15 जून, 2012

‘सफ़दर हाशमी हमेशा किसी मोहल्ले में थोड़े से लोगों के बीच ही मारे जाते हैं’: दिबाकर बनर्जी

शंघाई को रिलीज हुए तीन दिन हो चुके हैं। हम उन लोगों से मिलना चाहते हैं, जिन्होंने बिना किसी शोरशराबे के, अचानक एक अनूठी राजनैतिक फ़िल्म हमारे सामने लाकर रख दी है। ऐसी फ़िल्म, जो बहुत से लोगों को सिर्फ़ इसीलिए बुरी लग जाती है कि वह क्यों उन्हें झकझोरने की कोशिश करती है, उनकी आरामदेह अन्धी बहरी दुनिया में क्यों नहीं उन्हें आराम से नहीं रहने देती, जिसमें वे सुबह जगें, नाश्ता करें, काम पर जाते हुए एफ़एम सुनें जिसमें कोई आरजे उन्हें बताए कि वैलेंटाइन वीक में उन्हें क्या करना चाहिए, किसी सिगनल पर कोई बच्चा आकर उनकी कार के शीशे को पोंछते हुए पैसे मांगे तो उसे दुतकारते हुए अपने पास बैठे सहकर्मी को बताएं कि कैसे भिखारियों का पूरा माफ़िया है और वह सामने जो एक तीन साल के बच्चे की पसलियां उसके शरीर से बाहर आने को हैं, वह दरअसल एक नाटक है। फिर ऑफिस में पहुंचें और वे काम करें जिनके बारे में उन्हें ठीक से नहीं पता कि किसके लिए कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं, थककर बड़ी सी गाड़ी में अकेले लौटें - ट्रैफ़िक को कोसते हुए, टीवी देखते हुए हँसें रोएं और वीकेंड पर उम्मीद करें कि जब किसी बड़े रेस्तरां से पिज़्ज़ा खाकर निकलें तो एक मल्टीप्लेक्स में ऐसी कोई फ़िल्म उनका इंतज़ार कर रही हो, जो उनकी सारी कुंठाओं, निराशाओं, पराजयों को जादू से चूसकर उनके जिस्म और आत्मा से बाहर निकाल दे। फ़िल्म ही उनकी रखैल बने, उनकी नौकर, उनका जोकर।

जब हर महीने बेशर्मी से कितनी ही फ़िल्में सिर्फ़ इसी मक़सद से बनाई जा रही हों कि उन्हें देखने वाले अपने जीवन को, अपने आप को कभी न देख पाएं (क्योंकि देख लेंगे तो मर जाएंगे), तब शंघाई लगभग बिना किसी समझौते के आती है, बिना किसी मेकअप के, बिना किसी हाय हाय और वाह वाह के, और सीधी खड़ी रहती है।

एक समय तक पलायन का पर्याय बन चुके हिन्दी सिनेमा का यह मुस्कुराता हुआ हौसला हम सबका हौसला बढ़ाने वाला है। इसीलिए हम उसके निर्देशक दिबाकर बनर्जी, उनकी सह-लेखिका उर्मि जुवेकर और उन सब नींव की ईंटों से मिलना चाहते हैं जो इस विचार को अन्दर की बेचैनी से परदे तक लेकर आए हैं, जो इस सपने का हिस्सा बने हैं, जिसे ख़ुद से ज़्यादा हमारी साझी दुनिया की फ़िक्र है।

हम लालबाग की एक इमारत की पहली मंजिल पर स्थित दिबाकर बनर्जी प्रोडक्शंस के दफ़्तर पहुँचते हैं। यहाँ कभी एक पुर्तगाली चर्च हुआ करती थी। मुंबई की लगभग सभी जगहों की तरह, और उससे कहीं ज्यादा, नीचे अक्सर
ढिकचिक ढिकचिक शोर सुनाई देता है, और यह एक किस्म का शंघाई का भारतनगर ही है। दिबाकर कहते हैं कि उन्हें इस शोर की उसी तरह आदत हो गई है, जैसे हमारे समाज के एक बड़े हिस्से को नहीं सोचने की आदत हो गई है। 

शंघाई टीम (बाएं से दाएं): रिशिका उपाध्याय (निर्देशक की सहायक), उर्मि जुवेकर (लेखिका), प्रिया श्रीधरन (निर्मात्री), वन्दना कटारिया (प्रोडक्शन डिजाइनर), वसीम ख़ान (कार्यकारी निर्माता), ज़ुल्फ़िकार (एसोसियेट प्रोडक्शन डिजाइनर), दिबाकर बनर्जी (निर्देशक)
 (यहाँ दिबाकर शंघाई की प्रतिक्रिया में आया एक मज़ेदार एसएमएस पढ़कर सुना रहे हैं ) सभी फ़ोटो: तुषार माणे 



यहीं हम घुंघराले बालों वाली वन्दना कटारिया से मिलते हैं, जो फ़िल्म की प्रोडक्शन डिजाइनर हैं और जिन्हें ओए लकी लकी ओए के लिए फ़िल्मफ़ेयर मिल चुका है। कर्फ़्यू और दंगों के इतने विश्वसनीय दृश्यों के लिए हम उन्हें शुक्रिया कहते हैं। कम बोलने वाले ज़ुल्फ़ी सहायक प्रोडक्शन डिजाइनर हैं और वे और वन्दना हमें फ़िल्म के जोगी के स्टूडियो-कम-घर के सेट के बारे में बताते हैं, जो 110 साल पुरानी एक इमारत में बनाया गया था। उन्हें अपना सैट बनाने के लिए उसकी एक दीवार तोड़नी थी और यह सब बहुत मुश्किल से किया जा सका क्योंकि वह इमारत इतनी कमज़ोर थी कि उसकी छत पर चलते थे, तो नीचे मिट्टी गिरती थी। प्रोडक्शन के लिहाज से उनके पास हर कारण था कि किसी और जगह चले जाएं, लेकिन स्क्रिप्ट के लिहाज से वह सबसे मुफ़ीद लोकेशन थी। यह फ़िल्म को प्रामाणिक बनाए रखने की उनकी ज़िद ही थी कि वह दीवार तोड़ी गई और उस घर की हर चीज अपने मुताबिक बनाई गई, भले ही इस दौरान हर दीवार हिलती रही हो। हाँ, चूंकि जोगी पॉर्न फ़िल्में शूट करता है, इसलिए दिबाकर ने उन सब को पॉर्न फ़िल्मों की एक सीरिज भी दिखाई थी, जिसमें अभिनेता बदल जाते थे, लेकिन बिस्तर और परदा वही रहता था। उन लोगों ने उस घर के एक कोने में वैसा ही बिस्तर और परदा भी लगाया।

हम फ़िल्म के कार्यकारी निर्माता वसीम ख़ान से मिलते हैं, जो बकौल दिबाकर, फ़िल्म के crowd controller, bouncer, people beater, action designer, camera equipment designer, grip manager भी हैं।

वसीम के पास बताने को इतना कुछ है, जो हमें आपको भी बताना चाहिए और जो फ़िल्म-निर्माण का सबसे बड़ा नियम बताता है कि बड़ी फ़िल्म बड़े बजट की नहीं, बड़े दिमाग की मोहताज होती है।

एक दंगे का सीन था, जिसमें छोटी छोटी गलियों से लोग आ रहे हैं और पुलिस आंसू गैस छोड़ रही है। तो उसके लिए हमें चाहिए था कि कैमरा चारों तरफ घूमे, उसके लिए इक्विपमेंट बहुत महंगा पड़ता। तो हम एक लोकल दुकान में गए जहां बैग वैग सिलते थे। एक पैराशूट क्लॉथ होता है, थोड़े अच्छे बैग्स में लगता है। एक कुर्सी बनाई जो वैल्डिंग करके ट्रक से जोड़ी गई। क्लैम्प्स वाला पूरा हार्डवेयर बनाया एक बंजी जंपिंग जैसा। क्योंकि आप बम्बई के किसी ग्रिप वाले से उसे किराए पर लोगे तो पूरी फ़िल्म का बजट उसमें चला जाएगा। बहुत बड़ा तामझाम होता, उसके साथ बहुत सारे लोगों की ज़रूरत पड़ती। हमने एक खुला ट्रक लिया। उसमें केबल लटकाया ऊपर से, मैं केबल से लटका हुआ था, डीओपी की कुर्सी पकड़कर, ताकि वे कैमरा लेकर फ़्री बैठ सकें, और 360 डिग्री घूमते रहें। और साथ ही कैमरा ऊपर और नीचे भी मूव कर रहा था। 

ऐसे ऐक्शन वाले सीन होते हैं तो एक तो हमें उनमें बहुत अंडरप्ले करना पड़ता है। और इतना ध्यान रखना था कि इस गली के सामने से जब गए तो 30-40 लोग दौड़ के आए दंगे वाले, फिर आगे गए तो ये देखना था कि उस समय कैमरा किस तरफ है। तो टाइमिंग का इतना ध्यान रखना था कि किस पल इस गली से कितने लोग निकलेंगे, उस से कितने निकलेंगे और ठीक उसी वक्त पुलिस वाला आंसूगैस छोड़ेगा।

आप किसी आम फिल्म में भीड़ देखेंगे तो शूटिंग देखने वाले लोग भी आ जाएं तो फ़िल्म वालों का फ़ायदा है, भीड़ बढ़ती है। लेकिन हमारी प्रॉब्लम यह थी कि अगर कोई बंदा दंगे नहीं कर रहा है और कैमरा में देख रहा है तो हमारा तो पूरा शॉट बिगड़ गया। जहां लोग गोलियां मार रहे हैं, वहां कोई खड़े होकर कैमरा में तो देखेगा नहीं ना। तो इस वजह से उस गोलाई में घूमने वाले सीक्वेंस में हमें बहुत रीटेक करने पड़े।

एक हमने काफ़ी अच्छा सीक्वेंस किया था जिसमें कॉरीडोर में वॉक थी, घायल अहमदी को शालिनी और बाकी लोग स्ट्रेचर पर लेकर दौड़ते हुए आते हैं। उसके लिए अक्सर स्टैडीकैम यूज करते हैं। व्हीलचेयर पर बैठकर शूट करने का तरीका बहुत लोग इस्तेमाल करते हैं, लेकिन हमने उसे भी थोड़ा बदला। डीओपी को व्हीलचेयर पर उल्टी तरफ चेहरा करके बिठाया ताकि उन्हें घूमने की पूरी आज़ादी मिल सके। हमने रिफ्लेक्टर बोर्ड भी लगाए व्हीलचेयर पर, ताकि ऐक्टर्स के चेहरों पर लाइट ठीक से पड़ सके।

तो हम पीछे से व्हीलचेयर को खींच रहे थे, डीओपी उस पर कैमरे के साथ बैठे थे, और शालिनी और बाकी लोग उसे धकेल रहे थे। जबकि आपको लगता है कि वे स्ट्रेचर को ले जा रहे हैं।


इसके बाद मैं, उर्मि और दिबाकर बचते हैं। मैं उनसे उनके अभिनेताओं की बात करता हूं, ख़ासकर इमरान हाशमी से इतनी अच्छी ऐक्टिंग करवा लेने की, और तब वे कहते हैं कि यह अभय के लिए कितना ग़लत है कि बहुत से लोग उनके काम को सिर्फ़ इसलिए अनदेखा कर रहे हैं क्योंकि वे तो हमेशा ही अच्छी ऐक्टिंग करते हैं। वे कल्कि की भी बात करते हैं, जिन्हें उन्होंने बहुत देर में चुना था। वे किसी और अभिनेत्री को लेना चाहते थे लेकिन ऐसी कोई ऐक्ट्रेस उन्हें नहीं मिली, जो सहानुभूति जगाने की कोशिश किए 
बिना वह रोल कर सके। कल्कि ने वह किया। 

उर्मि जब
शंघाई के बारे में बोलती हैं तो आप उनकी आँखों में पूरी फ़िल्म देख सकते हैं अडिग गुस्सा और समझदार फ़िक्र लेकिन धैर्य और शांति भी, और इतना कुछ बचा हुआ कि लगता है कि बहुत सी शंघाई अभी बाकी हैं। दिबाकर की बहुत भीतर की परत में कहीं न कहीं एक बौद्धिक उदासी है, लेकिन ऊपर मुस्कुराता-ठहाके मारता एक पैनापन है और वे स्कूल के उस लड़के की तरह लगते हैं, जिसे आप शरारत करते पकड़ेंगे तो सोच भी नहीं पाएंगे कि वह निबन्ध प्रतियोगिता में फ़र्स्ट आता होगा। दोनों के बीच इतनी गहरी समझ दिखती है कि ऐसा लगता है कि उर्मि स्क्रिप्ट के स्केच बनाती होंगी तो दिबाकर उनमें रंग भरते होंगे और कभी-कभी ज़्यादा भरते होंगे तो उर्मि उन्हें सँभाल लेती होंगी।  

यूं तो हमें शंघाई और उसके विचार पर ही बात करनी थी, लेकिन डेढ़ घंटे बाद हम पाते हैं कि हम महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह से लेकर सफ़दर हाशमी, मेधा पाटकर और उड़ीसा के जलते हुए मिशनरियों तक पहुँच गए हैं, हम रामायण, पाथेर पांचाली और अमेरिकन गैंगस्टर की भी बात करते हैं और मासूम लकी के उन्माद की भी, हम घिसे हुए कॉर्पोरेट क्लास के लिए भी परेशान होते हैं और एक बुलबुले में रहने की आदत पाल चुके हम सब के लिए भी। यह बातचीत एक फ़िल्म की बात के अलावा यह समझने की भी कोशिश है कि हम सब किधर जा रहे हैं। मैं इसमें कम से कम दख़ल देता हूं और उर्मि और दिबाकर को बात करने देता हूं कि शंघाई कैसे बनी, और कैसे वे ऐसे बने कि शंघाई बनाएँ।

दिबाकर
मेरे दिमाग में तो हलवा बन गया है। मुझे कुछ याद नहीं है। उर्मि को शुरू से आखिर तक सब याद है..कि कितने गन्दे गन्दे ड्राफ्ट लिखे...मैंने! (मैंने पर वज़न देते हैं)
उर्मि - आइडिया दिबाकर का था। ओए लकी ख़त्म हुई तो दिबाकर ने कहा कि मैं ज़ी जैसी एक पॉलिटिकल फिल्म बनाना चाहता हूं।

दिबाकर - ऑल द प्रेजिडेंट्स मैन और ज़ी, दोनों का ज़िक्र हुआ था। उर्मि ने तब नॉवल भी पढ़ा था। मैंने तब तक नहीं पढ़ा था।

उर्मि - मेरा ज़ी का सपना था, और बतौर लेखक चाहती थी कि ऐसी फ़िल्म लिखूं। इन्होंने कहा कि मुझे बनानी है तो I was very upset..कि नहीं नहीं, ये तो मुझे लिखनी है। उसके बाद इन्होंने कहा कि ठीक है, लिखो। तो एक बहुत ही गन्दा सा हमने पहला ड्राफ़्ट लिखा। सोचते साथ हैं, लेकिन असल लिखने का काम अलग अलग ही करते हैं हम। इन्होंने लिखना शुरू किया और मैंने पूरा किया। बहुत खराब सा ड्राफ़्ट था। क्योंकि उसमें सब कुछ बहुत स्पष्ट था, सारी राजनीति।

कहानी बहुत सिंपल थी। आज आप ज़ी देखें तो उसका जो रिविलेशन था कि नेता करप्ट होते हैं। वो बहुत बड़ा रिविलेशन था। वहां यूरोप ने बहुत कदम उठाए थे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद। उनके लिए वह ऐसा वक्त था कि सब कुछ ठीक होना चाहिए था। लेकिन वह हुआ नहीं। तो उस वक्त की जो निराशा थी, आज वह हमारी नहीं है। हमको सब पता है। पुलिस भी देखते हैं तो करप्ट होती है, नेता भी। लेकिन पहले ड्राफ़्ट में वे सारी चीजें आ गई। और फिर बैठ के देखा और लगा कि लिख तो लिया है, लेकिन ये करना नहीं है हमें।

दिबाकर - वो क्यूं लगा? मैं इंटरव्यू लूंगा।

उर्मि - वो इसलिए लगा कि...मुझे जो लगता है कि कहानियां क्या होती हैं..जैसे हमको कुछ और रामायण पता है..साउथ में रावण के दृष्टिकोण से रामायण लिखी गई है..तो कहानी वही, लेकिन जिस तरह से आप उसे कहते हो, उसी से वो बदलती है। इंसान की एक और परिभाषा जो मुझे अच्छी लगती है कि वह कहानी बोलने वाला प्राणी है। हम हर चीज की कहानी बोलते हैं। हमें वे कहानियां बड़ी अच्छी लगती हैं जिनमें सारे दुष्ट मर जाते हैं या विक्टिम
mode वाली, जिनमें अच्छे लोग मर जाते हैं। पहला ड्राफ़्ट बहुत इवेंटफ़ुल था, लेकिन कहानी नहीं थी।

दिबाकर - दो तरह की कहानियां होती हैं। एक आपको बताती हैं-
What! (आँखें बड़ी-बड़ी करके फुसफुसाते हुए) ओह्ह! उसका ब्रदर इन लॉ मर्डरर है! दूसरी होती हैं How कहानियां। जैसे पहली बार ही आर्यावर्त में बैठकर किसी ने रामायण की कहानी सुनाई, तो सबको पता था कि रावण मरने वाला है। लेकिन जब चार घंटे का कथावाचन होता है, उस चार घंटे में आप दर्शक को ये भुला देते हैं कि रावण मरने वाला है। और तब, जब आखिर में रावण मरता है तो बहुत इमोशनल लगता है। तो ‘How’ कहानी मुझे सुपीरियर लगती है, शायद भरत के नाट्यशास्त्र में भी यही होगा, पढ़ा नहीं मैंने।

तो पहले हमने
‘What’ कहानी लिखी थी। क्या तो बड़ी क्लीशेड सी स्टोरी होती है (स्वर में हैरत और आनंद) ओ बेटा जी, ट्विस्ट आ गया!

उर्मि - तो हमने सोचा कि ये तो बहुत लोग बोल चुके हैं।

दिबाकर
हमने नहीं। मैंने जब लिखी पहली बार, और मैंने जब लिखने के बाद उसे देखा तो थूSSका...

उर्मि - उस
अब क्या होगा में एक ऐसा मूमेंट आ गया था कि ट्विस्ट चाहिए तो इसमें तो मैडम जी और अहमदी को भाई-बहन होना चाहिए, उसी से ड्रामा होगा।

दिबाकर - लेकिन वे सब फ़ेक ट्विस्ट आ रहे थे।
उर्मि एक बात बहुत क्लीयर हो गई पहले ड्राफ़्ट के बाद कि जब तक कहानी अन्दर से नहीं देखते...

दिबाकर
एक उदाहरण दूं। मैडम जी को खबर मिल जाती है कि अभय ये सब करने वाला है तो वे राजधानी की ओर जाती हैं कि मैडिकल ग्राउंड पे पहले ही जमानत ले लें। और वो चेज सीक्वेंस था। अलग सा चेज सीक्वेंस है। कृष्णन गाड़ी में पीछे आता है और आगे खड़ी करके रोक लेता है। उन्हें सम्मन देता है। उनको उनके पार्टी चीफ़ से फ़ोन आता है कि आप प्लीज़ सम्मन पे दस्तख़त कर दीजिए। वही एंड था। वो बड़ा ओवर ड्रैमेटिक एंड था। जोगी पत्रकारों को लेकर आता है उसमें वहाँ। अब तो हमने शंघाई देख ली है, इसलिए बताने में अच्छा लग रहा है। कि ये भी अच्छा ही करते कुछ। ये नहीं कह रहा कि अब कोई ग्रेट चीज है फिल्म, लेकिन इस तरह के सीन में बहुत स्पष्ट था।

एक सीन था, जग्गू को फ़ार्महाऊस में ले गए थे पकड़ के कि ज़्यादा बोलेगा तो मार देंगे। जोगी को भी वहाँ बुलाते हैं, गोलियाँ चलती हैं लेकिन वह किसी तरह जग्गू को बचा लाता है।

(कहते हुए सोचने लगते हैं और एक मज़ाकिया पछतावे के साथ अचानक-) अरे, ये तो सुपरहिट फिल्म लग रही है यार!

उर्मि - दिबाकर और मैं बार बार ये भी सवाल कर रहे थे कि हम कर क्या रहे हैं। जो हमारे आसपास हो रहा है, उस पर कैसे रिएक्ट कर रहे हैं हम। धीरे-धीरे, काफ़ी लेट आई ये बात, कि जो हम असल में कहना चाहते हैं, वह तभी हो पाएगा, जब हम सारा ड्रामा निकाल दें, और कहानी सिर्फ़
क्यों पर चलाएं। और चूंकि सब कुछ आपको थोड़ा थोड़ा ही पता चलता है, पूरा नहीं पता चलता। तो कुछ ही लोगों की आँखों से दिखाएं फ़िल्म। मैडम जी का प्लान क्या था, ये आपको पूरा कभी नहीं पता चलता।

गौरव
लेकिन खोसला का घोंसला या शंघाई देखें तो लगता है कि दिबाकर को फ़िल्म सिर्फ़ पॉजीटिव किरदारों की आँखों से दिखाना ही पसन्द है। नेगेटिव किरदार उनमें तभी आते हैं, जब पॉजीटिव उनसे मिलते हैं..

उर्मि
शंघाई में मुझे नहीं लगता कि कोई बहुत पॉजिटिव किरदार है,

गौरव - पॉजीटिव मतलब वे लोग, जो जानबूझकर किसी का नुकसान नहीं कर रहे। 

दिबाकर - क्योंकि आप उसकी नज़र से देख रहे हैं, इसलिए आपको ऐसा लगता है कि वह पॉजीटिव है। आप उसे समझ गए हैं। अगर मैडम जी की नज़रों से ये देखेंगे तो पूरी कहानी ही बदल जाएगी। कैसे मैडम जी सत्ता में आई, कैसे उनके साथ क्या हुआ, उन्होंने क्या किया।

ओए लकी में जब हमने चोर को पकड़ा, उसकी कहानी दिखाई, इसीलिए आपको लगता है कि वह हीरो है। लेकिन अगर मैं उस पुलिस वाले के पॉइंट ऑफ व्यू से लेता तो वह हीरो होता। और अगर मैं
अमेरिकन गैंगस्टर की तरह दोनों के पॉइंट ऑफ व्यू से कहानी लेता, तो कहानी किसी की नहीं बनती। कहानी जब ख़त्म होती है, तब कोई छाप नहीं छोड़ती। देखने में अच्छी लगती है पर किसी की नहीं है।

आपकी यह बात भी सही है कि किसी भी लेखक को उन्हीं किरदारों की नज़रों से कहानी लिखना अच्छा लगेगा, जो उसे थोड़े पॉजीटिव लगते हैं। लेकिन चालीस प्रतिशत यह भी बात है कि उसकी नज़रों से देखा, इसलिए वह पॉजीटिव लगने लगा।

उर्मि - अभय भी एक पॉइंट के बाद ही अच्छा आदमी लगता है आपको। तब तक तो वो आपको ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा ही लग रहा होता है।

दिबाकर की सारी फिल्मों में यह दरअसल उसकी कहानी है, जिस पर असर हो रहा है और जो उस पर रिएक्ट करेगा।

दिबाकर - पहले मैडम जी के कई सीन थे। देश जी के साथ उनकी प्लानिंग और सब। और उस से सब क्लीयर भी हो जाता है। लेकिन यह एक तरह की
dichotomy है कहानी कहने में कि जैसे ही ज्यादा क्लीयर कर देते हैं, वो प्रभाव नहीं रहता। चूंकि आज तीन दिन हो गए हैं, तो लोगों से जो हम सुन रहे हैं कि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद जब हॉल से बाहर निकल रहे हैं तो सब चुप हैं, साँसों की आवाज़ सुन रही है, ज़्यादा बातें नहीं हो रही हैं।
उसके बाद बहुत बड़ी डिबेट हो रही है। लेकिन वह सब होता तो शायद सब ख़ुश होते और इसे बहुत अच्छी फ़िल्म बताते। अब यह
dichotomy है कि कौनसा रिएक्शन आपको ज़्यादा अच्छा लगता है।

उर्मि - बात वह है कि फ़िल्म क्यों बना रहे थे? हम क्या जानना चाह रहे थे, कौनसी कहानी कहना चाह रहे थे? आज मुझे लगता है कि कहीं पे ये
bubble की स्टोरी थी। जो भी चीजें उस वक्त मेरे साथ हुई, थोड़ी पहले या बाद में। श्रीकृष्ण कमीशन रिपोर्ट पढ़ा। कोर्ट गई जहां पे मैंने दोनों तरफ से जजेज का बिहेवियर देखा, एक तो लैटर वाला, टोटली इनडिफ़रेंट कि ये जो सामने है, इस पर मैं नहीं सोचूंगा। और दूसरा, जो उन्होंने देखा कि ये मैच नहीं हो रहा है और फिर आगे पूछताछ करने की कोशिश की। अभय का किरदार, और कुछ लोग बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं, वो बहुत इम्पॉर्टेंट रहा हमारे लिए। कम से कम मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा। कि कुछ लोग ये क्यों करते हैं? आपके फ़ादर को मारा नहीं है, आपकी बहन का भरे चौराहे पर नंगा करके रेप नहीं किया गया। तब आप क्या करेंगे?

यह प्रॉब्लम है कि आज की दुनिया बहुत प्राइड लेती है,
in being cool. I don’t give a damn..I don’t give a fuck.. मेरे लिए यह बहुत प्रॉब्मलेटिक है क्योंकि मैं एक जनरेशन पुरानी हूं। How can you say that?

आप अपने दोस्तों के साथ जाओ और हॉल में कोई लगातार मोबाइल पर बात कर रहा है और आप उसे कहते हैं कि चुप करो..तो आपके दोस्त बोलेंगे कि यार, उर्मि के साथ फिल्म देखने नहीं जाना है। वो झगड़ा उठाती है। ये कूल होना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है हमारे लिए। कि हम केयर नहीं करते।

कहीं न कहीं ये बात फ़िल्म में है। कि तीनों कैरेक्टर्स को फिल्म में केयर करने की ज़रूरत नहीं है। उनको बहुत पर्सनल नुकसान नहीं हुआ है। कल्कि की जगह अरुणा अहमदी होती तो आपको ज़्यादा भाता क्योंकि वो डायरेक्ट होता। लेकिन मेरे लिए फ़िल्म न्याय की कहानी है, न कि बदले की। उसी ने हमें राह दिखाई और हम यह फ़िल्म बना सके। न्याय बौद्धिक है, जबकि बदला इमोशनल है।

उस वक्त जेसिका लाल केस भी बन्द हुआ था। हमें लगा कि आपके दरवाजे पर तूफान आ गया, आपकी पूरी ज़िन्दगी भी बदल दी। जेसिका की बहन को इंसाफ तो मिला, लेकिन उसके बाद क्या? कि हो गया ना, एक मामला इंसाफ़ पे ख़त्म हो गया, लेकिन कुछ अभी भी बाकी है। और मुझे लगता है कि दर्शकों ने भी वह समझा है कि कुछ है, जो अभी पूरा नहीं हुआ है। मैं इसके लिए दिबाकर को क्रेडिट देती हूं क्योंकि ये सारी चीजें स्क्रिप्ट में नहीं थी, इमोशनली थी, सब्टेक्स्ट में थी। और ये सब सीधे बोलेंगे तो फिर तो ये पीएचडी थीसिस हो जाएगी ना। लेकिन आप फिल्म को दो तीन बार देखें तो आपको बहुत सी चीजें और समझ में आएंगी, बाकी के साउंड कोड्स, जो टेक्स्ट में नहीं हैं। लेकिन इन्होंने जैसे शूट किया, जैसे ऐक्टर्स को डायरेक्ट किया, उससे आया वो।

गौरव
कोई ख़ास तरीका रहता है इस तरह सबटेक्स्ट ऐड करने का?

दिबाकर
इसका काफ़ी फूहड़ तरीका होता है। सारे निर्देशक अपने पसंदीदा सीन, चाहे फिल्म कोई भी हो, अपने एक पिटारे में रखते हैं, और कहीं भी मौका और जगह देखकर उसे घुसाने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब आप एक बेहद बेरहम लेखक या एडिटर के साथ काम करते हैं, तो वे बस सार्थक इनक्लूजन को ही उनमें रहने देते हैं।

हाल ही में एक फ़िल्म आई थी, नाम नहीं लूंगा, लेकिन उसमें निर्देशक ने अपनी सारी इंस्पिरेशन की भड़ास एक ही फ़िल्म में निकाली। उससे रामायण, महाभारत, गॉडफादर, सब एक ही फ़िल्म में आ गया। थप्पड़ भी पड़ रहा है पुलिस से, द्रोणाचार्य भी आ रहे हैं, सब एक ही फ़िल्म में। उससे पता नहीं लगता कि फ़िल्म किधर जा रही है।

तो निर्देशक जीवन भर जो ऑब्जर्व करता है, जो दृश्य और यादें उस पर छाप छोड़ जाती हैं, ये उसके श्याणेपन पे डिपेंड करता है कि वह किस तरह अदृश्य रूप से इसे सीन में घुसा दे और उसी सीन में घुसाए, जहाँ पर इसका मतलब है। जैसे जब कल्कि और अभय इंक्वायरी कमेटी के ऑफिस से बाहर निकलते हैं और गीले फ़र्श पर फिसलने को होते हैं, वह लिखते लिखते ही हमें समझ में आ गया था कि सार्थक है। या जैसे बॉल आ जाती है।

उर्मि - ये सब चीजें स्क्रिप्ट में दिबाकर ने जोड़ीं। मुझे पता था कि ये इंक्वायरी कमीशन एक मज़ाक भर है, लेकिन इसे लिखें कैसे? लिखें तो मुझे किसी को बोलते हुए दिखाना पड़ेगा..

दिबाकर - (नाटकीय अंदाज़ में) ये तमाशा है, यहां कुछ नहीं होने वाला..

उर्मि - लेकिन जब वहाँ बॉल आ जाती है, तो आपको कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं रहती। सबटेक्स्ट यही है।

दिबाकर
एक बात बताऊं, ये मुझे भी नहीं पता होता। मामला इतना इंस्टिंक्टिव होता है। अभी ये बोल रही हैं तो मुझे इतनी डीटेल में समझ आ रहा है। लेकिन तब इतना नहीं सोचा, ठीक लगता है रखना बस। बॉल तो बहुत अच्छी जाँच कर रहे कमीशन में भी आ सकती है। लेकिन मैं वहाँ दिखाऊंगा नहीं। मैं काम पे चला जाऊंगा। लेकिन फिर भी इतनी डीटेल्ड सोच मेरे दिमाग में इस से पहले नहीं आई थी।

उर्मि - जैसे टीना का हाईहील्स पहन के आना उस एयरपोर्ट पर और गिरने को होना, आप क्या लिखोगे उसे? आगे का सीन तो लिखा है, एक एक्ट्रेस आती है, ये लिखा हुआ है। लेकिन वह जो शॉट है, वह सबटेक्स्ट है। अगर उसे नॉर्मली शूट किया जाता कि एक एक्ट्रेस आकर पत्रकारों से बात करने लगती है, तो वो विडम्बना निकल जाती।

गौरव - जोगी नल ऑन करता है तो पानी नहीं है, ये था स्क्रिप्ट में?

दिबाकर
ये नहीं था। वह इसलिए आया कि उस संडास में वॉशबेसिन तक नहीं था। हमने सेट वाला वॉशबेसिन लगाया। ऐसे मौकों पर हमें ही पानी की टंकी लगानी होती है और निकास की व्यवस्था करनी होती है। लेकिन मेरी प्रोडक्शन डिजाइनर ने कहा कि बजट नहीं है, न ही आपको पानी की टंकी मिलेगी और न ही पानी का निकास। तो बस बिना पानी का वॉशबेसिन मिला। वहाँ से आइडिया आया कि कृष्णन का तो चपरासी है, वो मिनरल वॉटर से उसके हाथ धुलाएगा। जोगी के लिए पानी नहीं होगा।  

जैसे सीन 1 से 80 हैं। वैसे ही सीन 1.5 से 80.5 हैं। हमने फ़ाइनली स्क्रिप्ट में 1 से 80 अलग कर दिया और 1.5 से 80.5 अलग। जैसे आईपैड में होता है, (हाथ के इशारे से बताते हैं) आधे ऊपर चले गए और आधे नीचे चले गए। इस तरह जब इवेंट वाले मेन सीन कट गए, तब हमने इंटरमीडिएट सीन्स की फ़िल्म बनाई। 
 
उर्मि - जैसे मैं उदाहरण देती हूं। मैडम जी की प्रेस कॉंन्फ्रेंस थी कि आईबीपी क्यों महत्वपूर्ण है, फिर उनकी देशनायक के साथ पॉलिटिक्स थी। पहले ये था कि मैडम जी अनाउंस करती हैं सीधा कि कृष्णन इंक्वायरी करेगा। वो टीवी पे देखता है। तो बाद में हमने ये भगवान की नज़र से देखे हुए ये सारे घटना-केन्द्रित सीन निकाल दिए। अगर उस तरह की फ़िल्म होती तो अभय नल खोलता और उसमें पानी होता। लेकिन विडम्बना यही है कि जोगी का जो मूमेंट है, वह बड़ा सीन है। तब उस तरह के सीन लिखे गए, आगे आए। विनोद और दामले के सीन निकल गए, टेप बेचने की बात के।
  
क्योंकि प्लॉट क्या है? कोई भी अख़बार खोलिए, आप आदर्श स्कैम ले लीजिए। दसवीं का बच्चा भी बोलेगा कि ये ये लोग इसमें इनवॉल्व्ड हैं। लेकिन शंघाई को यह नहीं करना था। वह दो बिन्दुओं पर हमला करती है। एक न्याय की बात, कि आप प्रूव कैसे करोगे? बदला नहीं लेना है तो प्रूव तो करना पड़ेगा। और प्रूव करने के दौरान आप पर क्या बीतती है? और वो बीतनी वो नहीं थी हमारी, कि दो पड़ोसी हँस रहे हैं, आपकी नौकरी चली गई, आपकी बिजली बन्द कर दी। वो नहीं, वो कि बस आप हो अपने साथ। वही, जो शालिनी बोलती है कि मैं तुम्हारे साथ सोने के लिए तैयार हूं। वो बहुत पर्सनल मामला है। पहले एक पैसे देने का भी सीन था। कि शालिनी अपना घर गिरवी रखती है। वह घर, जो बिकाऊ था, शुरू में ब्रोकर दाम लगा रहा था। 

गौरव
एक कमी मुझे लगती है कि डॉक्टर अहमदी जितना बड़ा किरदार है, उसका असर उतना दिख नहीं पाता। उसके साथ की पब्लिक का ओपिनियन कहीं नहीं दिखता, ज़ी में वह किरदार ज़्यादा पब्लिक से जुड़ा लगता है। यहाँ उसके मरने से पहले के सीन में न ज़्यादा लोग उसके साथ लगते हैं, न विरोध में..

दिबाकर - ज़ी में वो डेमीगॉड है। हमारे यहां कोई डेमीगॉड है नहीं। अन्ना हजारे भी कोई बड़ी चीज नहीं है। हमको मौका मिलते ही हम उसे नीचे कर देते हैं। हम बौनों का समाज चाहते हैं। हम असल में चाहते हैं कि हम सब बौने रहें। ताकि हम सब सुरक्षित रहें कि हम सब चार फ़ुटिया हैं, कोई छ: फुट का नहीं है। ऐसे ही हैं हम। मुझे अहमदी करिश्माई नहीं लगते। उनके पीछे बहुत लोग हैं, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है कि वो महात्मा गाँधी हैं।


उर्मि - और कोई हो भी, तो हम आज के टाइम में नहीं मानते। मेधा पाटकर भी सीआईए की एजेंट, अरुंधति रॉय भी सीआईए या चीन की एजेंट। जब ज़ी बनी है, वहाँ बहुत बड़ी राजनैतिक बहस है फ़िल्म में, शीतयुद्ध और शांति के बारे में। आज की तारीख में आपके पास कोई बहस नहीं है।

दिबाकर अच्छा, डेमीगॉड नेता और डेमीगॉड फिल्मस्टार के सिवा आपने कभी कोई किसी के लिए पागल देखा है आज की दुनिया में? और हो सकता है कि आपको वह उतना बड़ा नहीं लगा, तो कोई ग़लती रह गई हो।

उर्मि - मैं ये भी कह रही थी कि अगर मेधा पाटकर का इस तरह किसी जगह एक्सीडेंट हो जाता है, तो भी ज्यादा रिएक्शन नहीं होगा।

दिबाकर - जैसे फिल्म में हो रहा है, मेधा पाटकर के साथ कुछ हो, तो हूबहू यही प्रतिक्रिया होगी हमारे यहाँ। अगर आप सफदर हाशमी की मौत देखें या ऐसा ही कुछ देखें, तो ये अचानक यहीं पे इसी तरह मोहल्ले के बीच में होती हैं। दस हज़ार की भीड़ में कभी कोई नहीं मारता। तब तो वो विशाल जागरण होता है, वहां सब कुछ पहले से तय होता है, सुरक्षा होती है, सबको पता होता है कि क्या होने वाला है।


और जब सफ़दर हाशमी मरते हैं, या उड़ीसा में जैसे मिशनरी मरे थे, उन्हें बच्चों के साथ जला दिया था, इस तरह की हत्याएं 300-400 लोगों के बीच होती हैं। सब ख़बरों को देखिए। वो तो एक कॉलोनी में मीटिंग करने आया था।

उर्मि - वो छोटे छोटे विरोधों की बात हो रही थी। वो बहुत बड़ा नहीं था। शुरू में मुझे भी लगा था कि बड़ा होना चाहिए था। लेकिन अब यह छोटा स्केल मुझे बेहतर लगता है। क्योंकि ये राजीव गांधी की हत्या जैसी आतंकवादी घटना नहीं है, छोटी घटना है।

दिबाकर उर्मि, हमें आपकी पूरी प्रोसेस की बात करनी चाहिए। कहां असंतुष्ट थीं आप, कहां संतुष्ट थीं, हर चीज तक...असल खून, पसीने, आंसुओं तक ले जाइए इन्हें..

उर्मि
जब पहले दो ड्राफ़्ट हुए, एक मेरा, एक इनका। उनका कुछ मतलब नहीं था मेरे लिए। क्योंकि न ये एक सोशल क्रिटिक था, न अच्छा ड्रामा था। एक बात से दिबाकर बहुत कतराता है कि उनके लिए सेंटीमेंट और इमोशन का बड़ा इश्यू है। कि कोई ऐसे उदास बैठा है और 500 वॉयलिन बज रहे हैं, तो आप सेंटीमेंटली लोगों को मजबूर कर रहे हो बुरा मानने के लिए।

दिबाकर
रामायण और रामचरितमानस में यही फर्क है। मेरे हिसाब से रामायण एक क्लासिक कहानी है जो स्पष्ट रूप से बताई गई है कि ये बन्दा, इसने इसको मारा, इसे फॉलो करो, इसे नहीं करो। रामचरितमानस भक्ति काल का है। तो उस वक्त इतना प्रेशर था यहां हिन्दू समाज में, इसे हिन्दू-मुस्लिम एंगल से मत देखिए, लेकिन सल्तनत से एक पूरा ख़ौफ़ था सांस्कृतिक रूप से, तो भक्ति उस भावना को निकालने का तरीका बना। तो राम जी के बचपन को लेकर इतना रुलाओ, इतना रिझाओ दर्शकों को, कि वे भावनाओं से लहूलुहान हो जाएं। उसके बाद कहानी अपने आप आगे चल पड़ेगी।

दोनों के बीच यही सेंटिमेंटेलिटी का फर्क है। और वो भी कैसी? बच्चे के लिए.. उसके ख़िलाफ़ तो कुछ भी नहीं कह सकते। बच्चा! (
बच्चा पर ज़ोर देकर) कितना अजीब है। आपने शुरू से किसी को इस तरह दिखा दिया तो फिर कुछ नहीं हो सकता।

उर्मि - ओए लकी में देखिए, जब दर्शक कम उम्र के लकी को देखते हैं, उसके बाद बहुत ओपन था फील्ड। क्योंकि उसके बाद लोग नफ़रत कर ही नहीं सकते थे उस से।

दिबाकर - पर हम वहां भी बचे सेंटीमेंटेलिटी से। बहुत बड़ा विश्वासघात किया दर्शकों के साथ। कि बचपन में कैसा दिखाया, और बड़ा होकर कैसा।

उर्मि
वो insanity की कहानी थी। एक मासूम लड़के के insane होने की कहानी। लेकिन शंघाई कभी इमोशनल कहानी नहीं थी।

दिबाकर - शंघाई इमोशनल कहानी है, (हम तीनों हँसते हैं)...हाँ
हाँ, शंघाई इमोशनल कहानी है लेकिन इसमें किसी किरदार को इमोशनली मेकअप नहीं किया गया। मेरे को सेंटीमेंटल नहीं करना। ट्रू इमोशनल करना है।

गौरव
इस फ़िल्म में शायद किसी को उस तरह से ख़ुशी या दुख नहीं होता, उन्हें गुस्सा आ रहा है और परेशान हो रहे हैं।

दिबाकर
यह नई बात कह रहे हैं आप। हाँ, सही है शायद। Pathos is there, but characters are not feeling pathetic

उर्मि कोई personal anguish नहीं है, कल्कि के सिवा। अरुणा अहमदी भी एक बार शीशे के सामने रोती है, कल्कि भी एक बार। लेकिन वे अपना काम निरंतर करते रहते हैं।

दिबाकर - कल्कि के रोने में Catharsis है। वो रोके निकल आया है।

उर्मि - इस संतुलन को पाने में बहुत देर लगी। मेरे ख़याल से शूट से बस एक महीने पहले ही यह पूरा हुआ। जब हम गोआ गए थे आखिरी ड्राफ्ट करने के लिए। और दिबाकर की दूसरी आदत यह है कि वो बच्चे की तरह सुन्दर-सुन्दर चीजें लेकर आता है छोटी छोटी, अपने पिटारे में से।

दिबाकर -  (ज़ोर ज़ोर से हँसने लगते हैं) इस से मुझे एक ही चीज याद आती है। बचपन में ऐड एजेंसी की जो पार्टी होती थी, वहाँ पे हर पार्टी में कोई एक पिया हुआ कॉपीराइटर होता था, वो बेचारा अपने घर से एक बैग लेके आता था, जिसमें कैसेट होती थी। और जाता था, जहाँ गाने बज रहे होते थे..जाके कहता था- ये बजाइयो, ये बजाइयो.. (ऐक्टिंग करते हैं)
एक पार्टी में तो मुझे एक बंगाली कॉपीराइटर याद आता है, उसका पेट जींस से बाहर को लटक रहा था, - प्ले दिस, हे प्ले दिस। (फिर से ऐक्टिंग)...और सीडी वाली पार्टी थी। जहाँ पे सीडी चलती है, वहाँ पे कैसेट लेके आया..

(हम सब ज़ोरों से हँसते हैं)

उर्मि
शालिनी बहुत मुश्किल किरदार थी। सोशल एक्टिविस्ट थी। उसके डैड वाला एंगल था। बहुत कुछ लाया था दिबाकर। शालिनी के पीछे तीन बच्चे ए फॉर अमिताभ, बी फॉर बच्चन कहते हुए चलते आते हैं।

दिबाकर - वो पढ़ाती है आँगनबाड़ी स्कूल में बच्चों को। ..(हँसने लगते हैं, हँसते हँसते सोचने लगते हैं)...अरे ये तो सुपरहिट फ़िल्म हो जाती यार..

उर्मि - किसी ने मुझे मैसेज भेजा कि ये बैस्ट फ़िल्म नहीं है दिबाकर की। बैस्ट फ़िल्म ओए लकी थी। तो मैंने जवाब दिया- पर वो लिख चुके थे ना, दुबारा नहीं लिख सकते थे।

(फिर हम सबकी हँसी)

दिबाकर - जिस तरह के मैसेज मुझे आ रहे हैं, फ़िल्म का चाहे कुछ भी हो, लेकिन मेरा हौसला 4 गुना हो गया है। हम सोच रहे थे कि इस फिल्म को कौन देखेगा? ऐसी फिल्म, जो कोई भी समझौता नहीं कर रही है। एलएसडी के टाइम पर इतने रिएक्शन नहीं आए थे, ओए लकी के टाइम पर नहीं आए थे,

उर्मि वो 26/11 के टाइम भी आई थी। उसे देर में देखा लोगों ने..

दिबाकर - तब तो
shocked हो गए थे लोग। उसे ये नुकसान हुआ कि पहली shocker थी वो। उसने खोसला की उम्मीदों को तोड़ा। लेकिन उसके बाद से ये हो गया था कि अब उम्मीद मत करना कुछ।

गौरव, मैं मानता हूं ना कि कॉर्पोरेट क्लास जो है ना, सबसे ज्यादा घिसा हुआ क्लास है। उनको किसी चीज का कुछ फर्क नहीं पड़ता। टिपिकल मल्टीप्लेक्स क्लास है जो शहर का, आई डोन्ट केयर वाला, उससे सबसे ज्यादा मैसेज मिले मुझे, कि हम फिल्म देख कर बहुत प्रभावित हो गए, और थोड़े से हिल गए।

उर्मि
टाइटल ख़त्म होने तक बहुत लोग बैठे रहे। मेरी माँ ने कहा कि टाइटल कितने तेज निकल गए। मैंने कहा कि आप बैठी क्यों थी वहाँ तब तक? तो लोग तुरंत उठकर निकल नहीं पाए ठीक से। वो प्रभाव था।

दरअसल गुस्सा था हमारे मन में। ये किसी बड़ी चीज की कहानी नहीं है। यह उन रोज़मर्रा के चुनावों की कहानी है, जो हम करते हैं अपनी ज़िन्दगियों में। हमने कूल होने के चक्कर में वे छोटे छोटे चुनाव करने बन्द कर दिए हैं। ये मेरा गुस्सा है कि कुछ हो गया है कि हमने ऐसे रहना स्वीकार कर लिया है कि आपके पड़ोसी न हों, कोई न हो। आज की तारीख में हमने अपने आपको बिल्कुल अलग थलग कर लिया है। हम अपने आसपास की दुनिया से बात तक नहीं कर रहे।

मैं समझ नहीं पा रही थी कि ये सब हुआ कैसे। क्योंकि मैं जब बड़ी हुई थी, तब ऐसा नहीं था। हम अपनी दुनिया का हिस्सा थे। मुझे याद है, गणपति के टाइम पे ये था ही कि आप कुछ प्ले करो, बच्चों को लेके कुछ करो। और ये फ़िल्मों की नकल नहीं होता था। तरह तरह के कॉम्पीटिशन होते थे। आज जब मैं उसी जगह वापस जाती हूं तो वो सब बन्द हो गया है। लोग मिलते नहीं हैं एक दूसरे से। और जहाँ मिलते भी हैं, वहाँ हिन्दी फिल्म के गाने पर नाचते हैं। तो मैं समझने की कोशिश कर रही हूं कि यह क्यों हुआ, कैसे हुआ। हमने स्क्रिप्ट के एक ड्राफ़्ट में तो यह रखा भी था कि 1992 में रुपया
partially convertible हुआ और तब से यह बदलाव आया है। तो वो सारी समझ हमारी थी कि कुछ बदल रहा है। दिबाकर मुझसे बहुत छोटा है। मैं थोड़ा सा ज़्यादा देख चुकी हूं बदलाव, लेकिन समझ उसकी भी थी। हममें असहाय mode बहुत ज्यादा है। और अन्ना हजारे के साथ खड़े होकर लड़ने से कुछ नहीं होगा। हर दिन आपको सही चीजें चुननी होंगी। और ये किया जा सकता है। 

अभय हो, इमरान हो, कल्कि हो, अरुणा अहमदी हो, सब लोग अपने मन के ख़िलाफ़ एक चीज चुनते हैं।

गौरव - अरुणा अहमदी वाले अंत को कैसे देखें?

दिबाकर - उसे मुख्यमंत्री के पद के लिए खड़ा किया है दिल्ली ने। और आईबीपी अब उसके हाथ में है।

उर्मि - ये बहुत लोगों ने डिबेट किया है। दिबाकर और मैं भी शायद इस पर असहमत हैं, लेकिन मेरे लिए वह
positive end है।

दिबाकर - नहीं नहीं। मेरे लिए भी पॉजीटिव है, अब देखना है कि वह क्या करती है। एक शुरुआत तो हुई। अब पांच साल पहले यूपीए की सरकार चालू हुई थी, उसे तो कोई नेगेटिव नहीं कह सकता था ना। आज उसे हम नेगेटिव कह रहे हैं। तो उस टाइम पे जाके हमने छोड़ दी है, अब पांच साल में देखना है कि अरुणा अहमदी भी समस्या बनती है या फिर कुछ हल करती है।

गौरव - आईबीपी को यानी कॉर्पोरेट के इस विकास को ख़त्म करने की, या बदलने की, फ़िल्म कहीं बात नहीं करती..

उर्मि - विकास बहुत जटिल मुद्दा है। मैंने भूटान में देखा, जहां कोई विकास नहीं है, कुछ नहीं बदलेगा। सारे लोग वही कपड़े पहनेंगे। वो उनका Gross National Happiness का quotient है। तो वहां के बच्चे टीवी देखते हैं, लेकिन उन्हें पुराने कपड़े पहनने पड़ रहे हैं। शिक्षा नहीं है। तो यह भी कोई रास्ता नहीं है कि विकास ही न हो। लेकिन किसकी प्रगति, किसका देश, यह सवाल है।

दिबाकर - कॉर्पोरेट वाली कोई और फिल्म है, जो नहीं लिखेंगे (हँसते हैं)। वो फिल्म जब बनेगी ना, उसे जेनुइनली सड़क पर जाकर दिखाना पड़ेगा। राजनीति को सड़क पर बहुत लोग दिखा चुके, इसलिए हमने अलग मनोवैज्ञानिक ढंग से दिखाया। लेकिन कॉर्पोरेट को सीधा अंकुश के लेवल पे बिल्कुल सच दिखाना पड़ेगा। क्योंकि कॉर्पोरेट वालों को तो वो सब दिखाकर कोई फायदा नहीं है। उन्हें तो सब पता है और वो तो उसी का खा रहे हैं। इसलिए वह सिंगल स्क्रीन वालों को दिखाना पड़ेगा। मेरे दिमाग में ये बहुत दिन से घूम रहा है कि कॉर्पोरेट वाला जो चक्कर है, वो इस तरह से स्ट्रीट लेवल पे दिखाया जाए, जिसमें ये पता चले, कि देख, तू मुझे एक रुपया दे, एक रुपया इसमें मैं जोड़ता हूं। मैं तेरे नब्बे पैसे किसी और को देता हूं, दस पैसे मेरे। तो मेरे पास एक रुपया दस पैसे हो गए। इतने में सामने वाले को समझ ही नहीं आया कि क्या। तो वह सौ लोगों से यही बोलता है। उसके पास एक सौ दस रुपए हो जाते हैं। फिर वह एक करोड़ लोगों से यही बात बोलता है।

यही कॉर्पोरेट सफलता का सीक्रेट है। चिटफंड वगैरा। उस तरह की किसी फ़िल्म में बहुत मजा आएगा। वो बहुत एक्स्पोजिव होगा। और हम उसे अलग तरह से ही बनाएंगे। लेकिन उसमें एक्सपोजर और रिवेंज का vicarious pornographic pleasure होना चाहिए। स्ट्रीट लेवल पर वही करना होगा। It has to be a proletariat film. गिलोटिन का चद्दर लगाना पड़ेगा।

गौरव दिबाकर, आपके किरदार आख़िर में किसी चतुराई से जीतते हैं। यह परंपरागत नायक से अलग तरीका है कि सिर्फ परंपरागत रूप से अच्छा रहने से कुछ नहीं होगा। क्या यही एक तरीका बचा है इस व्यवस्था से पार पाने का?

दिबाकर एक ही तरीका तो नहीं बचा, लेकिन मैंने किसी को देखा ही नहीं सौ प्रतिशत ठीक रहकर जीतते। और यह होना भी नहीं चाहिए। जब गाँधी जी ही..पैंतरा चलते थे, राजनीति की चाल होती थी ना? अगर आप गाँधीजी के ऊपर लिखे गए लॉर्ड इरविन के मेमोज देखें तो वे मेमोज पे मेमोज लगातार लिखे जा रहे हैं कि इस बदमाश को अंडरएस्टिमेट मत करो, ये गुजराती बनिया, श्याणा, बहुत काइयां है..और ये ऊपर से बहुत दिखा रहा है कि बकरी का दूध पीता है और लंगोट में रहता है। इसके इतने पैंतरे हैं कि ये जो नमक वाला चक्कर ये कर रहा है, ये देखो, ये ऐसे ऐसे ऐसे तुम्हारी नींव को हिला देगा। तो ये मेमोज में लिखा है, तो इरविन के हिसाब से तो गाँधीजी बहुत श्याणे हैं, बहुत ग्रे कैरेक्टर हैं। वो पागल हो जाते थे, डील ही नहीं कर पाते थे। गाँधीजी पहली मीटिंग में आएँगे तो कुछ बोलेंगे, दूसरी मीटिंग में कुछ बोलेंगे। और दोनों ही मतलब उतने ही सही हैं और उनके पीछे बीस करोड़ जनता खड़ी हुई है।

तो जो सबसे बड़ी हस्तियां होती हैं, उनमें ग्रे का बड़ा हैल्दी मिश्रण होता है। यही उन्हें सफल बनाता है कि वे गेम बदलते रहते हैं। उनके लिए आदर्श उनके आदर्श हैं, कोई बिहेवियर नहीं है। और वे अपने आदर्श से खेल रहे हैं, आपके आदर्श से नहीं। वे अपने आदर्श कभी भी बदल सकते हैं। तब आप कहेंगे कि सर, आपने सिलेबस चेंज कर दिया। वे कहेंगे, लेकिन सिलेबस तो मैं ही लिखता हूं ना, मैं जो मर्ज़ी करूं।

उर्मि - और यह ज़रूरत भी है। शंघाई उस ज़रूरत पर भी सवाल कर रही है। कि डॉ. अहमदी सिर्फ सफेद क्यों नहीं हैं? मैडम जी पूरी काली क्यों नहीं हैं? तो देवता तो कोई है नहीं। जो अरुणा की पूरी लाइन है, वो तो पूरी फ़िल्म को लेकर होती है- सबको देवता चाहिए, मरने और मारने के लिए।

गौरव - क्योंकि हम सिर्फ़ देवता को ही हीरो मानने को तैयार होते हैं..

दिबाकर - नहीं, हम एक को चुन लेते हैं। कि इसको देवता बनाएँगे। उसको बनना पड़ेगा। तभी कुछ लोग जानबूझकर बन जाते हैं। और जो भी आसुरिक होता है, वह छिपकर करते हैं फिर।

उर्मि जैसे मोर्चा के लिए आईबीपी देवता है ना फ़िल्म में। उसके ख़िलाफ़ बोलो तो मार दिया जाएगा। उन्होंने तय किया है कि ये देवता है, इसे कोई नहीं छुएगा।

गौरव - फ़िल्म की शुरुआत में जो कालिख पोतने का सीन है, बहुत स्लो मोशन में, वह बाद में आया या स्क्रिप्ट में था?

दिबाकर एकदम स्क्रिप्ट में लिखा हुआ था। और वो ग़लत किया। एकदम ग़लत किया। वो अटका देता है।

उर्मि - मैं इससे सहमत नहीं हूं।

दिबाकर - फ़िल्म की एक जेनुइन आलोचना है कि पहले 20 मिनट में पकड़ आते-आते आती है। फिर डॉक्टर का एक्सीडेंट होता है, उसके बाद गाड़ी आगे चलती है। उसका एक मेन कारण है, यह कालिख वाला सीन। लेकिन इसके बिना भी हम नहीं कर सकते थे। यह आगे कुआं, पीछे खाई वाला चक्कर था।

गौरव लेकिन आपको ऐसा क्यों लगता है कि यह पकड़ को कमज़ोर करता है?

उर्मि डबल ओपनिंग है ना। एक तो कहानी की शुरुआत तब है, जब गौरी फ़ोटो देखकर पूछती है दीदी, ये आदमी कौन है..और दूसरी आईबीपी के इंट्रोडक्शन की ओपनिंग है।

दिबाकर - तो वो डबल ओपनिंग आप फिर भी संभाल लोगे, लेकिन उससे पहले एक और ओपनिंग जग्गू-भग्गू की। इसीलिए शुरू के 15-20 मिनट हम डगमगाते...नहीं, डगमगाते नहीं हैं..यह कहानी में लोगों के दाख़िल होने का रास्ता मुश्किल कर देता है।

इस पर बहुत बहस हुई थी। शुरू में उर्मि इसके खिलाफ़ थीं। लेकिन ये मेरा पसंदीदा सीक्वेंस था, मेरे पिटारे में पड़ा हुआ था। कि कहीं ऐसे दिखाएंगे कुछ स्लो मोशन में। स्लो मोशन एक विज्ञान है। कि स्लो मोशन में क्या दिखता है। ऐसा नहीं कि कोई आदमी दौड़ रहा है, उसे दिखाओ। लेकिन एक छोटी सी चीज, जिसे आप 2000 फ्रेम प्रति सेकंड में कह सकते हैं। जैसे, ओए लकी में मिसेज हांडा का एक स्लो मोशन था, जब वो लिपस्टिक लगाती है। मिसेज हांडा का वो राक्षसी रूप सामने आता है। ऐसा ही कुछ चाहता था। तो मेरे दिमाग में ये प्रमोशन पिटारा आइडिया था और लिखते-लिखते वो हो गया। उस टाइम पे उर्मि ने कहा था कि इस सीन में कुछ प्रॉब्लम है। लेकिन मैंने कहा कि नहीं, मुझे शूट करना है। किया। ऐडिट पे लगाने के बाद मुझे उस सीन पे प्रॉब्लम आ गई। मुझे लगा कि ये सीन एक्स्ट्रा है। ये दिखा रहा है कि देखो...मैं कितना अच्छा डायरेक्टर हूं, स्लो मोशन में मुंह काला करते दिखा रहा हूं। तब मैंने उसे काट दिया और फिर पूरे ग्रुप को दिखाया। मैंने ऐसे 3-4 बार काटने की कोशिश की और हर बार ग्रुप ने कहा कि नहीं, यह होना चाहिए। उर्मि ने खुद कहा कि अभी ये कुछ बता रहा है, it sets up the film.

उर्मि जिस समय में हम रह रहे हैं, यह उसकी बेहद व्यक्तिगत हिंसा है। एक खून वाली हिंसा होती है, एक होती है आपके ज़मीर पे, आप पे हमला होता है ना, physical attack नहीं है, आपके विचारों पर हमला है।

दिबाकर - मैं अपनी ज़िन्दगी का कीमती लम्हा बताता हूं किसी फ़िल्म का..पाथेर पांचाली में अपु की मां है..और वो बूढ़ी औरत..इन्दिर ठाकरुन..वो औरत, जो मर गई थी..उसके मरने से पहले का एक सीन है..जिसमें अपु की मां खाना-वाना खाके..बंगाल में वो कांसे के कटोरे में दूध पीते हैं गाय का..तो जैसे ही वो दूध पीने लगी, इन्दिर ठाकरुन, जो उनके घर में आश्रित है..वो उसके सामने आकर मुंह खोलकर बैठ गई कि मेरे को भी दे दो। (मुँह खोलकर दिखाते हैं) वैसे तो ये कॉमिक सीन है। और तब, अपु की मां दूध पीती जाती है..और उस बूढ़ी औरत का चेहरा छोटा होता जाता है..और जो लालच है ना..और दूध की धार कटोरे के दोनों तरफ से उसके होठों से बह रही है..यह बहुत डराने वाला है। मैं बंगाली हूं, मैंने देखा है अपने घर में ऐसे दूध पीते हुए। तो मेरे लिए वह हिंसा बहुत बड़ी हिंसा है..

उर्मि
मैंने देखा है साउथ में, मदुरै में, लाश को जलाने से पहले एक आदमी को उसके ऊपर चढ़ाई गई खाने की चीजें उठाकर खाते हुए..मारपीट की हिंसा कुछ नहीं डराती उसके सामने।

गौरव - कुछ ऐसे पसंदीदा सीन, जो शूट हुए हों लेकिन किसी वजह से एडिटिंग के वक्त कटे हों?

दिबाकर - एक भग्गू का डांस था, जब टीना आती है, वो अजीब सा नाचता है। देखने में बहुत अच्छा था लेकिन उससे हमारी स्पीड जा रही थी। वह प्रोमो में था। एक अभय का आखिर में डायलॉग था, जस्टिस का सपना मैंने छोड़ दिया है।

उर्मि अभी फ़िल्म ख़त्म होती है कि ये सीएम पीएम बन सकती थी और भारत चीन बन सकता था..

दिबाकर - इसीलिए यह अब पहले से बड़ी फ़िल्म है। कौल के इस सवाल के जवाब में, कि ये है तुम्हारी जस्टिस, जैसे ही अभय बोलता जस्टिस का सपना मैंने छोड़ दिया है। वो तो तब मिलता, जब भारतनगर वालों को घर जैसा घर मिलता। वो तो होने नहीं वाला है, मेरे लिए यही काफ़ी है। यह इतना लम्बा बोलता तो अंकुश बन जाती ना फ़िल्म।

उर्मि (थोड़े व्यंग्य से हँसकर) लेकिन स्पष्ट तो हो जाती फ़िल्म।

दिबाकर - स्पष्ट अभी भी है।

(
यह लेख/इंटरव्यू अपने संपादित रूप में तहलका हिन्दी के 30 जून, 2012 के अंक में छपा है )