03 मार्च, 2011

एक जिद्दी लड़का, जिसे वे तोड़ नहीं पाए

यह लेख तहलका के 15 मार्च, 2011 के अंक में छपा है। पहली फ़ोटो में अनुराग की बायीं तरफ़ खड़े जिन सज्जन का चेहरा और सिर लाल गमछे ने ढक रखा है, वे प्रतिभाशाली राजीव रवि हैं, जिनकी सिनेमेटोग्राफी आप देव डी और गुलाल में भी देख चुके हैं।



आप पिछले कुछ सालों की हिन्दी फिल्में देखते होंगे और ज़्यादा आशावादी नहीं होंगे तो यह उम्मीद नहीं करेंगे कि कोई फिल्म की शूटिंग करने मुम्बई-दिल्ली या किसी महानगर से बाहर जाएगा। बाहर जाएगा तो समन्दर लाँघकर विदेश चला जाएगा। फिल्मों की कहानियां इन शहरों के ही थोड़े गरीब हिस्सों तक पहुंच जाएँ तो भी हम अहसानमन्द होंगे। ऐसे माहौल में हम बनारस पहुँचते हैं, जहाँ अनुराग कश्यप अपनी अगली फिल्म की शूटिंग कर रहे हैं।
यह वही शहर है, जहाँ अनुराग का बचपन बीता है और जहाँ उनके माता-पिता रहते हैं।
लेकिन शूटिंग की जगह बनारस नहीं है। यह ढ़ाई महीने से यूनिट का और दो दिन के लिए मेरा ठिकाना है। तंग गलियों, रिक्शे वालों की गालियों और गंगा स्नान का यह शहर ‘राम तेरी गंगा मैली’, विकर्षित करती कम कपड़ों वाली लड़कियों की तस्वीरों वाली कुछ भोजपुरी फिल्मों और कुछ ऐसी फिल्मों के पोस्टरों से अटा पड़ा है, जो अपने बारे में ‘सेक्स और एक्शन से भरपूर’ लिखकर ही सारी जानकारी दे देती हैं। ऐसे में मुझे ‘वाटर’ की शूटिंग के दौरान हुआ बवाल याद आता है। कोई बताता है कि जिस हॉल के बाहर ‘राम तेरी गंगा मैली’ लिखा है, जरूरी नहीं कि अन्दर वही फिल्म चल रही हो। लेकिन जो भी हो, यही वह शहर है जहाँ आपकी अगर किसी ऑटो वाले से बात नहीं बनेगी और आप कहेंगे कि आप रिक्शा पर जाना चाहते हैं तो वही आपको मोलभाव करके रिक्शा करवाकर देगा।
हम दोपहर में कोई एक-डेढ घंटे का सफ़र करके और जिला बदलकर अहरौरा पहुँचते हैं। यह तालाब के पास पेड़ों के बीच में एक कच्चे घर की लोकेशन है। अनुराग पहले से युवा और ख़ुश लग रहे हैं। अपने मिजाज की फिल्में बनाने के लिए उन्होंने अवसाद और नकार के जो साल झेले हैं, उनके बाद उन्हें खुश देखना उम्मीद जगाता है। वे जब अपनी फिल्म के बारे में बताना, उसके संगीत के हिस्से सुनवाना और झलकियाँ दिखाना शुरू करते हैं तो उनके चेहरे और हाव-भाव में वही उत्साह होता है जो घर के किसी अँधेरे कोने से कोई नई चीज ढूँढ़ निकालने के बाद किसी स्कूली बच्चे के चेहरे पर होता है। शायद यही उनमें वह ऊर्जा भरता है, जो ऊर्जा आम तौर पर बॉलीवुड के नियम मानने से मना करने वाले किसी फिल्मकार को आसानी से नहीं मिलती।
छ: दशकों में और तीन पीढ़ियों में फैली, बिहार के कोयला माफिया की इस कहानी का नाम फिलहाल ‘गैंग्स ऑफ वासीपुर’ है, लेकिन जब शॉट शुरू होता है तो क्लैप बॉर्ड पर फिल्म के नाम की ज़गह ‘प्रोडक्शन नं 7’ ही लिखा दिखता है। यह 1940 का दृश्य है। हैरत की बात यह है कि सीन की तैयारियों के बाहर भी आप गाँव देखेंगे तो उसे 1940 मान लेना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। फिल्म में जिस ‘पीरियड’ को दिखाने के लिए इतनी मेहनत की जाती है, देश का एक हिस्सा अब भी उसी में जी रहा है।
इस सीन के पूरा होते-होते शाम होने लगी है। मैं अनुराग से ‘उड़ान’ को मिले पुरस्कारों की बात करता हूँ। वे भी शायद नहीं जानते कि बॉलीवुड में पुरस्कार पाने की कोई भी पारम्परिक शर्त पूरी किए बिना ऐसा कैसे हुआ, लेकिन वे ख़ुश हैं। पेड़ पर एक लाइट लगाई जा रही है। अनुराग कहते हैं कि रात के सीन में इसका इस्तेमाल चाँद की तरह किया जाएगा। उस सीन की तैयारियाँ होते-होते अँधेरा हो गया है। क़रीब सवा सौ लोगों की पूरी यूनिट थकान के बावज़ूद लगी हुई है लेकिन तभी कुछ वैसा ही होता है जिसके लिए मुझे बनारस में वाटर की याद आई थी।
कुछ आदमी आते हैं और लाइटें और कैमरे तोड़ देने की धमकी देते हुए कहते हैं कि यह यहाँ के विधायक की ज़मीन है और उनसे अनुमति नहीं ली गई। विधायक से फ़ोन पर बात करने का और उन्हें सब अधिकारियों से ली गई अनुमति के बारे में बताने का कोई फ़ायदा नहीं होता। काम रुक गया है। एक सीन बचा है और अगर वह यहाँ नहीं हो पाया तो उस दिन की पूरी शूटिंग किसी और घर में फिर से करनी होगी, लेकिन रोकने वालों को फिल्म या उसकी मुश्किलों से कोई मतलब नहीं है। एक घंटे की समझाइश और गुज़ारिश के बाद भी विधायक नहीं मानतीं। यह उनका इलाका है और वे ऐसा कहती नहीं, लेकिन उनके कारिंदों की भाषा देखकर लगता है कि वहाँ उनकी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलना चाहिए। शायद यही घटना उस बनारस और उत्तरप्रदेश की परिभाषा है, जहाँ सत्ता कुछ ज़्यादा ही अहंकारी ढंग से आपकी नियति तय करने की कोशिश करती है। लौटते हुए अनुराग कहते हैं कि यही सब चीजें उन्हें यहाँ से दूर जाने पर मज़बूर करती रही हैं। वे इससे पहले की शूटिंग में आई मुश्किलों के बारे में बताते हैं और यह भी कि वहाँ एक ठीक ठाक ज़िन्दगी जीने के लिए कितने राजनीतिक समीकरणों को जानना और उनसे समझौता करना ज़रूरी है। वे अपना पहले का गुस्सा याद करते हैं और कहते हैं कि उनका गुस्सा कम नहीं हुआ है, लेकिन अच्छी बात यह है कि अब वे उसे अपने काम में ज़्यादा सकारात्मक ढंग से इस्तेमाल कर पा रहे हैं।
लौटते हुए देर हो गई है और हर मोहल्ले से सरस्वती पूजा के जुलूस गंगा की ओर जा रहे हैं। उनमें किशोर लड़के ज़्यादा हैं और वे पागलों की तरह ‘मुन्नी बदनाम हुई’ की पैरोडी के किसी भजन पर नहीं, ‘मुन्नी बदनाम हुई’ पर ही नाच रहे हैं। ऐसा भक्तिभाव कम ही शहरों में देखने को मिलता है।
अगली सुबह शूटिंग पर जाने से पहले हमें अनुराग के साथ उनके घर जाने और उनके माता-पिता से मिलने का मौका मिलता है। रास्ते में अनुराग वह सिनेमाहॉल दिखाते हैं जहाँ वे बचपन में ज़्यादातर फ़िल्में देखा करते थे। पिछले कुछ दिन अनुराग की तबियत थोड़ी खराब रही है और माँ का आदेश है कि सुबह घर से दही-चावल खाकर ही जाएँ। यह देखकर भला सा लगता है कि उन कुछ मिनटों में भी वे अनुराग को और हमें भी, छोटे बच्चों सा स्नेह देते हैं।
घर से अहरौरा तक के रास्ते में अनुराग अपने बचपन के बारे में बताते हैं जब घर में आने वाली रेडियो, टीवी जैसी हर चीज तीनों बहन-भाइयों को पढ़ाई या किसी भी चीज में सम्मिलित अच्छे प्रदर्शन से कमानी होती थी। तब जाकर पिताजी ईनाम में कुछ लाते थे। अनुराग कहते हैं कि उन्हें आश्चर्य होता है जब लोग अपनी मौलिक ज़रूरतों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर रखते हैं और फिर उनके लिए रोते और पिसते रहते हैं।
आज भी फिल्म में 1940 ही है। जब हम सेट पर पहुँचते हैं, तो एक हाट लगभग तैयार ही हो चुका है। घोड़े-ताँगे और ऊँट हैं और अनाज और दालों की बहुत सी दुकानें। वहाँ चीजें मन और सेर के वज़न में बेची जा रही हैं। सड़क पर गाँव वालों की भीड़ है, जिन्हें नियंत्रित करने में यूनिट का आधा दिन जाने वाला है। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि दूर खड़ी उनकी साइकिलें या मोटरसाइकिलें सत्तर साल पुराने किसी दृश्य को कैसे बर्बाद कर सकती हैं। उनमें से अधिकांश लोग यह ज़रूर जानना चाहते हैं कि फिल्म की हीरोइन कौन है? यह नाटकीय ढंग से उसी को सिद्ध करता है, जो अनुराग ने कुछ महीने पहले एक बहस में कहा था कि आम आदमी को भी आम आदमी की कहानी पर बनी फिल्म में नहीं, कैटरीना कैफ में ज़्यादा दिलचस्पी होगी।
अभी शूटिंग का एक महीना और बाकी है। दो हिस्सों में बनने वाली इस फिल्म को पूरा एक साथ ही शूट किया जा रहा है। अनुराग इसे म्यूजिकल देहाती गैंगस्टर फिल्म बताते हैं। यह अनुराग की अब तक की सबसे बड़े बजट की फ़िल्म है और यह तब है, जब इसमें मनोज वाजपेयी के अलावा एक भी बड़ा स्टार नहीं है। लेकिन बड़ी बात यह है कि यह उनकी मज़बूरी नहीं, मर्ज़ी है। ऐसे समय में, जब वे हिन्दी फिल्मों के मनचाहे सितारों के साथ काम कर सकते हैं, वे अपनी कहानी के प्रति प्रतिबद्ध रहना चुनते हैं। जब उनके आसपास और दूर-दूर तक के लोगों की अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं का पहाड़ उनके सिर पर बैठ जाना चाहता है, वे चुपके से बच निकलते हैं और अपने मन की मशाल जलाते हैं। और इसके लिए दुनिया को ठोकर पर रखना पहली शर्त है।