मैं नहीं जानता कि आपके लिए ‘गैंग्स ऑफ
वासेपुर’ गैंग्स की कहानी कितनी है, लेकिन मेरे लिए वह उस छोटे बच्चे
में मौज़ूद है, जिसने अपनी माँ को अपने दादा की उम्र के एक आदमी के साथ सोते हुए
देख लिया है, और जो उस देखने के बाद कभी ठीक से सो नहीं पाया, जिसके अन्दर इतनी आग
जलती रही कि वह काला पड़ता गया, और जब जवान हुआ, तब अपने बड़े भाई से बड़ा दिखता था।
फ़िल्म उस बच्चे में भी मौज़ूद है, जिसके ईमानदार अफ़सर पिता को उसी के सामने घर के
बगीचे में तब क्रूरता से मार दिया गया, जब पिता उसे सिखा रहे थे कि फूल तोड़ने के
लिए नहीं, देखने के लिए होते हैं। थोड़ी उस बच्चे में, जिसकी नज़र से फ़िल्म हमें
उसके पिता के अपने ही मज़दूर साथियों को मारने के लिए खड़े होने की कहानी दिखा रही
है। थोड़ी उस बच्चे में, जो बस रोए जा रहा है, जब बाहर उसके पिता बदला लेने का जश्न
मना रहे हैं। थोड़ी कसाइयों के उस बच्चे में, जिस पर कैमरा ठिठकता है, जब उसके और
उसके आसपास के घरों में सरदार ख़ान ने आग लगा दी है। फ़िल्म मेरे लिए उस कोयले की
खदान में भी जाकर ठहर गई है, जिसमें बारह घंटे से पहले रुकने पर खाल उधेड़ दी
जाएगी, जिसमें रोशनी कम है या हवा, यह ठीक से बताना मुश्किल है, और तब कभी-कभी
चमकती रोशनी में काले पड़े शरीर हैं, उस आदमी का चेहरा है, जिसे उस समय के बाद
हमेशा के लिए क्रूर हो जाना है, अपने लोगों को मारना है, उनके घर जलाने हैं और
शक्ति पानी है। और जब मरना है, तो अपने बेटे को उस आग में छोड़ जाना है, जिसमें वह
अपने बाल तभी बढ़ाएगा, जब अपने पिता के हत्यारे से बदला ले लेगा। और बदला नहीं
लेगा, कह के लेगा उसकी।
22 जून, 2012
वासेपुर की हिंसा हम सबकी हिंसा है जिसने कमउम्र फ़ैज़लों से रेलगाड़ियां साफ़ करवाई हैं
-
गौरव सोलंकी
15 जून, 2012
‘सफ़दर हाशमी हमेशा किसी मोहल्ले में थोड़े से लोगों के बीच ही मारे जाते हैं’: दिबाकर बनर्जी
‘शंघाई’ को रिलीज हुए तीन दिन हो चुके हैं। हम उन
लोगों से मिलना चाहते हैं, जिन्होंने बिना किसी शोरशराबे के, अचानक एक अनूठी
राजनैतिक फ़िल्म हमारे सामने लाकर रख दी है। ऐसी फ़िल्म, जो बहुत से लोगों को सिर्फ़
इसीलिए बुरी लग जाती है कि वह क्यों उन्हें झकझोरने की कोशिश करती है, उनकी
आरामदेह अन्धी बहरी दुनिया में क्यों नहीं उन्हें आराम से नहीं रहने देती, जिसमें
वे सुबह जगें, नाश्ता करें, काम पर जाते हुए एफ़एम सुनें जिसमें कोई आरजे उन्हें
बताए कि वैलेंटाइन वीक में उन्हें क्या करना चाहिए, किसी सिगनल पर कोई बच्चा आकर
उनकी कार के शीशे को पोंछते हुए पैसे मांगे तो उसे दुतकारते हुए अपने पास बैठे
सहकर्मी को बताएं कि कैसे भिखारियों का पूरा माफ़िया है और वह सामने जो एक तीन साल
के बच्चे की पसलियां उसके शरीर से बाहर आने को हैं, वह दरअसल एक नाटक है। फिर ऑफिस
में पहुंचें और वे काम करें जिनके बारे में उन्हें ठीक से नहीं पता कि किसके लिए
कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं, थककर बड़ी सी गाड़ी में अकेले लौटें - ट्रैफ़िक को
कोसते हुए, टीवी देखते हुए हँसें रोएं और वीकेंड पर उम्मीद करें कि जब किसी बड़े
रेस्तरां से पिज़्ज़ा खाकर निकलें तो एक मल्टीप्लेक्स में ऐसी कोई फ़िल्म उनका इंतज़ार
कर रही हो, जो उनकी सारी कुंठाओं, निराशाओं, पराजयों को जादू से चूसकर उनके जिस्म
और आत्मा से बाहर निकाल दे। फ़िल्म ही उनकी रखैल बने, उनकी नौकर, उनका जोकर।
-
गौरव सोलंकी
09 जून, 2012
'शंघाई' हमारी राष्ट्रीय फ़िल्म है
एक लड़का है, जिसके सिर पर एक बड़े नेता देश जी का हाथ है। शहर के शंघाई बनने की
मुहिम ने उसे यह सपना दिखाया है कि प्रगति या ऐसे ही किसी नाम वाली पिज़्ज़ा की एक
दुकान खुलेगी और ‘समृद्धि इंगलिश
क्लासेज’ से वह अंग्रेजी सीख
लेगा तो उसे उसमें नौकरी मिल जाएगी। अब इसके अलावा उसे कुछ नहीं दिखाई देता। जबकि
उसकी ज़मीन पर उसी की हड्डियों के चूने से ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं, वह देश जी
के अहसान तले दब जाता है। यह वैसा ही है जैसी कहानी हमें ‘शंघाई’
के एक नायक (नायक कई हैं) डॉ. अहमदी सुनाते हैं। और यहीं से और इसीलिए एक विदेशी
उपन्यास पर आधारित होने के बावज़ूद शंघाई आज से हमारी ‘राष्ट्रीय फ़िल्म’ होनी चाहिए क्योंकि वह कहानी और शंघाई की कहानी हमारी
‘राष्ट्रीय कथा’ है। और उर्मि जुवेकर और दिबाकर इसे इस ढंग से
एडेप्ट करते हैं कि यह एडेप्टेशन के किसी कोर्स के शुरुआती पाठों में शामिल हो
सकती है।
-
गौरव सोलंकी
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