08 अगस्त, 2012

जो जो बच्चन बने, वे नायक थे, लेकिन सबसे ज़्यादा जले भी वे ही

वह शुरू से जानता है कि वह पानी को मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश कर रहा है और वह जितना कसके पकड़ता है, पानी उतना जल्दी छूटता जाता है और जीवन भी। जीवन, जिससे उसे मोहब्बत है, बिल्कुल शुरू से ही। बल्कि ज़िन्दगी से उस जितनी मोहब्बत पूरी फ़िल्म में किसी को नहीं। उसके अलावा किसी लड़ैया में इतना साहस नहीं कि अपने खूनी वर्तमान से पीछे जाकर देखे कि उसे तो नहीं करना था यह सब, और एक अलसुबह चौबारे पर खड़ा रोने लगे। कि कैसे वह शशि कपूर था अन्दर, या हो रहा था/होना चाहता था, और उसके मरते संजीव कुमार ने, या कोसती वहीदा रहमान ने, या पीठ में छुरा घोंपते प्राण ने उसे बच्चन बनाकर छोड़ा। जो जो बच्चन बने, वे नायक थे, लेकिन अन्दर से और बाहर से सबसे ज़्यादा जले भी वे ही।

वह लकड़बग्घों की ऐसी दुनिया में है, जहां उन गानों के लिए कोई जगह नहीं, जो उसकी मोहसिना उसे ज़िन्दा रखने के लिए गाती है, कभी उसे बांहों में भरकर, कभी फ़ोन पर। वहां नहीं मारना कायरता है और वह एक समय तक गांजे को चुनता है ताकि अपने बाहर की दुनिया से रिश्ता तोड़ ले। लेकिन बदला उसी को अपना आख़िरी हथियार चुनता है और जब बदला अन्दर हो, तब बाहर के बादल, बारिश और बच्चे नहीं दिखते। अपने बच्चे भी नहीं।

फ़ैज़ल ख़ान की हिंसा उसकी इच्छा से ज़्यादा उसका कवच है, भले ही वह ख़ुद इसे जानता है या नहीं। इसी कवच के कारण वह मारकर या मारते हुए अपने पिता जितने घृणित ढंग से नहीं हँस पाता। जश्न मनाने का उसके पास कोई कारण नहीं। उसके जैसे दो रूप हैं। लोहे के टेंडरों की बात कोई और करता है और मोहसिना से गाने कोई और सुनता है। वह पैसा कमाता है, शक्तिशाली बनता है लेकिन उसके बचपन से लेकर अंत तक उसके भीतर तक कुछ नहीं पहुंचता, सिनेमा और मोहसिना के सिवा। और दोनों के साथ ही वह रो रहा है।

इस हिस्से में फ़िल्म कहीं उभरकर पॉलिटिकल नहीं होती। अपने गानों में खूब होती है, शादी के गानों में भी। और इक्का-दुक्का जगह अपने डायलॉग्स में, जब यह शहाबुद्दीन की तरह चुनाव जीतकर खुला खेलने और गाय का दूध दुहकर मुख्यमंत्री बनने की बात करती है। लेकिन मुख्यत: यह व्यक्तिगत कहानी और कभी-कभी कविता कहने वाला शुद्ध सिनेमा है और आप और हम चाहें या न चाहें, इसे कोई क्रांति नहीं करनी। हां, हंसी के खोल में क्रूर परपेंडिकुलर देना है, जिसका मरना तसल्ली दे। अपने किरदारों के संजय दत्तीय और सलमान ख़ानी स्टाइलों और आपकी हंसी के बीच यह आपको मांस के लोथड़ों और खून की नालियों के रास्ते पर ले जाएगी और आपका हाल नहीं पूछेगी। आपको बुज़ुर्गाना सलाह नहीं देगी, सुधरने या बिगड़ने (आपके लिए इनके जो भी अर्थ हों) की सीख नहीं देगी, और भावुक नहीं करेगी, सन्न करेगी। आप जब बाहर निकलते हैं तो आप नहीं जानते कि आपको क्या करना चाहिए। बल्कि आप हैं कौन और क्या आपको भूख लगी है और क्या यह सही समय है कि आप कहीं चैन से बैठकर सब्जी-रोटी खा लें। क्या अब के बाद कोई भी सही समय होगा ऐसा? यह एक शानदार सिनेमाई दावत थी भीतर, अपने सारे खेलों और जादू के साथ, लेकिन आप इतने बेचैन क्यों हैं?

लेकिन बेचैनी की बात से पहले हमें उस सिनेमाई दावत की बात करनी चाहिए, जिसमें इतने लम्बे-लम्बे शॉट हैं (कभी कभी शायद उनके खूबसूरत भ्रम भी) कि कभी-कभी तो फिल्म का यथार्थ बाहर के यथार्थ से कुछ ग्राम ज्यादा विश्वसनीय होने लगता है। अनुराग और राजीव रवि इतनी खूबसूरती से अंधेरे और उजाले के बीच अपने लम्बे दृश्यों को तैरने देते हैं। ख़ासकर फ़ैज़ल के घर पर हमले के वक़्त उसका अपनी छत पर पहुंचना, घायल होना और फिर छतें फाँदते हुए उसका गिरना, घायल होना, ठहरना, फिर उठना - विजुअली यह पूरा सीक्वेंस दुनिया भर के सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ हिस्सों में से एक है। इसका ठहराव और एक समय के बाद पीछे शुरू हुआ संगीत इसे और कमाल बनाता है। बल्कि उससे पहले सुल्तान के अपने साथियों के साथ उसके घर पर हमला करने और तब फ़ैज़ल के 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' वाले कमरे से पूरे परिवार को सुरक्षित जगह तक ले जाने वाले हिस्से जिस तरह शूट किए गए हैं, वे इस फ़िल्म को अलग कतार में ले जाते हैं। हमारे सिनेमा में, और खासकर इस जॉनर और इस कहानी के सिनेमा में और वह भी इतने सारे किरदारों के दृश्यों में, इतने कम कट्स के साथ अपनी बात कहना बतौर फ़िल्मकार, अनुराग को भी बहुत ऊपर ले जाता है। फ़ज़लू को मारने के सीन से लेकर आख़िर में स्लो मोशन में ऊपर फ़ैज़ल तक बन्दूकें पहुंचा रहे टैन्जेंट और डेफ़िनेट तक बहुत सारे लाजवाब सीन हैं। लम्बे चेज़ सीक्वेंस हैं, जो बेचैन तो हैं ही, उससे ज़्यादा मज़ेदार हैं। ख़ासकर शमशाद का डेफ़िनेट का पीछा करने का सीक्वेंस बहुत अच्छा है। इस पूरे सीक्वेंस में राजकुमार यादव ने कमाल ऐक्टिंग की है।      

'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की एक और उपलब्धि यह है कि यह हमें अपने किरदारों की साधारण हिन्दुस्तानी ज़िन्दगियों में, बिना उनकी सादगी और ज़बान खोए, हंसने-मुस्कुराने की खूब सारी जगहें देती है। और ऐसा करने के लिए इसे बाहर से कुछ लाने या कुछ नया 'क्रियेट' करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि यह वह सब पकड़ती है, जो हर वासेपुर के हर मोड़ पर हम सब देखते आए हैं। वे कभी विडम्बनाएं हैं, कभी भोलापन या बेवकूफ़ी और कभी-कभी हमारे बीच की बेहद आम बात कि फ़िल्मी कलाकारों के ज़िक्र में एक बुज़ुर्ग कहते हैं कि वो नरगिस और सुनील दत्त का बेटा है ना। चार आदमियों के बीच बैठे एक आदमी को फ़ैज़ल ख़ान ने मार दिया है और फ़िल्म बाकी चारों के बाद के रिएक्शन पर ठहरती है, जब भौचक्के वे फिर से सिगरेट पीने और चने खाने लगे हैं। या यह कि मातम पर यशपाल शर्मा जिस बैंड पर चढ़कर 'तेड़ी मेहड़बानियां' या 'याद तेड़ी आएगी' गा रहे हैं, उसका नाम 'आशा बैंड' है। या यह कि एक-दूसरे की जान के प्यासे फ़िल्म के किरदार जिन गलियों से भाग रहे हैं, उनमें 'मैंने प्यार किया' या 'दिल तो पागल है' के पोस्टर लगे हैं। कहीं पीछे कैलेंडर है, जो पाप न करने की सीख दे रहा है। सुल्तान की हत्या करने निकले तीन लोग उसे घेरने के दौरान आपस में फ़ोन पर यह बात कर रहे हैं कि हैल्मेट लगाकर कितनी गर्मी लगती है और कटहल से क्या क्या बनाया जा सकता है। या चप्पलों के जो दृश्य हैं, कि दुकान लूटने घुसने लड़के बाहर चप्पल उतारकर घुसते हैं। फ़ैज़ल को उसके बाप के मरने की ख़बर मिली है और वह चला जाता है और फिर चप्पल पहनने लौटता है। या एक सीन में पीछे ऋचा समझा रही हैं कि वॉशिंग मशीन में रंगीन और सफेद कपड़े अलग-अलग धोने हैं।

यह ऐसी फ़िल्म है, जिसके इतने सारे ऐक्टर या लगभग सभी ऐक्टर अपनी ऊंचाइयां छूते हैं। तिग्मांशु धूलिया दूसरे हिस्से में पहले से भी आगे जाते हैं, ऋचा चड्ढ़ा भी। नवाज़ुद्दीन, जिन्होंने बेहद मुश्किल किरदार और पहले हिस्से से दूसरे में उसका बदलाव जिया है, जिसका बाहर का कवच लोहा है और अन्दर कहीं मोम। राजकुमार यादव, जिनका किरदार छोटा है, लेकिन प्रतिभा नहीं। ज़ीशान क़ादरी, पंकज त्रिपाठी, विनीत कुमार और बहुत सारे वे लोग, जिनके नाम यहां नहीं लिए जा सके। और क्या यह दोहराने की ज़रूरत है कि स्नेहा खानवलकर का संगीत (वरुण ग्रोवर और पीयूष मिश्रा के गीत) और जी.वी. प्रकाश कुमार का बैकग्राउंड स्कोर फ़िल्म को कहां ले जाता है?

लेकिन यह बेचैन क्यों करती है? क्या उस बच्चे के लिए, जिसके लिए उसके अब्बू बस एक हलो छोड़कर गए हैं और बदले और मौत की विरासत, जिसे जो भूल सकेगा, वही बचेगा? या फ़िल्मों की दीवानी उसकी मां के लिए, जो आख़िर अपने हीरो की मौत लेकर फ़िल्मों के इस शहर आई है? या हमारे लिए, जिनके पास यह कोई रास्ता नहीं छोड़ती? न बदला, न गांजा। न बच्चन, न शशि कपूर। फ़िल्म के दौरान चलती हंसी के बाद आख़िर एक सन्नाटा। ऐसा डर, जो आख़िर निडर बनाता है और संत भी। या बस बेहतर इंसान, जिसे फिर से याद आया है कि रोटी चाँद से बड़ी है।