22 अगस्त, 2009

कमीने न तो नेचुरल है और न ही ईमानदार


मैं एक साल से इस फ़िल्म का इंतज़ार कर रहा था और मेरे पास इतनी उम्मीदें थी कि जब मैं थियेटर में फ़िल्म देख रहा था - और विश्वास कीजिए, मेरे मन में सिर्फ़ अच्छे पूर्वाग्रह ही थे – तो मुझे एक क्षण को भी ऐसा नहीं लगा कि मैं किसी महान और कालजयी फ़िल्म के साथ जुड़ रहा हूँ। यह एक साधारण सा अनुभव था, जिसमें कुछ अच्छे पल भी थे। यह ऐसी फ़िल्म नहीं थी, जिसे मैं बार बार देखना चाहूं। मैं एक भी बार जोर से नहीं हँसा और एक भी बार मेरी आँखों में पानी नहीं आया। जब मैं बाहर निकला तो एक भी दृश्य ऐसा नहीं था, जो दिमाग में बैठा रह गया हो या जिसने रात में सोने न दिया हो। फिर यह कैसा डार्कनेस है, जिसकी बातें की जा रही हैं? क्या सिनेमा सिर्फ़ सिनेमेटोग्राफ़ी ही है और उसके कमाल के पीछे आप अपनी कहानी की कमज़ोरी छिपा सकते हैं?

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