25 जुलाई, 2011

Still Walking: "मैंने माँ को कभी कार में नहीं बिठाया"


एक बेटा है जो छोटे शहर में अकेले रहने वाले माता-पिता से मिलने जाता है, एक रात के लिए। बस उन चौबीस घंटों की बड़ी कहानी। पिता, जो तब अख़बार पढ़ते रहते हैं जब सब फ़ैमिली फ़ोटो खिंचवा रहे हैं। माँ, जिसने उस एक रात के लिए बेटे के लिए पाजामा खरीदकर रखा है और बेटा अपने साथ लाए कपड़े ही पहनना चाहता है। माँ, जो मज़ाक में अपनी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना बताती है कि उसका दिल करता था कि अपने बच्चों की कार में बैठकर शॉपिंग करने जाए। यह बच्चों के लिए छोटी बात है। इतनी आसान कि कहते हैं, कभी भी चलो। लेकिन कब?

इन सबके बीच में ही गहरा दुख बैठा हुआ है। अन्दर कहीं जमा हुआ, जिसमें बाथरूम की पुरानी टाइलों की तरह धीरे-धीरे अन्दर कुछ टूटता जाता है। हम सबके दुख, जिनसे हमें ठीक से नज़रें मिलाना भी नहीं आता। यह भी नहीं आता कि अगली सुबह बस अड्डे पर छोड़ने आए माँ बाप से विदा लेंगे तो क्या कहेंगे? कौनसी बात है जो उन्हें तसल्ली दे सकेगी कि जब वे मरेंगे तो अकेले नहीं होंगे? क्या हमीं को ख़ुद पर यक़ीन है?

इसे देखने से मत चूकिए। यह rare फ़िल्म है।

Still Walking (Aruitemo Aruitemo) - 2008
Japanese

Director- Hirokazu Koreeda
Cast- Hiroshi Abe, Yui Nutsukawa, You



05 जुलाई, 2011

कांति शाह के पास पैसा होता तो वे Delhi Belly से बेहतर फ़िल्म बनाते


मैंने कुछ साल पहले एक बच्चे को बाकी बच्चों को एक चुटकुला सुनाते देखा और सुनाने से पहले सुनाने वाले ने बाकी बच्चों से यह कहा कि सुनने के बाद जो नहीं हँसा, वह बेवकूफ़ होगा। चुटकुला पूरा हुआ और कई बच्चे हँसे। 

आमिर ख़ान ने अपनी महान फिल्म के प्रचार के दौरान भी ऐसा ही कुछ कहा कि पकाऊ और खूसट लोगों को यह फ़िल्म पसंद नहीं आएगी। यह लगभग ऐसा ही है कि कचरा दिखाने से पहले कहा जाए कि आपको यह सुन्दर नहीं लगा तो आपको ख़ूबसूरती की समझ नहीं है। डेल्ही बैली से जुड़ी हँसने की यही इकलौती बात है कि कोई आदमी, चाहे वह कितना भी बड़ा स्टार क्यों न हो, दर्शकों को इतना बेवकूफ़ कैसे समझ सकता है।

नहीं जी, हमें गालियों से कोई प्रॉब्लम नहीं है और न ही किसी ऐसी चमत्कारिक नई चीज से, जिससे अक्षत वर्मा और अभिनय देव हमें चौंकाना चाहते हैं। हम हर नई चीज के लिए बाँहें फैलाकर बैठे हैं और कब से इस इंतज़ार में हैं कि यहाँ भी कोएन ब्रदर्स या टैरंटिनो की भाषा का इस्तेमाल करके अच्छी फिल्में बनें। लेकिन आपके इस नई तरह के सिनेमा के क्रांतिकारी नारे से हमें ऐतराज़ है। क्योंकि आपके पास कहने को तीन भी ग्राम नई बात नहीं है और बाकी चीजें तो आप भूल ही जाइए।

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02 जुलाई, 2011

The Breakfast Club: "जब आप बड़े होते हैं तो आपका दिल मर जाता है"




एक दिन की कहानी। छुट्टी का एक दिन, लेकिन स्कूल में। पाँच किशोर जिन्हें उनकी दुनिया उसी नज़र से देखना चाहती है जो नज़र उसने ख़ुद बनाई है। यह आसान है ना कि एक को पढ़ाकू समझ लें और दूसरे को सुन्दर लेकिन बेवकूफ़। और चूंकि वे सिर्फ़ वही स्टीरियोटाइप नहीं हैं, जो आपने गढ़े हैं तो नियम तो टूटेंगे ही। तब आप फ़िक्र करेंगे कि बीस साल बाद दुनिया का क्या होगा जब हम बूढ़े हो जाएँगे और ये बच्चे देश चलाएँगे। यह बच्चों और किशोरों के साथ हमारे समाज के दोगले व्यवहार की प्यारी सी कहानी है। कि कैसे आपने अपनी कुंठाओं को खत्म करने के लिए उनका इस्तेमाल किया है, कैसे अपनी नाकामियों का ग़म भुलाने को आप अपनी उम्मीदें उनके सिर पर लाद देते हैं और फिर जब वे कहते हैं कि आपने उन्हें कुचल दिया है तो आप कहते हैं - "हमने बच्चों के लिए क्या क्या किया और अब वे सब भूल गए।" 
                     शुक्र मनाइए साहब कि भूल गए। जो आपने उनके साथ किया, वही लौटाते तो क़यामत ना आ जाती? 


The Breakfast Club (1985)
English
Director- John Hughes
Cast- Emilio Estevez, Molly Ringwald, Judd Nelson, Anthony Michael Hall, Ally Sheedy