आप बाहर निकलते हैं और रो लेना चाहते हैं. क्या यह पूरी फिल्म के दौरान बार-बार जोर-जोर से हंसने का पछतावा है? शायद हो, शायद कुछ और हो. शायद अनुषा रिजवी इस तरह से हम पर हंस रही हों कि कैसे बेशर्मी से गरीबी और मृत्यु के दृश्यों में हम मुंह फाड़कर हंस पाते हैं. हां, वे इसे इसी तरह बनाना चाहती थी और पॉपकोर्न के थैलों के बीच किसी और तरह इसे बनाना शायद मुमकिन भी नहीं था. हमने हिन्दी फिल्मों को बस इस एक कोने में ले जाकर छोड़ दिया है. हम कोई गंभीर बात नहीं सुनेंगे. सुनाओगे तो चिल्लाकर उसका विरोध करेंगे या इगनोर कर देंगे. हम महात्मा गांधी को सिरे से खारिज करते हैं, जब तक वह ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ न हो. हम गाँवों की कहानियों पर थूकते हैं, जब तक वह ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ न हो.
हम नहीं जानते कि विदर्भ कहां है और कौन बेवकूफ किसान हैं, जो अपनी जान दे रहे हैं और हम जानना भी नहीं चाहते. ऐसे में ‘पीपली लाइव’ उस आखिरी हथियार ‘हंसी’ के साथ आती है और हमें हमारे समय की सबसे मार्मिक कहानियां ठहाकों के बीच सुनाती है. यही सबसे त्रासद है.अनुषा रिजवी और उनके सह-निर्देशक पति महमूद फारुकी दास्तानगोई की परंपरा से आते हैं और इसीलिए उनका हाथ आपकी नब्ज पर है. वे सबसे हताश कर देने वाली बातों पर रसीले चुटकुले गढ़ सकते हैं और आप ध्यान दीजिए, पसीने से भीगा एक मजदूर जब हर रोज वही गड्ढ़ा खोद रहा है, तब आप अकेले हैं जो हंस रहे हैं. फिल्म तो उसके साथ खड़ी होकर उसकी तकलीफ में रो रही है. यही कला है. या जादू.
ऐसा ही जादू रघुवीर यादव में है और उनसे ज्यादा नवाजुद्दीन में, जिनके छोटे से चरित्र के पास फिल्म की सबसे ज्यादा दुविधाएं हैं. एक स्थानीय अखबार का पत्रकार राकेश ही फिल्म के दो हिन्दुस्तानों के बीच की कड़ी है. वही है जो गढ्ढ़ा खोदने वाले होरी महतो और अंग्रेजी समाचार चैनल की एंकर नंदिता मलिक को करीब से देखता है और ऐसा देखने के बाद कोई संवेदनशील आदमी चैन से कैसे रह सकता है? वह बेचैन होता है, लेकिन बेचारा है मगर फिर भी घटनाएं उसी से होकर बदलती हैं. नत्था, जो हर जगह है, मरता हुआ या जीते हुए मरने की कामना करता हुआ, धूल से पटे चेहरे के साथ जिसे आप दैवीय विनम्रता से गुड़गांव की भव्य इमारतें रचते हुए देखते हैं, जिसके खेत उसी बैंक ने कर्ज के बदले हथिया लिए हैं, जो टीवी पर रोज यह विज्ञापन दिखाता है कि वह हमेशा आपके साथ खड़ा रहेगा या सर उठा के जियो. कैसे जियो भाई? क्या उसके पास सर झुका कर या कीचड़ में धंसाकर भी जीते रहने का विकल्प छोड़ा गया है? यह उसी नत्था की तलाश है, जिसकी खबर टीवी पर आने पर आप शिल्पा शेट्टी या सानिया मिर्जा की खोज में चैनल बदल देते हैं. लेकिन पा लेने के बावजूद यह उसी नत्था को हमेशा के लिए खो देने की भी कहानी है क्योंकि आप उसे दिन में हजार बार देखते हैं और एक बार भी नहीं देखते. कोई फिल्म हमें कितना बदलेगी?