30 मई, 2012

क्या आपके ‘बुढ़ाना’ में भी कोई नवाज़ है?


एक लड़का, जो बड़ौदा के एक कॉलेज में दिन में थियेटर की पढ़ाई करता था और खर्च चलाने के लिए रात में एक पैट्रोकैमिकल फ़ैक्ट्री में नौकरी करता था 60 हजार वोल्ट के कैथोड और ऐनोड को पकड़े हुए यह जांचता हुआ कि अरब से आया हुआ यह तेल कितना साफ है, कितना मैला। और बीच में सोने के घंटे कहां होते थे, उनका हिसाब कौन देगा? कौन देखेगा पीपली लाइव के राकेश की उन आंखों के बीच में से झांककर, जिन्हें एकाग्रता से ऐक्टिंग के सपने नहीं, कैथोड और ऐनोड देखने होते थे क्योंकि पलक झपकते ही जान जा सकती थी। 

इसलिए जब हम और आप कहानी के ख़ान को देखकर ताली बजा रहे हों, कुछ महीने बाद तलाश देखकर या कुछ हफ़्ते बाद गैंग्स ऑफ वासेपुर के दबंग फ़ैज़ल खान को देखकर या कान्स पहुंची मिस लवली के सी ग्रेड फिल्म निर्माता को देखकर, तब यह हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि हम दस-बारह साल पीछे लौटें और फिर उस से भी पीछे, और एक अपराधबोध के साथ मुज़फ़्फ़रनगर के बुढ़ाना से आए उस लड़के को याद करें, जिसमें हमेशा से उतनी ही प्रतिभा थी जितनी आज पहचानी जा रही है। लेकिन वे बदसूरत दिन थे, जब उसे कितनी ही बड़ी फ़ॉर्मूला फ़िल्मों के ऑडिशन से लौटना पड़ता था क्योंकि उसका कद छ: फुट नहीं था, उसका रंग गोरा नहीं था और उसे कभी यह बात समझ में नहीं आई कि ऐक्टर बनने के लिए लोहा उठाने की क्या जरूरत है? नतीजा वही कि एक अभिनेता, जो एक साथ तीन फ़िल्में लेकर कान्स में जाता है और जिस पर हम सीना चौड़ा करते हैं, उसे आठ-दस साल पहले कितनी ही फिल्मों में एक-एक मिनट के रोल करने पड़े थे, कितनी ही विज्ञापन फिल्मों में जूनियर आर्टिस्ट बनना पड़ा था। जब हम मुग्ध होकर सचिन आया रे भैया वाले विज्ञापन देखते थे, तब वह स्क्रीन पर कपड़े पीट रहे धोबियों में से एक था। 

हम एक्टर्स की भीड़ में छुप जाया करते थे। ट्रॉली पर जब कैमरा आता था, तब सचिन आया रे भैया गाते हुए हम कपड़े पीटते रहते थे, लेकिन चेहरा फेर लेते थे। चेहरा भी नहीं दिखता था और शाम को पैसे भी मिल जाते थे। पैसे चाहिए तो क्या करें? कुछ और कर नहीं सकते। बीच बीच में गड़बड़ हो जाती थी कि जूनियर आर्टिस्ट का जो कोऑर्डिनेटर होता था ना, वो पकड़ लेता था हमें क्योंकि जूनियर आर्टिस्ट का कार्ड तो होता नहीं था हमारे पास। तो कई जगह पर भगा भी दिया जाता था हमें।

इस
हम में और भी साथी थे, जिनमें से कुछ ने माया के इस शहर के आगे घुटने टेक दिए और कुछ अब भी लड़ रहे हैं। जो अभी भी लड़ रहे हैं, उनके बारे में बताते हुए नवाज़ हँसता है। यह रोने जैसा है।

ख़ैर, एक बड़ा किसान परिवार था। ऐसा इलाका जहां जितना गन्ना होता है, उतनी ही हत्याएं, डकैती और ऑनर किलिंग भी होती हैं। ऐसे में नवाज़ के पिता ने कहा कि तुम देहरादून शिफ़्ट हो जाओ। नवाज़ ने अपने भाई-बहनों को देहरादून भेज दिया और ख़ुद गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार चला गया। फिर ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली। दो साल काम ढूंढ़ा लेकिन उसके लिए ग्रेजुएशन काम नहीं आई। उसके साथ रिश्वत या सिफ़ारिश होती तो काम आ सकती थी। तभी पहली बार एक दोस्त के साथ मंडी हाऊस में नाटक देखा। और नाटक ने उस लड़के को देखा। और चुना।

वह जीवन का सबसे शुद्ध रूप था। कोई करप्शन नहीं। मैं ऐसा ही कोई काम करना चाहता था। सब क्रियेटिव चीजों में ऐसा ही है। वह हुनर आपके पास है तो कोई छीन नहीं सकता उसे। जब मैं किसी को स्टेज पर ऐक्टिंग करते देखता था तो जो अच्छा लगता था, वो अच्छा लगता था। प्रतिभा को तुरंत वाहवाही मिल जाती थी। कला में आप किसी को बेवकूफ नहीं बना सकते। जो सामने है, वही है। इसीलिए कहते हैं कि ऐक्टिंग इज अ न्यूड आर्ट।

दिल्ली में तब वह लक्ष्मीनगर में रहता था। उस एक-डेढ़ साल में उसने 150-200 नाटक देखे। नौकरी में तो पहले वाला हाल ही था, लेकिन अब उसकी इतनी फ़िक्र नहीं थी। एक काम मिल गया था, जिसके लिए बाद में और पागल होते जाना था। कमरा बन्द करके 18-18 घंटे सोचते रहना था, बड़बड़ाते रहना था और अपने किरदारों के समन्दर में उतरते रहना था। बाद में यह किसी नए लड़के को बताना था तो आँखों में चमक आ जानी थी और जुनून की कुछ बूंदें।

ये काम साला, इतना गहरा है कि जितना डूबते जाओ, उतना मज़ा आता है। ज़िन्दगी में यार, एक काम ठीक से कर लो, वो ही बहुत है। और वो भी पूरा नहीं हो पाता। हर चीज में इतनी चीजें होती हैं। उसका कुछ हिस्सा हाथ में आ जाए एक जीवन में, तो उतना ही काफ़ी है।

तब वह दोस्तों के साथ नुक्कड़ नाटक करने लगा था और उससे थोड़े-बहुत पैसे भी मिल जाते थे। एनएसडी में जाना चाहता था लेकिन कोई पूरा नाटक नहीं किया था, इसलिए क्वालीफ़ाइड नहीं था। दिलचस्प बात देखिए कि हमारे यहां के ऐक्टिंग स्कूल ऐसे आदमी को तो मौका तक देने को तैयार नहीं, जिसने पहले से नाटक न किए हों। इसीलिए वह बड़ौदा चला गया, एमएस यूनिवर्सिटी में ड्रामा पढ़ने। और वहां रात की नौकरी भी की। लेकिन फिर एक साल में ही वापस आ गया। तेल को दूसरे लोग भी जाँच सकते थे, उसे ख़ुद को जाँचना था। लौटकर एनएसडी की परीक्षा दी और दाखिला हो गया। यह 1993 था।

दो साल बीते। शांत और अंतर्मुखी व्यक्तित्व था। नाटक खूब किए लेकिन लगभग सभी कॉमिक किरदार। उसके स्टेज पर आते ही लोग हँसने लगते थे। यही उसने बाद में
बॉलीवुड में देखा। बाहर से आया है, गैरपारंपरिक चेहरा है तो ऐसा करो, इसे कॉमेडियन बना दो, या कोई नेगेटिव रोल दे दो, या कोई चरित्र भूमिका। हीरो तो देखो भाई, वही बनेगा जिसका बाप हीरो था। या जिसका कद इतना, चेहरा ऐसा हो।

क्यों बनेगा? उसमें क्या काबिलियत है ऐक्टिंग की? नहीं है तो क्यों बर्बाद कर रहे हो सिनेमा को? और मीडिया भी उन्हीं को प्रमोट कर रहा है। मैं तो उस वक्त था नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि जब मुग़लों का राज था, उस वक्त मीडिया भी होता तो सिर्फ मुग़लों के बारे में ही लिखता। क्योंकि वहीं से उन्हें पैसा मिलता। यही इस इंडस्ट्री में है। जैसे एक राजा का सिस्टम होता है, इन लोगों का पूरा एक सिस्टम है। और उस सिस्टम के तहत सबको काम करना पड़ता है। बाहर के लोगों को भी। कुछ विद्रोही टाइप के लोग आ जाते हैं। वे विद्रोह करते हैं। उनमें से बहुत से लोगों को ख़त्म भी कर दिया जाता है। लेकिन उनमें कुछ लोग इतने बेशर्म होते हैं कि हटते नहीं हैं।
अवॉर्ड भी ऐसे ही हैं। टीवी का एक एपिसोड होता है वह पूरा। भरपूर पैसा मिलता है, पूरा हिन्दुस्तान देखता है, वाहवाह होती है। उसमें इतने प्रोडक्ट लॉन्च होते हैं, एक पार्टी सी होती है और उस स्टार को ईनाम दे दिया जाता है जो डांस करेगा वहां। ये है अवॉर्ड की कीमत। पूरा लॉबी सिस्टम है कि इस बार उसके भांजे को दे दो, उसके पापा को दे दो।


यह गुस्सा तब भी उसके भीतर था, भले ही कह न पाता हो। बाद में मुम्बई में नवाज़ का एक निर्देशक दोस्त था, जिसकी फ़िल्म में उसे छोटा सा रोल मिला था। नवाज़ ने उससे कहा, मुझे तू लीड रोल दे दे अपनी फ़िल्म में। वह बोला कि यार, आप हीरो मैटीरियल नहीं हो। एक बॉडी बिल्डर किस्म का हीरो मैटीरियल उसका हीरो था। नवाज़ ने निर्देशक को समझाना चाहा, उसको भी तो कोई देखने नहीं आएगा। वो बहुत बॉडी बिल्डर है, ये मैं मानता हूं कि ठीक है। लेकिन उसको क्यों देखने जाएंगे लोग? इसलिए कि वो बहुत ख़ूबसूरत है? चलो, मान लो कि उसे 100 लोग देखने आए और मुझे 10 लोग देखने आए, तो वे 10 लोग जाकर 100 लोगों से बात करेंगे। अगले दिन 110 लोग आएंगे माउथ पब्लिसिटी से कि अच्छा ऐक्टर है, देख के आएंगे। तो मेरी यूएसपी ये है। और जिस तरह के मैटीरियल की तू बात कर रहा है, ऐसे लोगों की फ़िल्में हर हफ़्ते आती थी पहले। दूसरी लाइन के स्टार थे जो। कहाँ चलती थी उनकी फ़िल्में? आती थीं, ब्लैक मनी से पैसा लाते थे पता नहीं कहाँ से। बनाते रहते थे।

फ़िल्म आई और नवाज़ के कुछ मिनट हीरो के कसरती जिस्म पर भारी पड़े। लेकिन उस निर्देशक दोस्त और उस जैसे बहुत से लोगों को नहीं समझना था, वे नहीं समझे।

ये चेहरे नहीं चलते, ऐसा कहते हैं लोग। 2003-04 में इरफ़ान के साथ आसिफ़ कपाड़िया की जो शॉर्ट फिल्म बायपास मैंने की थी, ब्रिटिश फ़िल्म काउंसिल की फ़िल्म थी वो। फ़िल्म वहां के स्कूल कॉलेज में दिखाई गई तो लंदन के, यूरोप के लड़के-लड़कियां मुझे बहुत खूबसूरत बोल रहे थे। तो ये तो नज़रिया है। अब यहाँ मेरे जैसे बहुत लोग हैं, तो सबको यही लगता है कि ये तो गरीब है, ये बदसूरत है। यह परिभाषा बना ली है। वरना जिस तरह के यहां स्टार हैं और जिन्हें ख़ूबसूरत बोला जाता है, उस तरह के लोग पश्चिम में सड़कों पर झाड़ू भी लगाते हैं।

ख़ैर, आख़िरी साल था एनएसडी का। एक निर्देशक आया मॉस्को से। नाम था वेलेंटाइन तबलेगो। उसने पहली बार नवाज़ को उसके व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग किरदार दिया। बहिर्मुखी किरदार। उसमें नवाज़ की पर्सनैलिटी खुल गई।
कहीं एक सुर अटकता है ना ऐक्टर का..अटक रहा हूं, अटक रहा हूं...तो अचानक एक ऐसी प्रक्रिया से गुजरा..उस बन्दे ने स्टेनिस्ल्वस्की की जो थ्योरी है...मैथड ऐक्टिंग..उसके तहत करवाया।

उसके बाद नवाज़ की नज़र बड़ी हो गई, आत्मविश्वास बढ़ा। एनएसडी की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी 3-4 साल दिल्ली में रहा। स्कूल, कॉलेज में वर्कशॉप करते हुए, नुक्कड़ नाटक करते हुए। लेकिन दिल्ली का रंगमंच अपने अभिनेताओं को भूखा मारने के लिए भी ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो जाता है। नवाज़ ने सोचा कि बम्बई निकला जाए। उससे पहले दिल्ली के थियेटर में उनसे तीन-चार साल सीनियर कई ऐक्टर बम्बई चले गए थे, बैंडिट क्वीन में। मनोज वाजपेयी, सीमा बिस्वास और सौरभ शुक्ला। उन लोगों से पहले तो ऐसा करने वालों को देखने के लिए अतीत में बहुत दूर तक देखना पड़ता था। लेकिन उन लोगों के काम ने नवाज़ और उनके साथियों को हौसला दिया। टीवी में स्वाभिमान में उन सीनियर्स को देखते थे, जिनके साथ कभी नाटक किए थे। और देखते-देखते ही मुम्बई आ गए। लेकिन मुम्बई इतना आसान नहीं था, जितना लगने लगा था।

उस वक़्त फ़ॉर्मूला फ़िल्म बहुत स्ट्रॉन्ग थी। उसके अलावा दूसरा सिनेमा ही नहीं बनता था। आउट ऑफ द ब्लू, बैंडिट क्वीन बन गई थी एक। उसके बाद कोई इस तरह की फ़िल्म नहीं आई। तो सारे लोग टीवी वगैरा करने लगे थे। लेकिन हम लोग जब आए, तब टीवी भी बदल गया था। एकता कपूर आ गई थी। उन सीरियल्स में अगर भिखारी का भी रोल करना है तो छ: फुट का लम्बा, गोरा-चिट्टा लड़का चाहिए होगा। तो टीवी में भी हमें खड़ा नहीं होने देते थे। इधर फ़िल्म भी नहीं मिल रही थी।

सरफ़रोश का एक सीन दिल्ली में रहते हुए ही किया था। उसके आख़िरी हिस्से में बमुश्किल पचास सेकंड का एक सीन था, जिसमें आमिर ने नवाज़ को गोली मार देने का कहा था। बहुत बाद में पीपली लाइव के ऑडिशन देखकर आमिर ने ही नवाज़ को चुना। लेकिन उससे पहले नवाज़ को बहुत कुछ देखना था। ऐड में जूनियर आर्टिस्ट्स की तरह आना था और चेहरा छिपाने के लिए कलाकारों की भीड में बार-बार गुम होना था। मुन्नाभाई एमबीबीएस और एक चालीस की लास्ट लोकल में एक-एक सीन के रोल करने थे।

लेकिन 2003 में
ब्लैक फ़्राइडे भी हो गई थी। अनुराग कश्यप ने पहले कभी चलते-चलते ही बोला था कि अभी तो मैं कुछ नहीं हूं लेकिन जब किसी पोजीशन पर आ जाऊंगा तो तुझे ज़रूर कुछ अच्छा काम दूंगा।

ब्लैक फ़्राइडे में नवाज़ के तीन-चार सीन थे। उस फ़िल्म के बाद फ़िल्मी दुनिया के काफ़ी लोगों को पता चल गया था कि एक अलग ऐक्टर आ गया है। उसके पास भी दिखाने को एक अच्छा काम हो गया था। उसके बाद किसी डायरेक्टर को मैं अपना काम दिखाता था तो वो सीरियसली लेता था। लेकिन देता एक ही सीन था। 

उसके बाद नंदिता दास की
फ़िराक़ मिली, जिसकी एक कहानी में नवाज़ को मुख्य भूमिका मिली। 2008 आ गया था। सिनेमा बदल रहा था। ऐसे निर्देशक आ रहे थे जो सितारों के ख़ुमार में नहीं थे।

अनुराग कश्यप का इसमें बड़ा रोल था। वो आने वाले काफ़ी फ़िल्ममेकर्स का हौसला बढ़ाता था कि हम बनाएंगे, करो यार। मदद करता था। और भी बहुत निर्देशक थे, जो बहुत कॉंन्फिडेंट हो गए थे। इस बीच ये हो गया था कि किसी को ऐक्टर की जरूरत पड़ती थी तो कहते थे कि नवाज़ को बुला लो यार। उस चक्कर में मुझे फ़िल्में मिलने लगीं। ब्लैक फ्राइडे के कास्टिंग डायरेक्टर ने शिकागो में रहने वाले एक डायरेक्टर प्रशांत भार्गव को मुझे रेकमंड किया। उसने पतंग बनाई और उसमें मुझे मेन लीड लिया।

यहां हमारी कहानी का नवाज़ या हमारे नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी हीरो बन गए। इसके बाद यह कहानी बेहतर होती जाती है। संघर्ष कम होता जाता है और काम ज़्यादा। 2008 में शादी भी हो जाती है। अंजलि उन्हें 2003 से जानती हैं। उन्होंने उन्हें लड़ते और हारते भी देखा है और फिर जीतते भी। उन दोनों को साथ देखकर आप एक शुद्ध सकारात्मकता से भर जाते हैं। अंजलि भी अभिनेत्री बनने आई थीं लेकिन वे कहती हैं कि अब उन्हें कैमरे के पीछे रहना ही पसंद है। जब हमारे फ़ोटोग्राफ़र नवाज़ की तस्वीरें ले रहे हैं, तब भी अंजलि कैमरे के पीछे हैं। जब वे कहती हैं कि तस्वीर अच्छी आई है तो नवाज़ उनकी तरफ देखकर मुस्कुराते हैं। दोनों के बीच ऐसी मासूम, प्यारी और साझी मुस्कुराहट जिसे तमाम स्टाइलिश उपमाओं के बावज़ूद मैं शब्दों में लिखने में असमर्थ हूं।

इसी बीच मेरे लिए यह जानना ज़रूरी है कि ऐसे सरल नवाज़ अपने जटिल धूसर किरदारों की तैयारी कैसे करते हैं? कैसे एक आदमी इतने विश्वसनीय ढंग से कोई और आदमी बन जाता है, बना रहता है?

मैं जाने-अनजाने मैथड ऐक्टिंग को फ़ॉलो करता हूं। मैथड ऐक्टिंग का यहां तो बहुत मजाक उड़ाते हैं लोग। इसलिए उड़ाते हैं कि ये तो कर नहीं सकते। उसमें बहुत मेहनत लगती है। एक साल में पांच फिल्में नहीं कर सकते तब आप। उसके लिए बाकायदा आपको ऑब्ज़र्व करना पड़ेगा, पढ़ना पड़ेगा उस किरदार के बारे में, बिल्कुल अलग हट के दिखाना पड़ेगा उस किरदार को। एक रीजनिंग होती है, तर्क होता है। मैं क्यों कर रहा हूं, उसकी वजह क्या है। जब ये सवाल अपने आप से पूछते हैं आप, तब आपको ही जवाब देना पड़ता है। तब वह किरदार विश्वसनीय बनता है। तब यह सुपरस्टार्स की फ़र्ज़ी ऐक्टिंग की तरह नहीं होता। वैसे उनकी फ़ॉर्मूला फ़िल्मों में इसकी ज़रूरत भी नहीं है। लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि कैसे 35-40 फ़िल्में एक ही सुर, एक ही बॉडी लैंग्वेज पे करके चले जाते हैं ये लोग। दरअसल ये अपने को ही जी रहे होते हैं। वही लोगों को अच्छा लगता है और वही ये करते हैं।

प्रशिक्षण अभिनय में कैसे काम आता है?

जैसे अभी वासेपुर में मैंने फ़ैज़ल ख़ान का रोल किया है। जिस आदमी पर वह किरदार आधारित है, उसे ऑब्ज़र्व करने गया था मैं। मिला नहीं था। दूर से देखा था। लेकिन उसके आसपास के लोग, जो उसके हैंगओवर में ही रहते थे, उसके जैसा ही चालचलन था उनका, उनसे मिला। क्या होता है न कि कोई बॉस होता है न किसी शहर में, तो बहुत से लोग उसकी तरह बिहेव करने लगते हैं। जैसे स्टार को फ़ॉलो करते हैं। जैसे अमिताभ बच्चन से न मिलो लेकिन अमिताभ की मिमिक्री करने वाले किसी आदमी से मिल लो, तो आपको थोड़ा बहुत अंदाज तो हो ही जाएगा कि अमिताभ ऐसे चलता है, बात करता है। तो इस तरह उसे ऑब्ज़र्व करने के बाद कैसे ऐक्टिंग में दिखाना है, उसमें ट्रेनिंग काम आती है। दूसरा, आपको अन्दर से कोई चीज निकालनी है। क्योंकि आपकी पर्सनैलिटी में ही सब कुछ छुपा है। पूरा ब्रह्मांड होता है आपके अन्दर। जैसे आप अपने पिता या मां के सामने हैं, अपनी प्रेमिका के सामने वैसे नहीं हैं। अपने भाई के सामने जैसे हैं, अपने दोस्तों के सामने वैसे नहीं हैं। तो आप ही में देखो, कितने पहलू हैं। कितने व्यक्तित्व जीते हैं आप एक ही जीवन में। उस के अलावा भी कितने सारे व्यक्तित्व छिपे रहते हैं आपके अन्दर। ट्रेनिंग उस चीज को डिस्कवर करती है और बाहर लाने में मदद करती है।

किसी किरदार में गहरे उतरते हुए क्या ऐसा नहीं होता जाता कि बहुत सारे किरदार स्थायी तौर पर आपका हिस्सा बनते जाते हैं? हर कैरेक्टर का कुछ अंश छूटता जाता होगा आपके अन्दर?

हां, कुछ बचा रहता है लेकिन उसे हटाने की ही पूरी जद्दोजहद रहती है। वासेपुर का किरदार ऐसा था कि मैं काफ़ी टाइम तक उसी में रह गया। वह बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि मेरा व्यक्तित्व बिल्कुल भी उस किरदार जैसा नहीं है। तो कोशिश थी कि एक भी बिट में ऐसा ना लगे कि ये ओढ़ा हुआ या बनाया हुआ किरदार है, वह फ़ैज़ल ख़ान दबंग ही लगे, इसके लिए उसकी काफ़ी मानसिक तैयारी की थी मैंने। इसलिए उसे छोड़ते हुए भी काफ़ी प्रॉब्लम हुई थी। साढ़े तीन महीने तक शूट हुआ था। उसके बाद बीस दिन- एक महीना लगा था छोड़ने में। क्योंकि बहुत स्लो है वो। मेरा एनर्जी लेवल बहुत है जबकि, क्योंकि दुबला पतला हूं। उसमें ऐसा हो गया था कि यहां आने के बाद भी कोई आवाज़ देता था, तो धीरे से गरदन घुमाता था। ऐसा ही कुछ मिस लवली के किरदार के साथ हुआ था। तो उनको हटाने के लिए मैं अपने गांव में गया ताकि नॉर्मल हो जाऊं। लोकल ट्रेन में भी घूमा, ताकि धक्के मुक्के लगें, गालियां मिलें, ताकि मुझे पता चले कि हां, मैं नवाज़ हूं, वासेपुर का दबंग फ़ैज़ल खान नहीं हूं।

स्पर्श, बैंडिट क्वीन और सत्या नवाज़ को बहुत पसंद हैं। दुनिया भर का सिनेमा देखना बहुत पसंद है। किंग्स स्पीच, ब्लैक स्वान, लाइव्स ऑफ अदर्स, द सी इनसाइड, द सीक्रेट इन दियर आईज़, डिपार्चर, बैटल ऑफ अल्जीर्स, इनग्लोरियस बास्टर्ड्स, रेसलर्स।
वे कहते हैं कि विश्व सिनेमा ही उन्हें भ्रष्ट होने से बचाए हुए है। अभिनेताओं में इरफ़ान और मनोज वाजपेयी पसंद हैं। दिलीप कुमार, मोतीलाल और बलराज साहनी भी। मोतीलाल की बातें करते हुए उनकी आँखों में चमक आ जाती है।

यहां का ब्रांडो था वो आदमी। एक फ़िल्म में आप उन्हें देख लो और दूसरी में कोई मेकअप नहीं, लेकिन पहचान नहीं सकते आप। 

नवाज़ुद्दीन ने तय कर रखा है कि वे औरों की तरह, स्थापित होने के बाद कमर्शियल और रीयल सिनेमा के बीच कोई संतुलन बिठाने की कोशिश नहीं करेंगे। वही फ़िल्में करेंगे, जिनमें ख़ुद को खोज सकें, अपने भीतर उतर सकें। यही उनका लक्ष्य है। पिछले चार साल से वे लगातार शूटिंग ही कर रहे हैं। उनकी नौ फ़िल्में रिलीज की कतार में हैं। लेकिन उन्हें जल्दी से अपनी एनएसडी की एक दोस्त की ऐक्टिंग वर्कशॉप जॉइन करनी है, स्टूडेंट बनकर। जाँचना है कि क्या वे वही बन रहे हैं, जो बनना चाहते थे। उन्हें लग रहा है कि कहीं न कहीं उनके भीतर की प्रक्रिया में जंग लग रहा है और तमाम तारीफ़ों के बावज़ूद अन्दर कहीं एक सेचुरेशन आ गया है जिसे सिर्फ़ वही देख पाते हैं। उन्हें उस सेचुरेशन से लड़ना है और हमेशा स्टूडेंट बने रहना है। ऐसा नहीं होना कि हो गया मेरा खेल और अब मैं जो करूंगा, वैसा ही लोगों को पसंद आएगा।

जैसे ही वक़्त मिलता है, नवाज़ बुढ़ाना चला जाता है। वहाँ, जहाँ अब भी ज़मीन के झगड़ों और प्रेम-विवाहों पर हत्याएँ मामूली बात की तरह होती हैं। वहाँ, जहाँ उसके बचपन की तरह ही बिंदिया मांगे बंदूक और साधु और शैतान जैसी फ़िल्में ही लगती हैं। लेकिन फिर भी वही उसका प्यारा घर है, जहाँ शहर का बेतहाशा शोर नहीं है, पैसे और फ़िल्मों की चिल्लाहट नहीं है। वहाँ ईख के खेतों में घूमते हुए वह ख़ुद से बार-बार कहता है, हाँ, मैं वही नवाज़ हूं। और वही नवाज़ रहूंगा।   

हर बुढ़ाना में ऐसे नवाज़ हैं और हर मुम्बई में हमें उन्हें उनकी उदासियों से बचाना है। उनके हाथों को साठ हज़ार वोल्ट से, कलाकारों को
जूनियर कलाकार होने से और विद्रोहियों को टूटने से बचाना है। यह हमें अपने लिए ही करना है कि अब किसी नवाज़ की कहानी को कान्स के लाल कालीन पर चलते हुए हँसने में इतना लम्बा वक़्त ना लगे।

(यह लेख अपने संपादित रूप में तहलका हिन्दी के 15 जून, 2012 के अंक में छपा है।)