तिग्मांशु धूलिया के पास कुछ ऐसी चीजें हैं जो उनकी शैली की फिल्में बनाने वाले समकालीन फिल्मकारों के पास उस तरह से नहीं हैं। अनुराग और विशाल के पास आपराधिक डार्क ह्यूमर हैं लेकिन अनुराग उनकी कहानियाँ कहते कहते थोड़ा शहर की तरफ बढ़ जाते हैं और विशाल गाँव की तरफ। अपनी पहली फिल्म ‘हासिल’ की तरह तिग्मांशु छोटे शहर या कस्बे को बेहद विश्वसनीय ढंग से दिखाते हैं। हैरत की बात यह है कि इस बार वे पुरानी दिल्ली में उसे खोजते हैं। इस तरह उनकी पूरी फिल्म मिट्टी के रंग की हो जाती है।
14 मई, 2011
04 मई, 2011
शोर in the City: वे आपका भेजा उड़ाएँगे और दिखाएँगे कि शहरों से मोहब्बत कैसे की जाती है
‘शोर इन द सिटी’ बॉलीवुड की कमबैक फ़िल्म है। बस इस कथन में से थोड़ी सी अतिशयोक्ति कम कर दें तो जो बचता है, बिल्कुल वही। मुम्बई की भीड़ में भी यह किसी बच्चे की पहली साँस जितनी ताज़ी है। यह शोर में सुकून तलाशती है और पाती भी है। यह अपने शहर से रूठती है और मान भी जाती है। उसे कोसती भी है और दुआएँ भी देती है। शहर चुप मुस्कुराता रहता है और किसी सुहानी शाम में उसे जी भर के चूमता है।
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गौरव सोलंकी
03 मई, 2011
थोड़ा नीम, जिससे शहद बनेगा
ओनीर जितने फ़िक्रमंद फ़िल्मकार कम ही होते हैं. अपनी पहली फिल्म ‘माई ब्रदर निखिल’ में उन्होंने एक ऐसी कहानी सुनाई थी जिसे कहने सुनने वाले बहुत कम लोग हैं. उसके बाद वे ‘बस एक पल’ और ‘सॉरी भाई’ से होते हुए फिर वहीं लौट आए हैं. वे कहानियाँ कहते हुए, जिन्हें कहा जाना बहुत ज़रूरी है लेकिन कोई कह ही नहीं रहा. और यह लौट आना कोई व्यावसायिक लौट आना नहीं है. ओनीर ‘आई एम’ की कहानियाँ ऐसे स्नेह से सुनाते हैं जैसे यही उनका असली घर हो.
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गौरव सोलंकी
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