22 अगस्त, 2009

कमीने न तो नेचुरल है और न ही ईमानदार


मैं एक साल से इस फ़िल्म का इंतज़ार कर रहा था और मेरे पास इतनी उम्मीदें थी कि जब मैं थियेटर में फ़िल्म देख रहा था - और विश्वास कीजिए, मेरे मन में सिर्फ़ अच्छे पूर्वाग्रह ही थे – तो मुझे एक क्षण को भी ऐसा नहीं लगा कि मैं किसी महान और कालजयी फ़िल्म के साथ जुड़ रहा हूँ। यह एक साधारण सा अनुभव था, जिसमें कुछ अच्छे पल भी थे। यह ऐसी फ़िल्म नहीं थी, जिसे मैं बार बार देखना चाहूं। मैं एक भी बार जोर से नहीं हँसा और एक भी बार मेरी आँखों में पानी नहीं आया। जब मैं बाहर निकला तो एक भी दृश्य ऐसा नहीं था, जो दिमाग में बैठा रह गया हो या जिसने रात में सोने न दिया हो। फिर यह कैसा डार्कनेस है, जिसकी बातें की जा रही हैं? क्या सिनेमा सिर्फ़ सिनेमेटोग्राफ़ी ही है और उसके कमाल के पीछे आप अपनी कहानी की कमज़ोरी छिपा सकते हैं?
क्या यह वैसा ही नहीं है कि एक सुन्दर शरीर है, जिसकी आँखें नशीली हैं और आवाज़ मधुर, लेकिन आत्मा ईमानदार नहीं है? हाँ, अब मुझे समझ आया। मुझे शिकायत ईमानदारी से ही है। अक्सर किसी फ़िल्म में मुझे यही बात पसन्द आती है और शिकायत भी इसकी अनुपस्थिति से ही होती है। क्लाइमेक्स की बॉलीवुडी (या हॉलीवुडी) ठांय़ ठांय से पहले शाहिद कपूर जिस तरह चिल्लाते हैं, वह क्रोध और हताशा बिल्कुल झूठी है। वह चीख ‘मक़बूल’ के इरफ़ान, ‘ओमकारा’ के अजय देवगन और ‘गुलाल’ के राज सिंह चौधरी के गुस्से, दुख या क्षोभ का अपमान है और विशाल भारद्वाज मेरे पसंदीदा निर्देशक हैं, लेकिन इसके लिए व्यक्तिगत रूप से मैं उन्हें माफ़ नहीं कर सकता।
आप अपने इतने अच्छे संगीत को इस तरह डिस्को में जाया कैसे कर सकते हैं? क्या आपको एक बार भी याद नहीं आता कि आप विशाल भारद्वाज हैं और ये जो इतने अच्छे गाने हैं, गुलज़ार ने लिखे हैं और शाहिद कपूर को डिस्को में नचवाने से कई गुना बेहतर विजुअल हो सकते थे ‘आजा आजा दिल निचोड़ें’ के? जब यह गाना आ जाता है तो फ़िल्म का प्रवाह रुक जाता है और मन करता है कि आँखें बन्द कर के उस ख़ूबसूरत लम्हे को याद करो, जब आपने पहली बार यह गीत सुना था और बहुत सारी उम्मीदें बाँध ली थी। विशाल के किसी गाने से इसकी तुलना करनी हो तो मैं ‘धम धम धड़म धड़ैया रे...’ से करूँगा और वह बहुत एब्स्ट्रैक्ट सा गाना है..और क्या शानदार दृश्य चलते हैं, जब वह गीत आता है ‘ओमकारा’ में। विशाल की किसी फ़िल्म में मुझे याद नहीं आता कि किसी गाने ने ऐसे फ़िल्म को रोक दिया हो...और जाने किस दबाव में उस बुरे अंत के बाद वह गाना आता है, जो वाकई बीच में आना चाहिए था। पूरी फ़िल्म एक कड़वे यथार्थ को बहादुरी से दिखाने का भ्रम है, लेकिन हर दृश्य में विशाल सचेत दिखते हैं कि कहीं यह लम्बा न खिंच जाए, ख़ासकर उन शांत से दृश्यों में, जो मेरे ख़याल से सबसे ईमानदार हैं। पेट्रोल पम्प वाला सीन मेरा फ़ेवरेट है। वहाँ भी संवादों का कमाल है, शाहिद का कहीं नहीं। मैंने सुना है कि इस रोल को पहले आमिर और सैफ़ ठुकरा चुके थे। मेरे ख़याल से और भी बेहतर विकल्प हो सकते थे इस किरदार के लिए। जो लोग रौ में बहकर शाहिद के अभिनय की भी वाहवाही किए जा रहे हैं, वे दरअसल समझ नहीं रहे कि यह बाकी लोगों की मेहनत है, जो परदे के पीछे छिपे हुए हैं और यदि कोई दमदार अभिनेता होता तो वह फ़िल्म को ज़्यादा मज़बूत बना सकता था।
किसी ने लिखा है कि यह कई अच्छे दृश्यों का कोलाज भर है, एक सम्पूर्ण फ़िल्म नहीं। मैं भी इससे सहमत हूँ। फ़िल्म में बहुत सारी घटनाएँ चलती हैं, लेकिन वे आपस में नहीं जुड़ी। विशाल शायद बहुत कुछ एक साथ बनाना चाह रहे थे और आख़िर में सब कुछ आपस में मिल गया। आप इसकी कलात्मक रूप से चाहे तारीफ़ करें और हाँ, बहुत सारी बातें हैं - ख़ासकर mis-en-scene, जैसे गुड्डू के हॉस्टल के बाथरूम के दरवाजे पर लिखा हुआ ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ या उसके कमरे में मेज पर बिछा हुआ अख़बार, दीवार पर लगी तस्वीरें, शीशे की हालत, और पार्क में गुड्डू और स्वीटी के पास खड़ा कुत्ता, मुम्बई के मोंटेज, अँधेरा, हड़बड़ाया हुआ कैमरा – लेकिन यह बात आपको माननी पड़ेगी कि यह एक स्वाभाविक फ़िल्म नहीं है। यह सोच समझ कर बनाई गई एक फ़ॉर्मूला फ़िल्म है जो यशराज की फ़िल्मों से केवल इसी मायने में अलग है कि तकनीकी रूप से कहीं ज़्यादा समृद्ध है और काली दुनिया की कहानी है। बात वही, यह एक बहुत सुन्दर चित्र है, लेकिन इसमें आत्मा नहीं है। यह एक ऐसी कविता है, जिसे लिखने वाला मँझा हुआ हाथ था और जो जानता था कि कहाँ पेंच डालने हैं, कहाँ रंग धूसर कर देने हैं और कहाँ चुप रह जाना है। मुझे बस इसी सोची समझी कला से चिढ़ होती है। क्या यह फ़िल्म निर्माण को एक मशीनी प्रक्रिया नहीं बना देता? एक इंजीनियर के काम की तरह, जो अपने काम में बहुत कुशल है और सब सिद्धांतों का इस्तेमाल कर एक बढ़िया मशीन बना देता है, जो कॉलेज के छात्रों को दिखाकर मशीन निर्माण तो समझा सकती है, लेकिन उसे बनाने और देखने वाला जब रात में सोता है, तो उसे याद नहीं रखता। वह हर समय उससे चिपकी नहीं रह जाती। वह मक़बूल की तरह आपको झिंझोड़ती नहीं, सपने में नहीं दिखती। मेरे ख़याल से फ़िल्म बनाना इससे कहीं अलग है। फ़िल्म बनाना या कोई भी कला पागलपन को सुन्दरता से दिखाना नहीं, पागलपन को जीना है।
आख़िर में बात टेरंटिनो की फ़िल्मों की। बहुत से लोग इसे उन से जोड़कर देख रहे हैं और हिन्दी फ़िल्मों के बढ़ते स्तर पर आह्लादित हो रहे हैं। मेरा मानना है कि विशाल कहीं न कहीं उन से प्रेरित तो हैं लेकिन वे फ़िल्में कहीं ज़्यादा मुखर हैं, कहीं ज़्यादा तीखी। आप जब तक उनको देख रहे होते हैं, वे आपकी आँखों में चुभती रहती हैं। उनमें एक अलग किस्म का नशा है। वह प्रत्यक्ष हिंसा नहीं है। हिंसा उनके हर शब्द और हर हावभाव में है। मिहिर ने बहुत अच्छी बात कही थी कि टेरन्टिनो तो हिंसा का सौन्दर्यशास्त्र गढ़ रहे हैं। वैसा सौन्दर्यशास्त्र ओमकारा और मकबूल में कहीं कहीं था, लेकिन अब जब वैसा सबको लग रहा है, मुझे नहीं दिखता। इस बार विशाल ने ‘ओमकारा’ की भद्दी गालियाँ खोई हैं, लेकिन उनके साथ अपने क्रोध की मासूमियत भी। करण जौहर ने कमीने को प्रेरणास्पद फ़िल्म बताया है और वे इसे बनाने के लिए विशाल के कृतज्ञ हैं। सारा राज़ यहीं छिपा है। विशाल की पहले की फ़िल्में शायद करण ने न देखी हों। यह ऐसी फ़िल्म क्यों बन गई जिसे करण भी देख सकें और प्रशंसा कर सकें, विशाल से मेरी सारी शिकायत इसी बिन्दु पर है। यह भटकाव का समय है, जब पार्टियाँ हो रही हैं और विशाल अपनी टीम के साथ ख़ुशी में डूबे हैं। यदि वे अब भी नहीं समझ रहे कि क्या हो गया है तो मेरे लिए यह निराशा का समय है।
अभिषेक की ‘इश्क़िया’ उम्मीद जगाती है। क्या ' सात खून माफ़' में विशाल फिर से वहाँ लौटना चाहेंगे?