18 दिसंबर, 2010

सत्तर मिनट का धुनी: शिमित अमीन


शिमित अमीन लॉस एंजिल्स में रहते थे. वहीं से भूत की एडिटिंग करते हुए रामगोपाल वर्मा ने उन्हें अब तक छप्पन का निर्देशक बनने को कहा. अपने निर्देशक बनने को शिमित महज एक संयोग मानते हैं, लेकिन यदि ऐसा है तो यह दशक के सबसे खूबसूरत संयोगों में से एक है.
अब तक छप्पन पुलिसवालों की सत्या ही है, जो आपको चौंकाती है लेकिन उसके लिए उसे लंबे एक्शन दृश्यों की जरूरत नहीं है. उसके किरदार आम हैं, उनकी मजबूरियां, इच्छाएं और बातें भी आम.

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रब के रूठने से बेपरवाह : इम्तियाज अली



अनुराग की फिल्मों में जितना तनाव है, इम्तियाज की फिल्मों में उतना ही उल्लास है. उनके नायक अमीर हैं, अक्सर उद्योगपति (बशर्तें आप लव आजकल के पुराने सैफ को छोड़ दें) और उनकी नायिकाएं परियों जैसी हैं, खुशी के रंग के कपड़े पहनकर चहकती और लगातार बोलती हुईं. उनके किरदार हाजिरजवाब हैं, उनकी मुश्किलें बस प्यार की ही हैं और उनकी फिल्मों में कुछ पंजाबी किस्म के गाने और एक खूब हिट होने वाला उदास गाना(एक पेड़ हमने प्यार का, आओगे जब तुम साजना या ये दूरियां) जरूर होता है. अब आप कह सकते हैं कि फिर उनके नायक राज मल्होत्रा से, उनकी नायिकाएं अंजलि से और उनकी फिल्में दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे से कैसे अलग हैं और वे क्या नया रच रहे हैं?

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खोसला, लकी और धोखा: दिबाकर बनर्जी


दिबाकर को इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता. बड़ी वजह यह है कि आप उनकी फिल्मों को बाकी निर्देशकों की तरह खास जॉनर या खांचों में नहीं बांट सकते. वे एक फिल्म बनाते हैं और उसे चाहने वाले दर्शकों का एक बड़ा वर्ग और फिर उसे भूलकर बिल्कुल अलग किस्म की दूसरी फिल्म बनाते हैं, जिससे दूसरा वर्ग जुड़ता है और दिबाकर अगली बार उसके भी वफादार नहीं रहते.

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जग जा री गुड़िया... : विशाल भारद्वाज


विशाल भारद्वाज के भीतर दो तरह के विशाल भारद्वाज हैं. कमीने के गुड्डू और चार्ली की तरह, लेकिन दोनों हकलाते या तुतलाते नहीं हैं. एक के पास अपार दुख, विश्वासघात और क्रोध की कहानियां हैं और दूसरे के पास बच्चों की कहानियां.

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15 दिसंबर, 2010

जहां ज़िंदगी प्रेमगीत नहीं रह पाती: अनुराग कश्यप

सिनेमा को मनोरंजन ही करना चाहिए या कुछ सार्थक कहने की कोशिश भी करनी चाहिए, इस पर लम्बी बहसें होती रही हैं लेकिन बहसों में पड़े बिना अस्सी और नब्बे के दशक के सतही दौर से हिन्दी सिनेमा को उबारने के लिए पिछले कुछ सालों में कई हाथ खामोशी से उठते गए हैं. किसी क्रांति के दावे किए बिना उन्होंने वह बनाया है, जिसे बनाने के लिए वे नागपुर, जमशेदपुर या बनारस की अपनी बेचैन रातें छोड़कर मुंबई आए थे. उसका हिस्सा पटकथा लेखक भी हैं, सिनेमेटोग्राफर, एडिटर और गीतकार, संगीतकार भी. उन सब के हिस्सों को पर्याप्त सम्मान देते हुए हम इस श्रंखला में उन निर्देशकों की बात कर रहे हैं जिन्होंने बिना नारे लगाए परंपरा बदली है. जिन्होंने हिन्दी फिल्मों की एक नई धारा विकसित की है जो मनोरंजन करने के लिए अपनी गहराई नहीं छोड़ती. सबसे पहले अनुराग...

कमाल अचानक नहीं होता, लेकिन लगता अचानक ही है. वह पहाड़गंज के एक बेंच जैसे बिस्तर पर होता है जहां चंदा देव को बताती है कि कैसे उसके प्रेमी ने उसका एमएमएस बनाया था, जो देश भर के लोगों ने डाउनलोड करके देखा. उन देखने वालों में उसके पिता भी थे जिन्होंने आत्महत्या कर ली, यह कहने की बजाय कि कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया सो हो गया, अब सब भूल जाओ.

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01 दिसंबर, 2010

ब्रेक के बाद वापस मत आइए


रेणुका कुंजरू और दानिश असलम को गलतफहमी थी कि इम्तियाज अली जैसी फिल्में लिखकर हिट हो जाना दुनिया का सबसे आसान काम है और नकल से चिढ़ने वाले लोगों के लिए खुशखबरी है कि वे बुरी तरह असफल हुए हैं. यह फिल्म बॉलीवुड या किसी भी बाजार की इस भेड़चाल की भी पोल खोलती है, जो एक प्रोडक्ट ज्यादा बिक जाने पर बिना सोचे समझे रंग बदलकर उसकी नकल निकालने के आइडिया से आगे सोच ही नहीं सकती. फिल्म की आत्मा शायद कहीं तेल लेने चली गई है क्योंकि पूरी फिल्म में हम पर डायलॉग्स की लगातार बमबारी होती है लेकिन न हंसना आता है, न रोना. दीपिका बार-बार गुस्से में पैर पटकती हुई इतनी ओवरएक्टिंग करती हैं कि ‘लव आजकल’ की उनकी बिलकुल इसी किरदार की अच्छी छवि को भूल जाने का मन करता है.

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17 सितंबर, 2010

दबंग : यह श्रद्धांजलि है, जश्न नहीं


दबंग कितनी देखी जा रही है, यह बताने की जरूरत नहीं है. एक वर्ग है जो ऐसी फिल्मों से सिर्फ इसीलिए खुश है क्योंकि छोटे शहरों के सिनेमाघरों में इनसे फिर रौनक लौटती है. कुछ उत्साही समीक्षकों के लिए ‘वांटेड’, ‘गजनी’ और ‘दबंग’ भदेस हिन्दुस्तानी हीरो की वापसी की फिल्में हैं जो हर वाक्य में अंग्रेजी के शब्द नहीं झाड़ता और जिसकी फाइटिंग में मर्दों वाली बात है. वही पुराना फिल्मी हीरो जिससे पूरे हिन्दुस्तान को अपनापन लगता है.

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13 अगस्त, 2010

पीपली लाइव : नत्था! और हमारा अंधा होना...


आप बाहर निकलते हैं और रो लेना चाहते हैं. क्या यह पूरी फिल्म के दौरान बार-बार जोर-जोर से हंसने का पछतावा है? शायद हो, शायद कुछ और हो. शायद अनुषा रिजवी इस तरह से हम पर हंस रही हों कि कैसे बेशर्मी से गरीबी और मृत्यु के दृश्यों में हम मुंह फाड़कर हंस पाते हैं. हां, वे इसे इसी तरह बनाना चाहती थी और पॉपकोर्न के थैलों के बीच किसी और तरह इसे बनाना शायद मुमकिन भी नहीं था. हमने हिन्दी फिल्मों को बस इस एक कोने में ले जाकर छोड़ दिया है. हम कोई गंभीर बात नहीं सुनेंगे. सुनाओगे तो चिल्लाकर उसका विरोध करेंगे या इगनोर कर देंगे. हम महात्मा गांधी को सिरे से खारिज करते हैं, जब तक वह ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ न हो. हम गाँवों की कहानियों पर थूकते हैं, जब तक वह ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ न हो.

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05 जून, 2010

राजनीति Politically correct नहीं है


राजनीति मनोरंजक है (आखिरी आधे घंटे को छोड़कर) लेकिन Politically उतनी ही ठीक है, जितनी कैटरीना कैफ की हिन्दी। इसके सामाजिक सरोकार उतने ही आधुनिक हैं, जितना प्रचार के लिए राहुल गांधी की नकल करते हुए लोकल ट्रेन में घूमने वाले रणबीर के रहे होंगे। यह महाभारत का (या बकौल प्रकाश झा, उसके किरदारों का) आधुनिक संस्करण है लेकिन हिम्मती नहीं।

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