुए ही गले से लगा लेना चाहते हैं। राधिका आप्टे हैं, जिनकी एक शुक्रवार को ही दो फ़िल्में आईं- आई एम और शोर। वे बिल्कुल घर की लड़की लगती हैं और बोलती हैं तो और भी ज़्यादा। राज-कृष्णा ने उनके और तुषार के लिए बहुत ख़ूबसूरत लव-मेकिंग सीन रचा है। इतना नैचुरल और उससे पहले उन दोनों के बीच की चाह का जो लम्बा सन्नाटा है, उसे रचना ज़्यादा मुश्किल था। और प्रीति देसाई क्या दिखती हैं! </span><span lang="HI" style="font-family: Wingdings;">J</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> </span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">अमित मिस्त्री अपने </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">99</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> के रोल के सीक्वल में ही लगते हैं। उन्हें बिल्कुल वैसा सा ही किरदार मिला है। भुवल राम कुबेर जैसा ही, जो डेयरिंग दिखना चाहता है, पर अन्दर से बिल्ली है। </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">राज-कृष्णा </span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इस तरह जोड़े में काम करने के अलावा अपने काम से भी </span>Coen Brothers <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">की याद दिलाते हैं। बड़ी बात है कि वे विश्व सिनेमा के अच्छे गुणों को लेकर बॉलीवुड की ख़ासियत अच्छा संगीत भी अपने में जोड़ लेते हैं। ऐसा लगता है कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">99</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बस एक प्रयोग था और उसे आज़माने के बाद इस बार वे और भी खुलकर खेले हैं। अपनी तेज फ़िल्म में वे जब भी मोहब्बत के सीन्स के लिए ठहरते हैं तो ठहरते हुए दिखते नहीं। बड़ी बात ये है कि वे शहर को इस तरह नहीं दिखाते जैसे उस पर अहसान कर रहे हों या चिल्लाकर दुनिया को बताना चाहते हों कि देखो, हम इस से प्यार करते हैं। कि ये देखो, हम यहाँ भागते हुए बच्चों, ठेले वालों और भीड़ भरे बाज़ारों को शूट कर रहे हैं। हमारी पीठ थपथपाओ। कुल मिलाकर सबसे अच्छी बात है कि वे किरण राव नहीं बनते। वे एक शहर और उसके लोगों की कहानी कहते हैं और पूरी फ़िल्म में शहर उसी स्वाभाविकता से मौज़ूद है, जैसे वह असल ज़िन्दगी में होता है। उसमें शोर है, भागते हुए लोग हैं लेकिन वह जीवन में भी तो आपकी छाती पर चढ़कर नहीं बैठ जाता ना? वह बैकग्राउंड में है और इस तरह आउट ऑफ़ फ़ोकस कि फ़ोकस उसी पर हो। </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">राज-कृष्णा मुम्बई को दिखाने के लिए समन्दर किनारे बैठकर बारिश में नहीं भीगते। समन्दर किनारे उनके नायक-नायिका एक दूसरे को चूमते हैं तो लड़की कहती है कि उसके होठ सूखे हैं, इसलिए उसे दर्द हो रहा है। क्या सुनी है आपने पहले कभी ये बात किसी रूमानी माहौल में?</span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">वे ट्रैफ़िक सिग्नल पर किताबें बेचते बच्चों को दिखाते हैं और उसके पीछे के नेटवर्क को, लेकिन मधुर भंडारकर नहीं बनते। कि आओ, हमें तुम पर रहम खाना है या हमें किसी को नंगा सच दिखाना है। राज-कृष्णा सब अच्छे कहानीकारों की तरह ही कोई दावा नहीं करते।</span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">क्रिकेट और ख़बरों के लिए उनका प्यार इस फ़िल्म में भी दिखता है। जैसे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">99</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का एक हिस्सा भी असल घटनाओं से प्रेरित था और उसका अंत भी अख़बारों की सुर्खियों से होता है, उसी तरह इस फ़िल्म की हर कहानी भी किसी न किसी ख़बर से प्रेरित है। </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक और अच्छी बात फ़िल्म का निष्कर्ष है। यह कहीं न कहीं उस किताब </span>Alchemist <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">जैसा दार्शनिक ही है, जो इस फ़िल्म में महत्वपूर्ण किरदार है। लेकिन फिर भी फ़िल्म कोई उपदेश देती दिखती नहीं। उसका अंत ऐसे होता है, जैसे यही होना था। जैसे यही होना चाहिए। यह </span>apologetic <span lang="HI" style="font-family: Mangal;">नहीं होती, फिर भी चीजों को बदलने की बात बहुत ख़ूबसूरती से करती है। यह नैतिकता की बात नहीं करती। बल्कि यह तो कहती है कि मैं इस लायक हूँ ही नहीं। आपको कुछ सिखाती नहीं, बल्कि ख़ुद सीखती है। और फ़िल्म उस पूरी प्रक्रिया को दिखाती है, जिसमें उसके किरदार अपनी ज़िन्दगी जीते हुए उसे सबसे अच्छे ढंग से जीना सीख रहे हैं।</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">फ़िल्म एक लाइन से शुरु होती है- </span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span class="apple-style-span"><span style="font-family: Arial;">The city is just an excuse to be good or bad. Especially bad!<o:p></o:p></span></span><br />
<span class="apple-style-span"><span style="color: black; font-family: Arial;"><br />
</span></span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjX_HCm5ssMKtBBabhusjyUSoCo5BM7WLo5BwwiMK27uO8q1HdMXCofmHdsTiyBCGx6lUS-tQi1MV2kn4uEuRSkXaNGxYEsdoxen3SGhfBcBcxI9kMGYOAcB8k-3IbFyfLLGHZ6hLHlqVQ/s1600/Shor-In-The-City-Review-01.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="212" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjX_HCm5ssMKtBBabhusjyUSoCo5BM7WLo5BwwiMK27uO8q1HdMXCofmHdsTiyBCGx6lUS-tQi1MV2kn4uEuRSkXaNGxYEsdoxen3SGhfBcBcxI9kMGYOAcB8k-3IbFyfLLGHZ6hLHlqVQ/s320/Shor-In-The-City-Review-01.jpg" width="320" /></a></div><span class="apple-style-span"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">इस तरह से यह बॉलीवुड की अब तक की उन अधिकांश अपराध-कहानियों की आलोचना भी है, जिनमें शहर की असमानता या क्रूरता नायक को खलनायक बनाती है। यह आलोचना भी एक अपराध-कथा होकर ही। और यह उम्मीद बिल्कुल मत कीजिएगा कि इस आलोचना के लिए इसके किरदार आख़िर में आपसे माफ़ी माँगेगे। वे आपका भेजा उड़ाएँगे और दिखाएँगे कि शहरों से मोहब्बत कैसे की जाती है। </span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><o:p></o:p></span></div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-52045499643904820882011-05-03T11:47:00.000-07:002011-05-03T11:47:35.925-07:00थोड़ा नीम, जिससे शहद बनेगा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://www.mid-day.com/imagedata/2011/apr/rahul12.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="142" src="http://www.mid-day.com/imagedata/2011/apr/rahul12.jpg" width="320" /></a></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">ओनीर जितने फ़िक्रमंद फ़िल्मकार कम ही होते हैं. अपनी पहली फिल्म </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">माई ब्रदर निखिल</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में उन्होंने एक ऐसी कहानी सुनाई थी जिसे कहने सुनने वाले बहुत कम लोग हैं. उसके बाद वे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बस एक पल</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">सॉरी भाई</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> से होते हुए फिर वहीं लौट आए हैं. वे कहानियाँ कहते हुए, जिन्हें कहा जाना बहुत ज़रूरी है लेकिन कोई कह ही नहीं रहा. और यह लौट आना कोई व्यावसायिक लौट आना नहीं है. ओनीर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आई एम</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> की कहानियाँ ऐसे स्नेह से सुनाते हैं जैसे यही उनका असली घर हो.</span></div><a name='more'></a> <br />
<div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन दुर्भाग्य, कि इतना काफ़ी नहीं होता. ओनीर हमारे समाज के परेशान अल्पसंख्यक तबके के लिए चिंतित ज़रूर हैं लेकिन एक सम्पूर्ण फ़िल्म बनाने के लिए अच्छा कहानीकार होना भी ज़रूरी है, जो वे नहीं हो पाते. यही वजह है कि कई बार वे किसी मुद्दे की बात करते हुए डॉक्यूमेंट्री जितने नीरस भी हो जाते हैं. खासकर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आई एम मेघा</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> में कश्मीरी पंडितों की बात करते हुए. ओनीर कश्मीर से विस्थापित हुए परिवारों और वहाँ रहकर फौज का आतंक झेल रहे परिवारों की बात तो करते हैं, लेकिन किसी भावहीन रिपोर्ट की तरह. वे बार-बार उपदेशात्मक होते हैं. खासकर उनके डायलॉग इतने सपाट हैं कि आप उस दर्द से जुड़ ही नहीं पाते. सबसे हैरत की बात है कि वे कश्मीर को खूबसूरत भी नहीं दिखा पाते. </span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन बाकी तीनों कहानियां बेहतर हैं. </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आई एम आफिया</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> बीच में थोड़ी खिंचती है लेकिन उसे नंदिता दास खास बनाती हैं. फिल्म के पास बहुत सारे एक्टर हैं और लगभग सभी उसकी पूंजी हैं. आखिरी दो कहानियां मुझे ज्यादा पसंद आईं. </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आई एम अभिमन्यु</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> का प्रस्तुतिकरण बहुत खूबसूरत है. वह एक जवान लड़के का अपना बुरा बचपन याद करना है, जिसमें ओनीर सफेद कपड़ों वाली एक बच्ची का सपना भरते हैं, जो कहानी में कहीं नहीं है और जिसकी मां अचानक गायब हो जाती है. ऐसे सपने ही सिनेमा को सिर्फ कहानी कहने का माध्यम नहीं, सिनेमा बनाते हैं.</span></div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">लेकिन आखिरी कहानी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal;">आई एम उमर</span>’<span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> ही वह कहानी है जो इस फिल्म को जरूर देखे जाने लायक बनाती है. दो समलैंगिक पुरुषों की यह कहानी सबसे ज्यादा दिल से कही गई कहानी है. इसीलिए उसके रोमांटिक और क्रूर, दोनों दृश्य आपके अन्दर बैठ जाते हैं. वहां डायलॉग्स वाली वह कमी भी अचानक गायब हो जाती है, जो बाकी कहानियों को दीमक की तरह खा रही थी. यहां फिल्म अपने पूरे शरीर और इस तरह हमारे पूरे आधुनिक समाज के शरीर के सारे कपड़े उतार देती है और आपको एक आईना देती है, जिसमें आपको अपनी बगल में बैठी एक औरत का समलैंगिक पुरुषों के चुम्बन के सीन पर बेशर्मी से हंसना भी सुनना है. आप चाहते हैं कि उस औरत को और भारतीय संस्कृति के पहरुए उन बाबाओं को उसी क्षण मार डालें, जो कहते हैं कि समलैंगिकता मानसिक बीमारी है. उस मारने से पहले उन सबको यह फिल्म जबरदस्ती दिखाई जानी चाहिए. जो भी हो, यह एक जरूरी फिल्म है जो हमारी दुनिया को किसी न किसी तरह बेहतर बनाएगी.</span></div><div class="MsoNormal"><br />
</div><div class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">एक और बात- राहुल और अर्जुन का किस हिन्दी सिनेमा के सबसे रोमांटिक दृश्यों में से एक है। आप बस अपने टैबू भूल जाइए। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-1117006847660162512011-03-03T08:35:00.000-08:002011-05-03T10:47:58.474-07:00एक जिद्दी लड़का, जिसे वे तोड़ नहीं पाए<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-style: italic;">यह लेख तहलका के 15 मार्च, 2011 के अंक में छपा है। पहली फ़ोटो में अनुराग की बायीं तरफ़ खड़े जिन सज्जन का चेहरा और सिर लाल गमछे ने ढक रखा है, वे प्रतिभाशाली राजीव रवि हैं, जिनकी सिनेमेटोग्राफी आप देव डी और गुलाल में भी देख चुके हैं। </span><br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDxRhyV1R_9toRpOTDeRXj611EDVMhNV7c7lwKIGcfzlBkGYh9bFiiU0yddCteNSqk6QcIHQw9RoLUULDFXOBAAkpWHCY-WAw_kCPJWs3kc2mpeRIg6wAt-Q7oc2H8sVgpctQpb2YGX6w/s1600/100_1089.JPG" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5579893981599156706" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDxRhyV1R_9toRpOTDeRXj611EDVMhNV7c7lwKIGcfzlBkGYh9bFiiU0yddCteNSqk6QcIHQw9RoLUULDFXOBAAkpWHCY-WAw_kCPJWs3kc2mpeRIg6wAt-Q7oc2H8sVgpctQpb2YGX6w/s400/100_1089.JPG" style="display: block; height: 300px; margin-bottom: 10px; margin-left: auto; margin-right: auto; margin-top: 0px; text-align: center; width: 400px;" /></a><br />
<span style="font-weight: bold;"></span><br />
<span style="font-weight: bold;">आप </span>पिछले कुछ सालों की हिन्दी फिल्में देखते होंगे और ज़्यादा आशावादी नहीं होंगे तो यह उम्मीद नहीं करेंगे कि कोई फिल्म की शूटिंग करने मुम्बई-दिल्ली या किसी महानगर से बाहर जाएगा। बाहर जाएगा तो समन्दर लाँघकर विदेश चला जाएगा। फिल्मों की कहानियां इन शहरों के ही थोड़े गरीब हिस्सों तक पहुंच जाएँ तो भी हम अहसानमन्द होंगे। ऐसे माहौल में हम बनारस पहुँचते हैं, जहाँ अनुराग कश्यप अपनी अगली फिल्म की शूटिंग कर रहे हैं।<br />
<a name='more'></a> यह वही शहर है, जहाँ अनुराग का बचपन बीता है और जहाँ उनके माता-पिता रहते हैं।<br />
लेकिन शूटिंग की जगह बनारस नहीं है। यह ढ़ाई महीने से यूनिट का और दो दिन के लिए मेरा ठिकाना है। तंग गलियों, रिक्शे वालों की गालियों और गंगा स्नान का यह शहर ‘राम तेरी गंगा मैली’, विकर्षित करती कम कपड़ों वाली लड़कियों की तस्वीरों वाली कुछ भोजपुरी फिल्मों और कुछ ऐसी फिल्मों के पोस्टरों से अटा पड़ा है, जो अपने बारे में ‘सेक्स और एक्शन से भरपूर’ लिखकर ही सारी जानकारी दे देती हैं। ऐसे में मुझे ‘वाटर’ की शूटिंग के दौरान हुआ बवाल याद आता है। कोई बताता है कि जिस हॉल के बाहर ‘राम तेरी गंगा मैली’ लिखा है, जरूरी नहीं कि अन्दर वही फिल्म चल रही हो। लेकिन जो भी हो, यही वह शहर है जहाँ आपकी अगर किसी ऑटो वाले से बात नहीं बनेगी और आप कहेंगे कि आप रिक्शा पर जाना चाहते हैं तो वही आपको मोलभाव करके रिक्शा करवाकर देगा।<br />
हम दोपहर में कोई एक-डेढ घंटे का सफ़र करके और जिला बदलकर अहरौरा पहुँचते हैं। यह तालाब के पास पेड़ों के बीच में एक कच्चे घर की लोकेशन है। अनुराग पहले से युवा और ख़ुश लग रहे हैं। अपने मिजाज की फिल्में बनाने के लिए उन्होंने अवसाद और नकार के जो साल झेले हैं, उनके बाद उन्हें खुश देखना उम्मीद जगाता है। वे जब अपनी फिल्म के बारे में बताना, उसके संगीत के हिस्से सुनवाना और झलकियाँ दिखाना शुरू करते हैं तो उनके चेहरे और हाव-भाव में वही उत्साह होता है जो घर के किसी अँधेरे कोने से कोई नई चीज ढूँढ़ निकालने के बाद किसी स्कूली बच्चे के चेहरे पर होता है। शायद यही उनमें वह ऊर्जा भरता है, जो ऊर्जा आम तौर पर बॉलीवुड के नियम मानने से मना करने वाले किसी फिल्मकार को आसानी से नहीं मिलती।<br />
छ: दशकों में और तीन पीढ़ियों में फैली, बिहार के कोयला माफिया की इस कहानी का नाम फिलहाल ‘गैंग्स ऑफ वासीपुर’ है, लेकिन जब शॉट शुरू होता है तो क्लैप बॉर्ड पर फिल्म के नाम की ज़गह ‘प्रोडक्शन नं 7’ ही लिखा दिखता है। यह 1940 का दृश्य है। हैरत की बात यह है कि सीन की तैयारियों के बाहर भी आप गाँव देखेंगे तो उसे 1940 मान लेना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। फिल्म में जिस ‘पीरियड’ को दिखाने के लिए इतनी मेहनत की जाती है, देश का एक हिस्सा अब भी उसी में जी रहा है।<br />
इस सीन के पूरा होते-होते शाम होने लगी है। मैं अनुराग से ‘उड़ान’ को मिले पुरस्कारों की बात करता हूँ। वे भी शायद नहीं जानते कि बॉलीवुड में पुरस्कार पाने की कोई भी पारम्परिक शर्त पूरी किए बिना ऐसा कैसे हुआ, लेकिन वे ख़ुश हैं। पेड़ पर एक लाइट लगाई जा रही है। अनुराग कहते हैं कि रात के सीन में इसका इस्तेमाल चाँद की तरह किया जाएगा। उस सीन की तैयारियाँ होते-होते अँधेरा हो गया है। क़रीब सवा सौ लोगों की पूरी यूनिट थकान के बावज़ूद लगी हुई है लेकिन तभी कुछ वैसा ही होता है जिसके लिए मुझे बनारस में वाटर की याद आई थी।<br />
कुछ आदमी आते हैं और लाइटें और कैमरे तोड़ देने की धमकी देते हुए कहते हैं कि यह यहाँ के विधायक की ज़मीन है और उनसे अनुमति नहीं ली गई। विधायक से फ़ोन पर बात करने का और उन्हें सब अधिकारियों से ली गई अनुमति के बारे में बताने का कोई फ़ायदा नहीं होता। काम रुक गया है। एक सीन बचा है और अगर वह यहाँ नहीं हो पाया तो उस दिन की पूरी शूटिंग किसी और घर में फिर से करनी होगी, लेकिन रोकने वालों को फिल्म या उसकी मुश्किलों से कोई मतलब नहीं है। एक घंटे की समझाइश और गुज़ारिश के बाद भी विधायक नहीं मानतीं। यह उनका इलाका है और वे ऐसा कहती नहीं, लेकिन उनके कारिंदों की भाषा देखकर लगता है कि वहाँ उनकी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलना चाहिए। शायद यही घटना उस बनारस और उत्तरप्रदेश की परिभाषा है, जहाँ सत्ता कुछ ज़्यादा ही अहंकारी ढंग से आपकी नियति तय करने की कोशिश करती है। लौटते हुए अनुराग कहते हैं कि यही सब चीजें उन्हें यहाँ से दूर जाने पर मज़बूर करती रही हैं। वे इससे पहले की शूटिंग में आई मुश्किलों के बारे में बताते हैं और यह भी कि वहाँ एक ठीक ठाक ज़िन्दगी जीने के लिए कितने राजनीतिक समीकरणों को जानना और उनसे समझौता करना ज़रूरी है। वे अपना पहले का गुस्सा याद करते हैं और कहते हैं कि उनका गुस्सा कम नहीं हुआ है, लेकिन अच्छी बात यह है कि अब वे उसे अपने काम में ज़्यादा सकारात्मक ढंग से इस्तेमाल कर पा रहे हैं।<br />
लौटते हुए देर हो गई है और हर मोहल्ले से सरस्वती पूजा के जुलूस गंगा की ओर जा रहे हैं। उनमें किशोर लड़के ज़्यादा हैं और वे पागलों की तरह ‘मुन्नी बदनाम हुई’ की पैरोडी के किसी भजन पर नहीं, ‘मुन्नी बदनाम हुई’ पर ही नाच रहे हैं। ऐसा भक्तिभाव कम ही शहरों में देखने को मिलता है।<br />
अगली सुबह शूटिंग पर जाने से पहले हमें अनुराग के साथ उनके घर जाने और उनके माता-पिता से मिलने का मौका मिलता है। रास्ते में अनुराग वह सिनेमाहॉल दिखाते हैं जहाँ वे बचपन में ज़्यादातर फ़िल्में देखा करते थे। पिछले कुछ दिन अनुराग की तबियत थोड़ी खराब रही है और माँ का आदेश है कि सुबह घर से दही-चावल खाकर ही जाएँ। यह देखकर भला सा लगता है कि उन कुछ मिनटों में भी वे अनुराग को और हमें भी, छोटे बच्चों सा स्नेह देते हैं।<br />
घर से अहरौरा तक के रास्ते में अनुराग अपने बचपन के बारे में बताते हैं जब घर में आने वाली रेडियो, टीवी जैसी हर चीज तीनों बहन-भाइयों को पढ़ाई या किसी भी चीज में सम्मिलित<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRhR_hj1hgOf_t8JlgPw_0_D0lzS8XcLvNPlt1OFQATeXeoUOX-sSuM5HYhnv0MnbSU-r6b6ZrDPH-VOUFll8UpXqSUKTeOBECG12KzV7jNHDhj9tMxAri0j2kKjufzTZBGrVqA9_40lk/s1600/100_1079.JPG" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5579894922474228194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRhR_hj1hgOf_t8JlgPw_0_D0lzS8XcLvNPlt1OFQATeXeoUOX-sSuM5HYhnv0MnbSU-r6b6ZrDPH-VOUFll8UpXqSUKTeOBECG12KzV7jNHDhj9tMxAri0j2kKjufzTZBGrVqA9_40lk/s400/100_1079.JPG" style="cursor: pointer; display: block; height: 300px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 400px;" /></a> अच्छे प्रदर्शन से कमानी होती थी। तब जाकर पिताजी ईनाम में कुछ लाते थे। अनुराग कहते हैं कि उन्हें आश्चर्य होता है जब लोग अपनी मौलिक ज़रूरतों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर रखते हैं और फिर उनके लिए रोते और पिसते रहते हैं।<br />
आज भी फिल्म में 1940 ही है। जब हम सेट पर पहुँचते हैं, तो एक हाट लगभग तैयार ही हो चुका है। घोड़े-ताँगे और ऊँट हैं और अनाज और दालों की बहुत सी दुकानें। वहाँ चीजें मन और सेर के वज़न में बेची जा रही हैं। सड़क पर गाँव वालों की भीड़ है, जिन्हें नियंत्रित करने में यूनिट का आधा दिन जाने वाला है। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि दूर खड़ी उनकी साइकिलें या मोटरसाइकिलें सत्तर साल पुराने किसी दृश्य को कैसे बर्बाद कर सकती हैं। उनमें से अधिकांश लोग यह ज़रूर जानना चाहते हैं कि फिल्म की हीरोइन कौन है? यह नाटकीय ढंग से उसी को सिद्ध करता है, जो अनुराग ने कुछ महीने पहले एक बहस में कहा था कि आम आदमी को भी आम आदमी की कहानी पर बनी फिल्म में नहीं, कैटरीना कैफ में ज़्यादा दिलचस्पी होगी।<br />
अभी शूटिंग का एक महीना और बाकी है। दो हिस्सों में बनने वाली इस फिल्म को पूरा एक साथ ही शूट किया जा रहा है। अनुराग इसे म्यूजिकल देहाती गैंगस्टर फिल्म बताते हैं। यह अनुराग की अब तक की सबसे बड़े बजट की फ़िल्म है और यह तब है, जब इसमें मनोज वाजपेयी के अलावा एक भी बड़ा स्टार नहीं है। लेकिन बड़ी बात यह है कि यह उनकी मज़बूरी नहीं, मर्ज़ी है। ऐसे समय में, जब वे हिन्दी फिल्मों के मनचाहे सितारों के साथ काम कर सकते हैं, वे अपनी कहानी के प्रति प्रतिबद्ध रहना चुनते हैं। जब उनके आसपास और दूर-दूर तक के लोगों की अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं का पहाड़ उनके सिर पर बैठ जाना चाहता है, वे चुपके से बच निकलते हैं और अपने मन की मशाल जलाते हैं। और इसके लिए दुनिया को ठोकर पर रखना पहली शर्त है।</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-56286371593936713342011-02-28T07:19:00.000-08:002011-02-28T08:30:24.776-08:004 महीने, तीन हफ़्ते और दो दिन<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxlpamOWZVnPlM4uIa2FeVG8g7bzpAMVtTulcFeQEU7b3CwhUsk1P_NkP1SytteK_51IjqZZPQhv2C59H2cZuGEk-4UiZWg5zSCZIam5aqDXg-zBEqLKbEzew0uV785sm5KNPVDLJVloQ/s1600/4weeksstill2.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 225px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxlpamOWZVnPlM4uIa2FeVG8g7bzpAMVtTulcFeQEU7b3CwhUsk1P_NkP1SytteK_51IjqZZPQhv2C59H2cZuGEk-4UiZWg5zSCZIam5aqDXg-zBEqLKbEzew0uV785sm5KNPVDLJVloQ/s400/4weeksstill2.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5578777861324554498" /></a><br /><br />4 months, 3 weeks and 2 days (Romanian)<br />निर्देशक- Cristian Mungiu<br />http://www.imdb.com/title/tt1032846/<br /><br />यह रोमानिया की फ़िल्म है- एक हॉस्टल में रहने वाली दो लड़कियों के बारे में, फिर उनसे होते हुए एक आदमी के बारे में, जो अपने पेशे जितना ही कठोर हो गया है, फिर लौटकर उन लड़कियों की विवशता के बारे में, एक लड़की के प्रेमी के बारे में जिसकी कोई गलती नहीं है लेकिन ऐसा लगने लगता है, गलती उसके माता-पिता की है, जो हम सबकी दुनिया में भी हैं। <br />लेकिन आप धीरज रख सकते हों, तभी यह फिल्म देखें। यह उन फिल्मों में से है जो असल में वास्तविक होती हैं। जो नाटकीयता या गति के लिए अपने सफ़र के किसी भी हिस्से को नहीं काटना चाहतीं। उनका सारा दुख ज़िन्दगी जैसी धीमी गति से ही उतना गहरा हो पाता है।Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-47870176981648662502011-02-24T00:02:00.000-08:002011-05-03T11:20:18.335-07:00Patiala House: जाने ये कैसे लोग हैं!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiMDn2MTbDGG_z_B9awzHVWvMH-sphbZAk0N3MmiiLxWO0MwvJz4_FNLodx1VId7gVLs9vxI-BZdJl_64MeZOz1dHT-FvPeuYQcszg50MBjn-GWWcRMvl4GRtK2XU22L0fDcoDdb0DPpU/s1600/Patiala-House.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577164290646775362" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiMDn2MTbDGG_z_B9awzHVWvMH-sphbZAk0N3MmiiLxWO0MwvJz4_FNLodx1VId7gVLs9vxI-BZdJl_64MeZOz1dHT-FvPeuYQcszg50MBjn-GWWcRMvl4GRtK2XU22L0fDcoDdb0DPpU/s320/Patiala-House.jpg" style="cursor: hand; cursor: pointer; float: right; height: 320px; margin: 0 0 10px 10px; width: 219px;" /></a><br />
<span style="font-weight: bold;">चूंकि</span> अक्षय कुमार की पिछली कुछ फिल्में देखने के बाद आप पहले से ही जानते होंगे कि पटियाला हाऊस एक खराब फिल्म है, इसलिए मैं चाहकर भी इसे रहस्य खोलने की तरह आपको नहीं बता सकता। मैं आपसे बस यह सवाल पूछ सकता हूं कि निखिल आडवाणी के गुरू करण जौहर दुनिया को कम जानते हैं या निखिल आडवाणी? <br />
<a name='more'></a>जो भी हो, दोनों के काम में बहुत सारी समानताएं हैं। दोनों अपनी कहानी सोचने के पहले मिनट से ही स्पष्ट रहते हैं कि यह अमेरिका या यूरोप की होनी चाहिए। उसमें भी वहां रहने वाले हिन्दुस्तानियों की, और कोशिश यह की जाए कि वे हिन्दुस्तानी सरदार हों। अब बार-बार यह होना हमें अच्छा तो नहीं लगता लेकिन हमारी शिकायत इससे नहीं है। हमारी शिकायत इससे है कि वे कोई एक भावना या विचार चुनकर उस पर फिल्म बनाते हैं और खुद ही उसे ठीक से नहीं जानते। जैसे पूरी फिल्म में सब किरदार सपना-सपना तो चिल्लाते रहते हैं लेकिन सपने टूटने के दर्द के तीन फीट दूर तक भी कोई नहीं पहुंच पाता। उन्हें निर्देशक ने कहा है कि कोई पन्द्रह मिनट ऐसे नहीं बीतने चाहिए, जिनमें सब लोग पंजाबी गानों पर नाचें नहीं, इसलिए फिल्म और उसके किरदार किसी भी स्थिति से गुजर रहे हों, थोड़ी-थोड़ी देर बाद बेवजह नाचने लगते हैं। ऐसी एनआरआई फिल्मों की एक और खास बात यह है कि इनमें अति-संयुक्त परिवार ही दिखाए जाते हैं और उनका महिमामंडन किया जाता है। ‘कल हो न हो’ की तरह निखिल कोशिश करते हैं कि उन बीसियों लोगों को अपनी अपनी खासियतों के साथ स्थापित कर सकें, लेकिन उनमें से ज्यादातर अपने जबरदस्ती के रोने या चिल्लाने से इतना पकाते हैं कि कम से कम कुछ को तो आप गोली ही मार देना चाहते हैं। <br />
‘माई नेम इज खान’ की तरह निखिल भी यहां सिर्फ प्रवासी भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव से परेशान हैं। इसमें कोई बुराई नहीं लेकिन आपको हर बार सिर्फ उन्हीं की मुश्किलें क्यों दिखाई देती हैं? चलिए, दिखाई भी देती हैं तो आप उन्हें इतना लाउड होकर क्यों दिखाते हैं? आपको यही क्यों लगता है कि नस्लीय भेदभाव का इकलौता दर्द यही है कि किसी को अपने केश कटवाने पड़ते हैं और किसी को हिजाब छोड़ना पड़ता है?<br />
खैर, हम निखिल की राजनैतिक समझ को उन पर ही छोड़ते हैं लेकिन दुख यही है कि उन्हें इंसानी मनोभावों की भी समझ नहीं है। उन्होंने अन्विता दत्त के साथ मिलकर ऐसे किरदार और डायलॉग रचे हैं, जिनसे किसी समझदार आदमी को सहानुभूति शायद ही हो। आपके पास बरसों पुराना सतही फॉर्मूला तो है कि एक पिता है, जिससे सारा परिवार डरता है और पिता इसे अपने प्रति प्यार समझता है। वह अपने बच्चों के दुखी होने को उनका शरमाना समझता है। लेकिन आप 2011 में भी सिर्फ इसी बात पर पचास लोगों वाले परिवार की कहानी की ढ़ाई घंटे की फिल्म खींच रहे हैं तो बेहतर है कि आप कोई टाइम मशीन खोजना शुरू कर दें, जो आपको किसी और समय, किसी और जगह पर ले जाए, जहां लोग कुछ भी बर्दाश्त कर सकते हों।</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3397625455153185507.post-1775068552870514852011-01-01T02:34:00.000-08:002011-05-03T11:22:25.241-07:00पिछले दशक के मेरे पसंदीदा 20 फ़िल्मी गाने यानी एक और Top 20 list<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">लिस्ट बनाने का रिवाज़ है इसलिए मेरा भी मन किया कि एक बनाऊँ। ये 2001-2010 के बीच आई हिन्दी फ़िल्मों के मेरे पसंदीदा गाने हैं। पसंद के सब गाने यहाँ नहीं हैं लेकिन इन्हें आप प्रतिनिधि तो समझ ही सकते हैं। इनमें से ज़्यादातर फ़िल्मों के एक से अधिक गाने मुझे बहुत पसंद हैं इसलिए एक गाने को उस पूरी एलबम का प्रतिनिधि भी माना जा सकता है। जैसे 'ओमकारा' का 'बीड़ी जलई ले' या 'रंग दे बसंती' का 'खलबली' भी इस सूची में होने के हक़दार थे लेकिन '20 गाने' लिखना अच्छा लगता है इसलिए उन्होंने अपने भाइयों को अपना संदेश देकर भेजा है।<br />
<a name='more'></a> <br />
एक ख़ास बात यह है कि प्रीतम जी के संगीतबद्ध कई गाने मुझे बहुत पसंद हैं लेकिन 'विशेष कारणों' से मैंने उन्हें यहाँ शामिल नहीं किया है। उम्मीद है कि वे नाराज़ नहीं होंगे ;) <br />
<br />
आप कोई महत्वपूर्ण गाना याद दिलाएँगे तो अच्छा होगा। हो सकता है कि मुझसे अपनी पसंद भी छूट गई हो। <br />
<br />
<br />
1. नाम अदा लिखना <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/PNQNUQ6Spog?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/PNQNUQ6Spog?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- यहाँ <br />
संगीतकार- शांतनु मोइत्रा <br />
गीतकार- गुलज़ार <br />
गायक- श्रेया घोषाल, शान <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">2. साथिया</span> <br />
<br />
<object height="295" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/MZWIBBoaXzg?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/MZWIBBoaXzg?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="295"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- साथिया <br />
संगीतकार- ए. आर. रहमान <br />
गीतकार- गुलज़ार <br />
गायक- सोनू निगम <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">3. आवारापन बंजारापन</span> <br />
<br />
<object height="295" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/VXWbs_yGZqw?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/VXWbs_yGZqw?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="295"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- जिस्म <br />
संगीतकार- एम.एम क्रीम <br />
गीतकार- सईद कादरी <br />
गायक- के.के. <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">4. वतना वे</span> <br />
<br />
<div style="background-color: lightgrey; padding: 5px;"><object classid="clsid:D27CDB6E-AE6D-11cf-96B8-444553540000" codebase="http://download.macromedia.com/pub/shockwave/cabs/flash/swflash.cab#version=7,0,19,0" height="250" name="raaga_swf" width="300"><param name="movie" value="http://www.raaga.com/player4/std-embed/embed-pl.swf"><param name="flashvars" value="idsnew=11795&mode=100&q=1"><param name="quality" value="high"><param name="wmode" value="transparent"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed play="false" swliveconnect="true" id="raagaswf" wmode="transparent" name="raagaswf" allowscriptaccess="always" src="http://www.raaga.com/player4/std-embed/embed-pl.swf" quality="high" bgcolor="#000000" type="application/x-shockwave-flash" flashvars="idsnew=11795&mode=100&q=1" width="300" height="250"></embed></object></div><br />
फ़िल्म- पिंजर <br />
संगीतकार- उत्तम सिंह <br />
गीतकार - गुलज़ार <br />
गायक- रूपकुमार राठौड़, उत्तम सिंह <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">5. लड़की क्यूँ</span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/SARrsEOTh8A?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/SARrsEOTh8A?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- हम तुम <br />
संगीतकार- जतिन-ललित <br />
गीतकार- प्रसून जोशी <br />
गायक- शान, अल्का याग्निक <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">6. पिया तोरा कैसा अभिमान</span> <br />
<br />
<object height="295" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/IIcG70WJkS4?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/IIcG70WJkS4?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="295"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- रेनकोट <br />
संगीतकार- देबोज्योति मिश्रा <br />
गीतकार- गुलज़ार <br />
गायक- शुभा मुद्गल <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">7. छुप छुप के</span> <br />
<br />
<object height="295" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/xVJh4q1k51g?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/xVJh4q1k51g?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="295"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- बंटी और बबली <br />
संगीतकार- शंकर-एहसान-लॉय <br />
गीतकार- गुलज़ार <br />
गायक- सोनू निगम, महालक्ष्मी अय्यर <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">8. ये हौसला कैसे झुके</span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/iulELenaakI?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/iulELenaakI?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- डोर <br />
संगीतकार- सलीम-सुलेमान <br />
गीतकार- मीर अली हुसैन <br />
गायक- शफ़ाक़त अली ख़ान, सलीम मर्चेंट <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">9. लुकाछुपी</span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/k5qhBM3KJY8?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/k5qhBM3KJY8?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- रंग दे बसंती <br />
संगीतकार- ए.आर.रहमान <br />
गीतकार- प्रसून जोशी <br />
गायक- लता मंगेशकर, ए.आर.रहमान <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">10. ओ साथी रे</span> <br />
<br />
<object height="295" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/xthAVytCTPI?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/xthAVytCTPI?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="295"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- ओमकारा <br />
संगीतकार- विशाल भारद्वाज <br />
गीतकार- गुलज़ार <br />
गायक- श्रेया घोषाल, विशाल भारद्वाज <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">11. झूम बराबर झूम</span> <br />
<br />
<object height="295" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/kfLP_YIpS4I?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/kfLP_YIpS4I?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="295"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- झूम बराबर झूम <br />
संगीतकार- शंकर-एहसान-लॉय <br />
गीतकार- गुलज़ार <br />
गायक- के.के. सुखविन्दर सिंह, महालक्ष्मी अय्यर, शंकर महादेवन <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">12. U me और hum </span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/Dcl4NmBKMpA?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/Dcl4NmBKMpA?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- U me और hum <br />
संगीतकार- विशाल भारद्वाज <br />
गीतकार- मुन्ना धीमान <br />
गायक- विशाल भारद्वाज, श्रेया घोषाल <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">13. तारे ज़मीन पर</span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/x2qLBohl3wI?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/x2qLBohl3wI?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- तारे ज़मीन पर <br />
संगीतकार- शंकर-एहसान-लॉय <br />
गीतकार- प्रसून जोशी <br />
गायक- शंकर महादेवन, डोमिनिक सेरेजो, विवियेन पोचा <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">14. चक दे इंडिया</span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/-9OLLAj0JCc?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/-9OLLAj0JCc?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- चक दे इंडिया <br />
संगीतकार- सलीम-सुलेमान <br />
गीतकार- जयदीप साहनी <br />
गायक- सुखविन्दर सिंह <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">15. सुपरचोर</span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/rXxocplYJ0o?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/rXxocplYJ0o?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- ओए लकी लकी ओए <br />
संगीतकार- स्नेहा खानवलकर <br />
गीतकार- दिबाकर बनर्जी, अमितोष नागपाल <br />
गायक- दिलबहार <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">16. यारा मौला</span> <br />
<br />
<object height="295" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/kIYAmY-YiZ8?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/kIYAmY-YiZ8?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="295"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- गुलाल <br />
संगीतकार- पीयूष मिश्रा <br />
गीतकार- पीयूष मिश्रा <br />
गायक- राहुल राम, अशीम चक्रवर्ती <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">17. मेरे यार भी कमीने</span> <br />
<br />
<object height="295" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/PTDt7JYpUd8?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/PTDt7JYpUd8?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="295"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- कमीने <br />
संगीतकार- विशाल भारद्वाज <br />
गीतकार- गुलज़ार <br />
गायक- विशाल भारद्वाज <br />
<br />
18. Emotional अत्याचार(Rock Version) <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/C1u_SNRV3yQ?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/C1u_SNRV3yQ?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- देव डी <br />
संगीतकार- अमित त्रिवेदी <br />
गीतकार- अमिताभ भट्टाचार्य <br />
गायक- बोनी चक्रबर्ती <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">19. Love, sex और धोखा</span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/ehIXdlYzjOM?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/ehIXdlYzjOM?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- Love, sex और धोखा <br />
संगीतकार- स्नेहा खानवलकर <br />
गीतकार- दिबाकर बनर्जी <br />
गायक- कैलाश खेर <br />
<br />
<span style="font-size: 130%;">20. दिल तो बच्चा है जी</span> <br />
<br />
<object height="385" width="480"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/YUHSA6moRJw?fs=1&hl=en_US"><param name="allowFullScreen" value="true"><param name="allowscriptaccess" value="always"><embed src="http://www.youtube.com/v/YUHSA6moRJw?fs=1&hl=en_US" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="480" height="385"></embed></object> <br />
<br />
फ़िल्म- इश्क़िया <br />
संगीतकार- विशाल भारद्वाज <br />
गीतकार- गुलज़ार <br />
गायक- राहत फ़तेह अली ख़ान</div>Unknownnoreply@blogger.com