24 फ़रवरी, 2011

Patiala House: जाने ये कैसे लोग हैं!


चूंकि अक्षय कुमार की पिछली कुछ फिल्में देखने के बाद आप पहले से ही जानते होंगे कि पटियाला हाऊस एक खराब फिल्म है, इसलिए मैं चाहकर भी इसे रहस्य खोलने की तरह आपको नहीं बता सकता। मैं आपसे बस यह सवाल पूछ सकता हूं कि निखिल आडवाणी के गुरू करण जौहर दुनिया को कम जानते हैं या निखिल आडवाणी?
जो भी हो, दोनों के काम में बहुत सारी समानताएं हैं। दोनों अपनी कहानी सोचने के पहले मिनट से ही स्पष्ट रहते हैं कि यह अमेरिका या यूरोप की होनी चाहिए। उसमें भी वहां रहने वाले हिन्दुस्तानियों की, और कोशिश यह की जाए कि वे हिन्दुस्तानी सरदार हों। अब बार-बार यह होना हमें अच्छा तो नहीं लगता लेकिन हमारी शिकायत इससे नहीं है। हमारी शिकायत इससे है कि वे कोई एक भावना या विचार चुनकर उस पर फिल्म बनाते हैं और खुद ही उसे ठीक से नहीं जानते। जैसे पूरी फिल्म में सब किरदार सपना-सपना तो चिल्लाते रहते हैं लेकिन सपने टूटने के दर्द के तीन फीट दूर तक भी कोई नहीं पहुंच पाता। उन्हें निर्देशक ने कहा है कि कोई पन्द्रह मिनट ऐसे नहीं बीतने चाहिए, जिनमें सब लोग पंजाबी गानों पर नाचें नहीं, इसलिए फिल्म और उसके किरदार किसी भी स्थिति से गुजर रहे हों, थोड़ी-थोड़ी देर बाद बेवजह नाचने लगते हैं। ऐसी एनआरआई फिल्मों की एक और खास बात यह है कि इनमें अति-संयुक्त परिवार ही दिखाए जाते हैं और उनका महिमामंडन किया जाता है। ‘कल हो न हो’ की तरह निखिल कोशिश करते हैं कि उन बीसियों लोगों को अपनी अपनी खासियतों के साथ स्थापित कर सकें, लेकिन उनमें से ज्यादातर अपने जबरदस्ती के रोने या चिल्लाने से इतना पकाते हैं कि कम से कम कुछ को तो आप गोली ही मार देना चाहते हैं।
‘माई नेम इज खान’ की तरह निखिल भी यहां सिर्फ प्रवासी भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव से परेशान हैं। इसमें कोई बुराई नहीं लेकिन आपको हर बार सिर्फ उन्हीं की मुश्किलें क्यों दिखाई देती हैं? चलिए, दिखाई भी देती हैं तो आप उन्हें इतना लाउड होकर क्यों दिखाते हैं? आपको यही क्यों लगता है कि नस्लीय भेदभाव का इकलौता दर्द यही है कि किसी को अपने केश कटवाने पड़ते हैं और किसी को हिजाब छोड़ना पड़ता है?
खैर, हम निखिल की राजनैतिक समझ को उन पर ही छोड़ते हैं लेकिन दुख यही है कि उन्हें इंसानी मनोभावों की भी समझ नहीं है। उन्होंने अन्विता दत्त के साथ मिलकर ऐसे किरदार और डायलॉग रचे हैं, जिनसे किसी समझदार आदमी को सहानुभूति शायद ही हो। आपके पास बरसों पुराना सतही फॉर्मूला तो है कि एक पिता है, जिससे सारा परिवार डरता है और पिता इसे अपने प्रति प्यार समझता है। वह अपने बच्चों के दुखी होने को उनका शरमाना समझता है। लेकिन आप 2011 में भी सिर्फ इसी बात पर पचास लोगों वाले परिवार की कहानी की ढ़ाई घंटे की फिल्म खींच रहे हैं तो बेहतर है कि आप कोई टाइम मशीन खोजना शुरू कर दें, जो आपको किसी और समय, किसी और जगह पर ले जाए, जहां लोग कुछ भी बर्दाश्त कर सकते हों।