14 जून, 2011

अपने ही रचे हुए शोर में भटकी शैतान


शैतान का एक छोटा सा हिस्सा है जिसमें कहानी फ्लैशबैक के अन्दर फ्लैशबैक में जाती है और दो-चार मिनट में ही आपको दिखाती है कि एक अमीर पिता की औलाद ने अपने पिता से पैसे ऐंठने के लिए क्या किया। कहानी को सुनाते हुए आपको बताते रहना कि हम कहानी सुना रहे हैं और उसकी संरचनात्मक बातें मज़ेदार ढंग से अपने दर्शकों के साथ बाँटना, यह बहुत कम कहानियों में होता है। हिन्दी फिल्मों में तो ऐसी कोई नई लहर शायद अब तक नहीं आई जिसमें पात्र अपनी कहानी के स्पेस से बाहर आकर अचानक कैमरे से बातें करने लगें या अपने दर्शकों को इतना समझदार मान लें कि कहानी कहते हुए उसके बनने की प्रक्रिया के बारे में बात करने की हिम्मत करें।

तो शैतान की सबसे बड़ी खासियत यही है कि उन चार-पाँच मिनट में यह उस नई लहर में डुबकी लगाती है। आप चौंकते हैं, बेहद ख़ुश होते हैं और सोचते हैं कि काश, पूरी फिल्म ही ऐसी होती तो क्या कमाल होता!

लेकिन ऐसा नहीं है। खासकर इंटरवल के बाद तो धीरे धीरे शैतान अपनी हरकतों के लिए शर्मिन्दा सी होने लगती है। उसकी सब शैतानियाँ अपना सामान समेटने लगती हैं और आखिर तक जाते जाते वह अपने उन सब दावों को धोखा दे जाती है जो हमें यह उम्मीद दिखा रहे थे कि यह भारत में अपनी तरह की पहली फिल्म होगी। हाँ, यह हो सकती थी और कुछ हिस्सों में है भी लेकिन हिस्से काफ़ी नहीं होते और कोई फिल्म क्या कह रही है, यह उसके निष्कर्ष से शायद ज़्यादा पता चलता है। कहीं न कहीं आखिर में शैतान अपने होने पर apologetic है। मैं यह नहीं चाहता कि यह ड्रग्स और दिग्भ्रमित युवाओं का समर्थन करती लेकिन आखिर में यह रूटीन की मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय ज़िन्दगी का समर्थन करती है। उस बहन का, जो अपनी छोटी बहन से ज़बरदस्ती मॉडलिंग करवाती है। उस पिता का, जो माँ खो चुकी अपनी बेटी को बारह साल तक भी उस दुख से बाहर निकालने में कामयाब नहीं हो पाया, जो समझाता कम, डाँटता ज़्यादा है और फिल्म कहना चाहती है कि वह बहुत फ़िक्रमन्द है। शैतान आखिर में सब सामाजिक चीजों के साथ खड़ी हो जाती है। यहाँ तक कि पुलिस के भी साथ। यह समाज के आगे व्यक्ति के हारने की कहानी है और ऐसा असल में होता भले ही हो, लेकिन यह चुभता इसलिए है कि फिल्म उसे आदर्श अंत की तरह पेश करती है। तब यह उन अनुभवों की कहानी बन जाती है जिन्हें लेखक-निर्देशक खुद ठीक से नहीं पहचानते। उनकी बारीकियों में न उतर पाने की अपनी कमी को वे शोर और सिनेमेटोग्राफी से छिपा लेना चाहते हैं।       

शैतान की तेज शुरुआत बहुत सारी नई चीजें भी लेकर आती है। खासकर अपनी सिनेमेटोग्राफी में। लगभग सब मुख्य किरदारों के पहले सीन उन्हें उल्टा देखने से शुरू होते हैं। एक अलग एंगल से दुनिया को देखने वाले युवाओं की कहानी के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता था? बिजॉय इस फिल्म को बहुत बड़े बजट की बनाना चाहते थे लेकिन आखिर उन्हें कम में बनानी पड़ी। मगर सिनेमेटोग्राफर मैडी कहीं भी उस कम बजट वाली बात को महसूस नहीं होने देते। सिनेमेटोग्राफी के बाद फिल्म का संगीत सबसे ज्यादा मोहता है। अनुराग से किसी भी तरह जुड़ी फिल्मों ने पिछले कुछ सालों में संगीत को जिस तरह फिल्मों में चार क्या दस-बारह चाँद लगाने के लिए इस्तेमाल किया है, वह काबिले तारीफ़ है। इसी जगह शैतान देव डी के सबसे करीब खड़ी होती है। चार पाँच लोग पुलिस से बचते हुए छतों पर भाग रहे हैं और पीछे खोया खोया चाँद बजता है। ऐसा ही असर फरीदा और साउंड ऑफ शैतान पैदा करते हैं।

अपने शोर और चकाचौंध के बीच शैतान दरअसल खालीपन की फ़िल्म है। उन युवाओं की कहानी जिन्हें अपने दुख दुनिया के सबसे बड़े दुख लग रहे हैं और जिनके लिए उन्हें अपने परिवार और आसपास की दुनिया ज़िम्मेदार लग रही है। हम सब भी किसी न किसी रूप में उस गुस्से को महसूस कर चुके हैं या कर रहे हैं। शैतान के युवा उस गुस्से को निकालने के लिए असल दुनिया से बाहर आकर कुछ दोस्तों की एक अलग दुनिया बनाते हैं और इस तरह उस कबूतर की तरह हो जाते हैं जो आँखें बन्द करने के बाद सोचता है कि बिल्ली उसे नहीं खाएगी।

इस आँखें बन्द करने के बाद की अपनी बन्द रंगीन दुनिया में वे हीरो हैं। अय्याशी उनका राष्ट्रगान है। लेकिन इस दुनिया में रहना हमेशा संभव नहीं है। शैतान बाहर की दुनिया से उनके फिर से मिलने और टकराने की बात करती है। उसका गुस्सा अनुराग की रिलीज न हो पाई फिल्म पाँच के युवाओं का गुस्सा ही है जिसकी ठीक ठीक वज़ह पाँच की तरह ही फिल्म की कहानी नहीं बताती और उसे बतानी भी नहीं चाहिए थी। क्योंकि आप अपने आसपास की शहरी दुनिया एक बार देखेंगे तो उसकी हज़ार वज़हें दिख जाएँगी।

शैतान उनकी बन्द दुनिया की कहानी सुनाते हुए पूरी ईमानदार है और साहसी भी लेकिन बाहर की दुनिया से टकराव शुरू होते ही वह बिखरने लगती है। आखिर तक जाते जाते तो कई जगह वह उन हिन्दी फिल्मों जैसी हो जाती है जिनमें माँ बाप हमेशा सही होते हैं और बच्चे भटके हुए होते हैं। यह सही है कि अपने गुस्से में फिल्म के मुख्य किरदार भटके थे लेकिन आप उनके गुस्से की वज़हें क्यों नहीं मिटाते और उन्हें मिटाए बिना ही हैप्पी एंडिंग भी दिखाना चाहते हैं।

इससे कहीं बेहतर जगह पाँच खत्म हुई थी। उसमें कुछ कमियाँ थीं लेकिन अपने मैसेज को लेकर वो कहीं भी कनफ्यूज नहीं थी। बेहतर दुनिया का सपना तो शायद सब डार्क फिल्में बनाने वाले लोग देखते हैं लेकिन उसे बनाने के लिए वे सतही ढंग से यथार्थ से नहीं भटक जाते।

इसीलिए शैतान पलायन की फिल्म है। पहले हाफ में यह अच्छा है क्योंकि उसके किरदार यथार्थ से पलायन कर रहे हैं और उन्हें यह पूरी सच्चाई से दिखाती है। दूसरे हाफ में फिल्म खुद ही यथार्थ से पलायन कर जाती है। यह ऐसा ही है कि अपने रचे हुए शोर में आप खुद ही बहरे हो जाएँ। थोड़ी देर तक लगातार परछाइयाँ देखते देखते आप यह भूल जाएँ कि ये असली लोग नहीं है। इसीलिए जिस पॉइंट पर शैतान पाँच से अलग रास्ता लेती है, उसी पर अपने आप को दगा देने लगती है।

शैतान का एक और मज़बूत पहलू उसके एक्टर हैं। कल्कि से लेकर राजीव खंडेलवाल और राजकुमार यादव तक। फिल्म जहाँ कमज़ोर पड़ती है, वहाँ अपने अभिनेताओं का सहारा लेकर, खासकर कल्कि और उनकी कहानी का सहारा लेकर इमोशनल करने की कोशिश करती है। लेकिन जानबूझकर ऐसा करना आपको फिल्म से दूर ही करता है। जब आप कहानी के किसी हिस्से को एक टूल की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं, तब आप अपने दर्शकों को बेवकूफ़ समझ रहे होते हैं।

मगर जो भी हो, अगर आप बाद में शैतान के बारे में सोचें तो आपको उसके विजुअल्स, उसका संगीत और उसकी गति (आखिरी आधे घंटे को छोड़कर) याद आएगी। शैतान शुद्ध सिनेमा होने की कोशिश है। एक पुलिसवाले का दूसरे पुलिसवाले का पीछा करने का लम्बा सीक्वेंस उसके सबसे खूबसूरत हिस्सों में से है। शैतान वैसी ही होना चाहती है। अपने वर्तमान को जीती हुई और कहानी कहने की टेंशन से बेफ़िक्र। इस ख़याल को इज़्ज़त देती हुई कि सिनेमा अपने आप में एक स्वतंत्र माध्यम है और इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वह कहानी का ग़ुलाम हो। मेनस्ट्रीम में बने रहने के लिए उसे कहानी सुनानी पड़ी है लेकिन अन्दर कहीं वह कहानी सुनाना नहीं चाहती। वह उससे आज़ाद होना चाहती है। लेकिन इसे भी वह साध नहीं पाती। बल्कि इस चक्कर में वह खोखली होती जाती है और चमत्कार करने के अपने बेवज़ह के ओवर कॉन्फिडेंस की वज़ह से साधारण।