03 मई, 2011

थोड़ा नीम, जिससे शहद बनेगा


ओनीर जितने फ़िक्रमंद फ़िल्मकार कम ही होते हैं. अपनी पहली फिल्म माई ब्रदर निखिल में उन्होंने एक ऐसी कहानी सुनाई थी जिसे कहने सुनने वाले बहुत कम लोग हैं. उसके बाद वे बस एक पल और सॉरी भाई से होते हुए फिर वहीं लौट आए हैं. वे कहानियाँ कहते हुए, जिन्हें कहा जाना बहुत ज़रूरी है लेकिन कोई कह ही नहीं रहा. और यह लौट आना कोई व्यावसायिक लौट आना नहीं है. ओनीर आई एम की कहानियाँ ऐसे स्नेह से सुनाते हैं जैसे यही उनका असली घर हो.

लेकिन दुर्भाग्य, कि इतना काफ़ी नहीं होता. ओनीर हमारे समाज के परेशान अल्पसंख्यक तबके के लिए चिंतित ज़रूर हैं लेकिन एक सम्पूर्ण फ़िल्म बनाने के लिए अच्छा कहानीकार होना भी ज़रूरी है, जो वे नहीं हो पाते. यही वजह है कि कई बार वे किसी मुद्दे की बात करते हुए डॉक्यूमेंट्री जितने नीरस भी हो जाते हैं. खासकर आई एम मेघा में कश्मीरी पंडितों की बात करते हुए. ओनीर कश्मीर से विस्थापित हुए परिवारों और वहाँ रहकर फौज का आतंक झेल रहे परिवारों की बात तो करते हैं, लेकिन किसी भावहीन रिपोर्ट की तरह. वे बार-बार उपदेशात्मक होते हैं. खासकर उनके डायलॉग इतने सपाट हैं कि आप उस दर्द से जुड़ ही नहीं पाते. सबसे हैरत की बात है कि वे कश्मीर को खूबसूरत भी नहीं दिखा पाते.
लेकिन बाकी तीनों कहानियां बेहतर हैं. आई एम आफिया बीच में थोड़ी खिंचती है लेकिन उसे नंदिता दास खास बनाती हैं. फिल्म के पास बहुत सारे एक्टर हैं और लगभग सभी उसकी पूंजी हैं. आखिरी दो कहानियां मुझे ज्यादा पसंद आईं. आई एम अभिमन्यु का प्रस्तुतिकरण बहुत खूबसूरत है. वह एक जवान लड़के का अपना बुरा बचपन याद करना है, जिसमें ओनीर सफेद कपड़ों वाली एक बच्ची का सपना भरते हैं, जो कहानी में कहीं नहीं है और जिसकी मां अचानक गायब हो जाती है. ऐसे सपने ही सिनेमा को सिर्फ कहानी कहने का माध्यम नहीं, सिनेमा बनाते हैं.
लेकिन आखिरी कहानी आई एम उमर ही वह कहानी है जो इस फिल्म को जरूर देखे जाने लायक बनाती है. दो समलैंगिक पुरुषों की यह कहानी सबसे ज्यादा दिल से कही गई कहानी है. इसीलिए उसके रोमांटिक और क्रूर, दोनों दृश्य आपके अन्दर बैठ जाते हैं. वहां डायलॉग्स वाली वह कमी भी अचानक गायब हो जाती है, जो बाकी कहानियों को दीमक की तरह खा रही थी. यहां फिल्म अपने पूरे शरीर और इस तरह हमारे पूरे आधुनिक समाज के शरीर के सारे कपड़े उतार देती है और आपको एक आईना देती है, जिसमें आपको अपनी बगल में बैठी एक औरत का समलैंगिक पुरुषों के चुम्बन के सीन पर बेशर्मी से हंसना भी सुनना है. आप चाहते हैं कि उस औरत को और भारतीय संस्कृति के पहरुए उन बाबाओं को उसी क्षण मार डालें, जो कहते हैं कि समलैंगिकता मानसिक बीमारी है. उस मारने से पहले उन सबको यह फिल्म जबरदस्ती दिखाई जानी चाहिए. जो भी हो, यह एक जरूरी फिल्म है जो हमारी दुनिया को किसी न किसी तरह बेहतर बनाएगी.

एक और बात- राहुल और अर्जुन का किस हिन्दी सिनेमा के सबसे रोमांटिक दृश्यों में से एक है। आप बस अपने टैबू भूल जाइए।