05 जून, 2010

राजनीति Politically correct नहीं है


राजनीति मनोरंजक है (आखिरी आधे घंटे को छोड़कर) लेकिन Politically उतनी ही ठीक है, जितनी कैटरीना कैफ की हिन्दी। इसके सामाजिक सरोकार उतने ही आधुनिक हैं, जितना प्रचार के लिए राहुल गांधी की नकल करते हुए लोकल ट्रेन में घूमने वाले रणबीर के रहे होंगे। यह महाभारत का (या बकौल प्रकाश झा, उसके किरदारों का) आधुनिक संस्करण है लेकिन हिम्मती नहीं।

मगर शुरू से ऐसा नहीं होता। यह साल की सबसे मजबूत फिल्मों की तरह शुरू होती है, अपने बहुत सारे किरदारों, बहुत सारी पार्टियों और एक परिवार की कहानी के साथ। तब यह कसी हुई है और महाभारत से मिलते जुलते नए किरदारों को पहचान कर आप खुश और चकित भी होते हैं। फिर धोखे और हत्याएं होनी शुरू होती हैं और तब भी यह सब thrilling है और बाँधे रखता है। बीच में कैटरीना जरूर आती हैं और अच्छी acting करने की पूरी कोशिश करती हैं लेकिन उन्हें नाकाम होते देखना बहुत कष्टदायक है और आपको उनपर इतना तरस आता है कि आप उनका चेहरा देखने से बचते हैं (वही चेहरा, जिसके लिए आपने कई सौ रुपए कई बार खर्च किए होंगे- उनकी बेवकूफ फिल्मों के लिए, जिन्हें वे गर्व से करती हैं)। बाकी सब तो कमाल के एक्टर हैं ही, लेकिन अर्जुन रामपाल की एक्टिंग surprising package है। फिर मासूम से रणबीर आते हैं और उतने मासूम नहीं रहते। यहीं से फिल्म अपनी दिशा पकड़ना शुरू करती है और साथ ही 'सही' होने से बचते रहना भी।
नाटकीय घटनाएं तो हैं और वे प्रकाश झा की पिछली फिल्मों में भी रही हैं। मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि प्रकाश झा की फिल्में सामाजिक-राजनैतिक ताने-बाने के बीच वही एंग्री यंग मैन वाली मसाला फिल्में रही हैं और चूंकि वे हमेशा पिछड़े हुए बिहार की कहानी होती हैं (इस बार मध्यप्रदेश में भी बिहार की ही), इसलिए लोग उन्हें सिर्फ सामाजिक या 'सार्थक' फिल्में समझने की भूल कर बैठते हैं। उनमें आक्रोश होता है और स्टाइलिश हिंसा, इसीलिए उन्हें दर्शक भी मिलते हैं।
फिल्म का पहला आधा हिस्सा महाभारत के पांडवों और श्रीकृष्ण को भी नकारात्मक सा दिखाता है और चूंकि घटनाएं कहीं न कहीं महाभारत से मिलती हैं इसलिए आपको अच्छा लगता है कि यह एक पुरानी गलत व्याख्यायित की गई कहानी का आधुनिक और स्वतंत्र वर्जन होगा। मतलब यह कि आप उम्मीद करेंगे कि द्रोपदी को बलिदान नहीं देने पड़ेंगे और अर्जुन को धर्म का रक्षक नहीं बताया जाएगा। मगर आखिरी आधे-एक घंटे में वे वही करते हैं, जो 'महाभारत' हमारे समाज के साथ करती आई है। द्रोपदी के साथ कुछ भी करो, आप उसे इस्तेमाल की चीज बना लो और बेच-खरीद लो लेकिन तीन-चार दिन में वह सब भूल जाएगी (पहले यह रोना रोकर कि हम औरतों को समझौते करने ही पड़ते हैं) और आपके किसी भी नायक से बेतहाशा प्यार करने लगेगी। क्योंकि आप इस अपराधबोध के साथ नहीं जी सकते कि आपने उसकी जिंदगी बर्बाद कर दी है इसलिए आखिरी हिस्से में वह आपको माफ कर चुकी होगी और यह भी अहसास करवाएगी कि हां, हीरो जी, आपने जो भी किया, वह आपकी मजबूरी थी और हीरो जी आपका जीवन तबाह करके चल देंगे और सॉरी बोलेंगे, आँखों में नकली से आँसू भर लाएँगे। इसीलिए यह बहुत सी मुंबईया फिल्मों की तरह घोर पुरुष-शासित फिल्म है और इसमें स्त्रियाँ passive ही हैं। वे आपके खेलने के लिए बनी हैं और खुश या बेवकूफ या दोनों हैं।
अजय देवगन का किरदार, जो कर्ण का है, सशक्त है लेकिन निर्देशक महोदय के चक्कर में उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। कितना अच्छा होता कि यह 'महाभारत' का कुछ वैसा ही रीमेक बन पाता जैसा 'देव डी' 'देवदास' का थी। कुछ लोग आपके खोखले और नकली आदर्शों से विद्रोह करते और नई दुनिया बना डालते। लेकिन यही 'राजनीति' की सबसे बड़ी कमजोरी है। उसमें धारा के विरुद्ध चलने की हिम्मत नहीं है। उसके लेखक-निर्देशक नहीं समझ पाते कि कैसे खत्म करें तो वे पुरानी हिन्दी फिल्मों को ही याद करते हैं, जिनमें हीरो आखिर में हीरो ही बना रहेगा और खबरदार, जो आप उसके बारे में कुछ बुरा सोचते हुए थियेटर से निकले। इसके लिए आखिर में मधुर सा संगीत बजेगा और हीरो अपने पक्ष में सहानुभूति जुटाने के लिए चार लाइनें बोलकर चलता बनेगा और हीरोइन को गर्भवती होने की खुशखबरी सुनानी होगी।
आप बस ये मत कहिए कि आपने कुछ अलग या नया बनाया है या आप हमारी और समाज की फिक्र करते हैं। हम इसे एक अच्छी एक्शन थ्रिलर तो मानने को तैयार हैं लेकिन सच्ची और बोल्ड फिल्म नहीं। यह बच्चों के लिए नहीं है, इसलिए नहीं कि इसमें अश्लीलता या क्रूरता है, बल्कि इसलिए कि यह अपनी बुराइयों को नैतिक शिक्षा की किताब में सिखाती है। यह साल की सबसे कमजोर फिल्मों की तरह खत्म होती है और आपसे उम्मीद करती है कि आप उसके खलनायक से सहानुभूति से पेश आएं और उनके आगे हाथ जोड़ें, जो अर्जुन है या स्वयं श्रीकृष्ण।