दबंग कितनी देखी जा रही है, यह बताने की जरूरत नहीं है. एक वर्ग है जो ऐसी फिल्मों से सिर्फ इसीलिए खुश है क्योंकि छोटे शहरों के सिनेमाघरों में इनसे फिर रौनक लौटती है. कुछ उत्साही समीक्षकों के लिए ‘वांटेड’, ‘गजनी’ और ‘दबंग’ भदेस हिन्दुस्तानी हीरो की वापसी की फिल्में हैं जो हर वाक्य में अंग्रेजी के शब्द नहीं झाड़ता और जिसकी फाइटिंग में मर्दों वाली बात है. वही पुराना फिल्मी हीरो जिससे पूरे हिन्दुस्तान को अपनापन लगता है.
यह आसान सी बात खासी हैरत की भी है. लोग उससे अपने आपको ज्यादा रिलेट करते हैं जिसकी हड्डियां शायद फौलाद की बनी हैं और जिसे देखते हुए बचपन में कॉमिक्सों में पढ़े डोगा और नागराज के कारनामे ज्यादा याद आते हैं.
हां, दबंग का चुलबुल पांडेय उन्हीं कॉमिक्सों के नायकों की तरह अपने गांव कस्बे के भले के लिए कई हजार लोगों को अकेले मार सकता है. उसके पास बड़ी पुलिस फोर्स है जो उसके साथ युद्धभूमि में जाती भी है, लेकिन उसे उसकी जरूरत नहीं. वह पहले बारी बारी से खलनायक के पचास-सौ साथियों को मारेगा और फिर खलनायक को अकेले. वह भारतीय मसाला फिल्मों का महानायक है, जिसे एक दौर में बॉलीवुड के नब्बे फीसदी नायकों ने जिया है. लेकिन वह सुपरहिट अचानक होने लगा है. इसकी वजह उसका गायब हो जाना और फिर यही वापसी ही है. दबंग एक जॉनर है. उसे सिर्फ एक्शन या ड्रामा फिल्म नहीं कहा जा सकता. वह मसाला जॉनर है, जिसमें एक्शन के चार लम्बे सीक्वेंस हैं जिनके परिणाम आपको शुरु से पता होते हैं, उसमें ओवरएक्टिंग करती एक मां है (समझ नहीं आता कि डिम्पल कपाड़िया वैसी एक्टिंग जानबूझकर हंसाने के लिए करती हैं या ऐसा ही उनसे हो पाया है), दो सौतेले भाई हैं, एक को ज्यादा चाहने वाला पिता है, एक लड़की है जिसका किरदार इतना पैसिव है कि उसे प्यार से गोद में उठाकर घर लाया जाए या जानवर की तरह हांककर, वह दोनों ही स्थितियों में हीरो से बराबर प्यार करेगी, असल में उसका जन्म ही इसीलिए हुआ है. आखिर में हैप्पी एंडिंग भी है, जिसमें हीरो का परिवार सकुशल है और सब लड़कियां अपने अपने मालिकों के पास हैं. वे सबकी सब अपने पतियों के लिए मुन्नी हैं, जो बदनाम नहीं हुई हैं. जो मुन्नी बदनाम हुई है, वह हिन्दी फिल्मों की महान मुजरा परंपरा के उत्सव की तरह आती है और दुनियादारी को गोली मारते हुए आनंदित करती है.
सलमान खान रजनीकांत हो गए हैं और दबंग उस जॉनर की फिल्म है, जिससे हिन्दी सिनेमा इतना दूर चला आया है कि ये फिल्में अब उस याद को संग्रहालय में देखने की तरह आती हैं. उसे आदर देती और हंसती हुई. गंभीर और अर्थवान सिनेमा को ये फिल्में डरा सकती हैं लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि यह किसी विलुप्त हो चुके विषय की वापसी नहीं है. यह दरअसल श्रद्धांजलि है. और मरने के बाद तो दुश्मन को भी बुरा नहीं बताना चाहिए.