‘शोर इन द सिटी’ बॉलीवुड की कमबैक फ़िल्म है। बस इस कथन में से थोड़ी सी अतिशयोक्ति कम कर दें तो जो बचता है, बिल्कुल वही। मुम्बई की भीड़ में भी यह किसी बच्चे की पहली साँस जितनी ताज़ी है। यह शोर में सुकून तलाशती है और पाती भी है। यह अपने शहर से रूठती है और मान भी जाती है। उसे कोसती भी है और दुआएँ भी देती है। शहर चुप मुस्कुराता रहता है और किसी सुहानी शाम में उसे जी भर के चूमता है।
मुझे याद नहीं आता कि पिछले कुछ महीनों में किसी फ़िल्म ने हॉल से इतना ख़ुश होकर लौटने की वज़ह दी हो। वह भी तब, जब इसमें तुषार कपूर हैं जो मेहनत तो बहुत करते दिखते हैं लेकिन फिर भी अपनी डायलॉग डिलीवरी नहीं सुधार पाते। मगर उनकी भरपाई करने को राज-कृष्णा के पास एक से एक कमाल एक्टर हैं। पितोबाश तो हैं ही। वे 99 में भी एक छोटे से रोल में थे, लेकिन याद रहे। अच्छे एक्टर यही करते हैं। उन्हें हीरो वाले डायलॉग्स या क्लाइमैक्स में जीतने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आप उन्हें बाइक पर दो लोगों के पीछे बिठाइए और बस झाँकने की इजाज़त दीजिए। वे अपना जादू दिखा देंगे। यहाँ तो राज-कृष्णा ने अपने हर एक किरदार के लिए इतनी मेहनत की है, इतने प्यार से उन्हें गढ़ा है। फ़िल्म में कोई आदमी छोटे रोल में नहीं है। एकाध मिनट के लिए स्क्रीन पर आने वाले कैरेक्टर भी आपको याद रहते हैं।
ज़ाकिर हुसैन, जो एक एन आर आई से फ़िरौती माँगने वाले तीन अपराधियों में से एक हैं, बहुत ख़ूबसूरती से परदे को जीत लेते हैं। यही वे अभिनेता हैं, जिन्हें आप फ़िल्म देखते हुए ही गले से लगा लेना चाहते हैं। राधिका आप्टे हैं, जिनकी एक शुक्रवार को ही दो फ़िल्में आईं- आई एम और शोर। वे बिल्कुल घर की लड़की लगती हैं और बोलती हैं तो और भी ज़्यादा। राज-कृष्णा ने उनके और तुषार के लिए बहुत ख़ूबसूरत लव-मेकिंग सीन रचा है। इतना नैचुरल और उससे पहले उन दोनों के बीच की चाह का जो लम्बा सन्नाटा है, उसे रचना ज़्यादा मुश्किल था। और प्रीति देसाई क्या दिखती हैं! J
अमित मिस्त्री अपने ‘99’ के रोल के सीक्वल में ही लगते हैं। उन्हें बिल्कुल वैसा सा ही किरदार मिला है। भुवल राम कुबेर जैसा ही, जो डेयरिंग दिखना चाहता है, पर अन्दर से बिल्ली है।
राज-कृष्णा इस तरह जोड़े में काम करने के अलावा अपने काम से भी Coen Brothers की याद दिलाते हैं। बड़ी बात है कि वे विश्व सिनेमा के अच्छे गुणों को लेकर बॉलीवुड की ख़ासियत अच्छा संगीत भी अपने में जोड़ लेते हैं। ऐसा लगता है कि ‘99’ बस एक प्रयोग था और उसे आज़माने के बाद इस बार वे और भी खुलकर खेले हैं। अपनी तेज फ़िल्म में वे जब भी मोहब्बत के सीन्स के लिए ठहरते हैं तो ठहरते हुए दिखते नहीं। बड़ी बात ये है कि वे शहर को इस तरह नहीं दिखाते जैसे उस पर अहसान कर रहे हों या चिल्लाकर दुनिया को बताना चाहते हों कि देखो, हम इस से प्यार करते हैं। कि ये देखो, हम यहाँ भागते हुए बच्चों, ठेले वालों और भीड़ भरे बाज़ारों को शूट कर रहे हैं। हमारी पीठ थपथपाओ। कुल मिलाकर सबसे अच्छी बात है कि वे किरण राव नहीं बनते। वे एक शहर और उसके लोगों की कहानी कहते हैं और पूरी फ़िल्म में शहर उसी स्वाभाविकता से मौज़ूद है, जैसे वह असल ज़िन्दगी में होता है। उसमें शोर है, भागते हुए लोग हैं लेकिन वह जीवन में भी तो आपकी छाती पर चढ़कर नहीं बैठ जाता ना? वह बैकग्राउंड में है और इस तरह आउट ऑफ़ फ़ोकस कि फ़ोकस उसी पर हो।
राज-कृष्णा मुम्बई को दिखाने के लिए समन्दर किनारे बैठकर बारिश में नहीं भीगते। समन्दर किनारे उनके नायक-नायिका एक दूसरे को चूमते हैं तो लड़की कहती है कि उसके होठ सूखे हैं, इसलिए उसे दर्द हो रहा है। क्या सुनी है आपने पहले कभी ये बात किसी रूमानी माहौल में?
वे ट्रैफ़िक सिग्नल पर किताबें बेचते बच्चों को दिखाते हैं और उसके पीछे के नेटवर्क को, लेकिन मधुर भंडारकर नहीं बनते। कि आओ, हमें तुम पर रहम खाना है या हमें किसी को नंगा सच दिखाना है। राज-कृष्णा सब अच्छे कहानीकारों की तरह ही कोई दावा नहीं करते।
क्रिकेट और ख़बरों के लिए उनका प्यार इस फ़िल्म में भी दिखता है। जैसे ‘99’ का एक हिस्सा भी असल घटनाओं से प्रेरित था और उसका अंत भी अख़बारों की सुर्खियों से होता है, उसी तरह इस फ़िल्म की हर कहानी भी किसी न किसी ख़बर से प्रेरित है।
एक और अच्छी बात फ़िल्म का निष्कर्ष है। यह कहीं न कहीं उस किताब Alchemist जैसा दार्शनिक ही है, जो इस फ़िल्म में महत्वपूर्ण किरदार है। लेकिन फिर भी फ़िल्म कोई उपदेश देती दिखती नहीं। उसका अंत ऐसे होता है, जैसे यही होना था। जैसे यही होना चाहिए। यह apologetic नहीं होती, फिर भी चीजों को बदलने की बात बहुत ख़ूबसूरती से करती है। यह नैतिकता की बात नहीं करती। बल्कि यह तो कहती है कि मैं इस लायक हूँ ही नहीं। आपको कुछ सिखाती नहीं, बल्कि ख़ुद सीखती है। और फ़िल्म उस पूरी प्रक्रिया को दिखाती है, जिसमें उसके किरदार अपनी ज़िन्दगी जीते हुए उसे सबसे अच्छे ढंग से जीना सीख रहे हैं।
फ़िल्म एक लाइन से शुरु होती है-
The city is just an excuse to be good or bad. Especially bad!
इस तरह से यह बॉलीवुड की अब तक की उन अधिकांश अपराध-कहानियों की आलोचना भी है, जिनमें शहर की असमानता या क्रूरता नायक को खलनायक बनाती है। यह आलोचना भी एक अपराध-कथा होकर ही। और यह उम्मीद बिल्कुल मत कीजिएगा कि इस आलोचना के लिए इसके किरदार आख़िर में आपसे माफ़ी माँगेगे। वे आपका भेजा उड़ाएँगे और दिखाएँगे कि शहरों से मोहब्बत कैसे की जाती है।