14 मई, 2011

शागिर्द: आधे हथियार और मिट्टी से इश्क़

तिग्मांशु धूलिया के पास कुछ ऐसी चीजें हैं जो उनकी शैली की फिल्में बनाने वाले समकालीन फिल्मकारों के पास उस तरह से नहीं हैं। अनुराग और विशाल के पास आपराधिक डार्क ह्यूमर हैं लेकिन अनुराग उनकी कहानियाँ कहते कहते थोड़ा शहर की तरफ बढ़ जाते हैं और विशाल गाँव की तरफ। अपनी पहली फिल्म ‘हासिल’ की तरह तिग्मांशु छोटे शहर या कस्बे को बेहद विश्वसनीय ढंग से दिखाते हैं। हैरत की बात यह है कि इस बार वे पुरानी दिल्ली में उसे खोजते हैं। इस तरह उनकी पूरी फिल्म मिट्टी के रंग की हो जाती है।
शायद अनुराग की फिल्मों से उनका अंतर कम शहरी या ज्यादा शहरी होने का नहीं है। उसी शहर और उन्हीं किरदारों की कहानी में अनुराग साइन बोर्डों, रंगी हुई दीवारों और गहरे गुस्सैल रंगों पर ज्यादा ठहरते हैं और तिग्मांशु खंडहरों और कबाड़ में ज्यादा। ‘शागिर्द’ के कई महत्वपूर्ण सीक्वेंस दिल्ली के ऐसे ही खंडहर किलों, पुरानी दिल्ली के गोदामों या टूटे दरवाजे वाले घरों के आसपास हैं। तिग्मांशु की अच्छी बात यही है कि कहानी फिल्माने का उनका एक मौलिक स्वर है। लेकिन ‘शागिर्द’ वहां बिखरती है, जहाँ उसके सामने सवाल आता है कि सेट तैयार है और मूड भी, लेकिन अब अपनी कहानी कहो। तब तिग्मांशु जैसे अस्सी या नब्बे के दशक की उन कहानियों की तरफ जाते हैं जिनमें एक मंत्री या नेता को राजनीति का प्रतिनिधि दिखाया जाता था, एक पुलिस अफसर को पुलिस का और उनकी यारी या दुश्मनी की कहानी कही जाती थी। इसीलिए तिग्मांशु के पास मज़ेदार ज़मीनी डायलॉग तो हैं लेकिन कहानी उनकी अपनी नहीं लगती। वह कई बार सुनी हुई कहानी लगती है इसलिए न तो वह वैसी सिहरन पैदा कर पाती है जैसा नैतिकता के सवाल में न फँसी हुई किसी फिल्म को करना चाहिए और न ही अपने किरदारों से मोह जगा पाती है। आपको न उनकी फ़िक्र होती है और न आपको उन पर गुस्सा आता है। गलियों और सड़क के कुछ दृश्य आपको बेहद खूबसूरत लगते हैं और उनके और कुछ अच्छे डायलॉग्स, अच्छे अभिनेताओं के सहारे आप फिल्म देखते जाते हैं। लेकिन फिल्म में पत्रकार बनी रिमी सेन जब पुलिस पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाकर चिल्लाती हैं तो वह बहुत बार सुनी बात लगती है। ऐसी बातें अब हममें आक्रोश नहीं जगाती। स्टिंग ऑपरेशन और फिल्में ही हमें इतना कुछ दिखा चुके हैं कि किसी नेता का अपने स्वार्थ के लिए अपने ही किसी भी आदमी को मरवा देना तक हमें चौंकाता नहीं। फिल्म जितनी गोलियाँ खर्च करती है, उतनी क्रूर होने की बजाय साधारण होती जाती है।

लेकिन शागिर्द के पास नाना पाटेकर हैं जो ‘अब तक छप्पन’ के अपने किरदार के एक विस्तार में ही हैं लेकिन कहीं कहीं नई तरह से मंत्रमुग्ध करते हैं। उनसे भी ज्यादा मुग्ध जाकिर हुसैन करते हैं जिन्हें देखा जाना अभी बाकी है और उन्हें इससे पहले शायद ही इतना महत्वपूर्ण किरदार मिला हो। मोहित अहलावत बस इतना करते हैं कि काम बिगाड़ते नहीं, लेकिन कहीं कहीं तो वे सहजता से खड़े भी नहीं हो पाते। ‘आई एम’ में कमज़ोर पड़े अनुराग कश्यप अपने पहले बड़े किरदार में पास हो जाते हैं।

तिग्मांशु की एक कमी और रही। गाना तो था ही नहीं, बैकग्राउंड संगीत भी कहीं फिल्म में कुछ जोड़ता नहीं। जबकि अनुराग और विशाल की ऐसी फिल्मों में संगीत ही काफी असर पैदा करता है। इसीलिए लगता है कि तिग्मांशु आधे हथियार लेकर क्यों उतरे हैं?