तिग्मांशु के पास
माहौल बहुत सारे लोगों के सिनेमा से अलग है। ज़मीन, जंगल और हवेली, तीनों को वे
अच्छे से पहचानते हैं लेकिन इनके साथ कहानी कैसे कहनी है, यह शायद उतने अच्छे से
नहीं। उनके अपने प्रशंसक हैं जो उत्तर प्रदेश के अपराध और राजनीति के गठजोड़ की
कहानियों के लिए उन्हें उम्मीद भरी नज़रों से देखते हैं और कुछ दफ़ा मुझे भी लगा है
कि शायद उनके सिनेमा में वाकई ऐसा कुछ अद्भुत हो जो उन्हें मेरे पसंदीदा
निर्देशकों में से एक अनुराग कश्यप के पसंदीदा निर्देशकों में से एक बना देता है।
लेकिन वह जो भी ‘अद्भुत’ है, मैं उसे पकड़ नहीं पाया।
‘साहेब बीवी और
गैंगस्टर’ औसत से अच्छी तो है
लेकिन उससे ज़्यादा नहीं।
तिग्मांशु के पास
खुरदरापन तो है लेकिन वो उसे अपनी वज़हों तक कभी नहीं ले जाता। इसलिए वो अक्सर मुझे
लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा की शहरी-एनआरआई प्रेम कहानियों के बिल्कुल विलोम की तरह
लगता है। दोनों एक खास जगह की खास तरह की कहानियाँ कहते हैं जो उसी जगह और माहौल
के लोगों को ज़्यादा अच्छी लगती हैं। दोनों कहानियों और सिनेमा की आत्मा की बजाय
उसके जिस्म के मेकअप में ज़्यादा यक़ीन करते हैं। एक जगह महंगी कारें और
स्विट्जरलैंड वह मेकअप करते हैं और दूसरी जगह छोटे शहर, उनकी भाषा और धांय धांय
गोलियाँ और इस बार तो पुरानी हवेली और राजा भी। मेरे ख़याल से जैसे कोई फ़िल्म सिर्फ़
इसलिए अच्छी नहीं हो सकती कि वह स्पेन या स्विट्जरलैंड को अच्छे से दिखाती है,
वैसे ही सिर्फ़ इसलिए भी अच्छी नहीं हो सकती कि यूपी या पंजाब को अच्छे से दिखाती
है। कम से कम पहली बार के बाद तो नहीं। यह उसकी एक ख़ूबी ज़रूर हो सकती है लेकिन
उतनी ही बड़ी जितनी अच्छे खाने में अच्छी थाली होती है। यहां ये बात भी जोड़ी जाए कि
इस फ़िल्म की भाषा उस तरह से किसी ख़ास ज़मीन से नहीं जुड़ी, जिस तरह ‘ओमकारा’ जुड़ी है या दिबाकर की फ़िल्में दिल्ली की भाषा से जुड़ी
हैं। ‘साहेब, बीवी और गैंगस्टर’ के डायलॉग बहुत मज़ेदार हैं और फ़िल्म की बड़ी
ताकत हैं लेकिन इतने भी नहीं कि वे अकेले पूरी फ़िल्म का बोझ उठा लें।
जो ‘शागिर्द’ में बिल्कुल नहीं था, इस बार तिग्मांशु ने संगीत को
इस्तेमाल करने की अच्छी कोशिश की है और इंटरवल से तुरंत पहले जब ‘मैं इक भंवरा’ बहना शुरू होता है तो आप उसके साथ बहते हैं। फ़िल्म के
पास ‘जुगनी’ भी है और ‘अंखियां’ और ‘साहेब बड़ा हठीला’ भी और इनमें से किसी भी गाने के बारे में
उतनी बात नहीं हुई है, जितनी के वे हकदार हैं।
फ़िल्म ‘साहेब, बीवी और गुलाम’ का एडप्टेशन है। और इसमें कुछ बातें ख़ुश करने वाली
हैं। गुलाम अब बेचारा लगने वाला गुरुदत्त नहीं रहा जो नौकरी की तलाश में शहर आया
है और साहेब की हवेली की भव्यता को देखकर ही सहम जाता है। वह आपकी ‘क्लास’ में भले ही शामिल न हो पाया हो लेकिन बीते कुछ दशकों में उसने बन्दूक
चलाना सीखा है और उसकी नज़र आपके जूतों पर नहीं, पगड़ी पर है। अब भी उसे घुसते ही
बताया जाता है कि आपसे नज़रें न मिलाए और हो सकता है कि वह अब भी न मिलाए, लेकिन
उसके दिल में न आदर है और न डर। संजय चौहान और तिग्मांशु ने इस परिवर्तन को बहुत
अच्छे से पकड़कर रखा है।
लेकिन साहेब नहीं
बदले। बस वे अब चुनाव लड़ने लगे हैं। उन्हें अब भी ग़लती करने वाले का नाम ढ़ाई सौ
रुपए की गोली से रोशन करना ही सबसे ठीक विकल्प लगता है और उनकी रातें दूसरी औरत के
घर ही बीतती हैं। अलग ये है कि हमारे सिनेमा को व्यभिचार को अब इशारों में नहीं
दिखाना पड़ता। तिग्मांशु चाहें तो कितनी भी बार उस दूसरी औरत की पीठ और क्लीवेज
दिखा सकते हैं। पहली औरत की भी। तीसरी और चौथी औरत की भी। सेक्स को कैसे दिखाना है,
यह उनका अपना सौंदर्यबोध और मन तय करेगा और उस पर मैं कुछ भी कहूं तो लग सकता है
कि मैं सेंसर का एजेंट हूं। और वैसे भी त्वचा जितनी दिखती है, दर्शक उतने ही ख़ुश
होते हैं। और मुझे भी भला क्यों बुरा लगेगा, लेकिन आप इस ढंग से वक्ष दिखाते हुए उत्तेजित
तो कर सकते हैं लेकिन सिनेमा की वो खूबसूरती पैदा नहीं कर सकते, जो ‘नो स्मोकिंग’ के बिस्तर के एक सीन में दो हाथों का मिलना पैदा कर
देता है। शायद एक वज़ह यह भी हो कि तिग्मांशु के पास राजीव रवि नहीं हैं।
लेकिन जो भी हो,
तिग्मांशु डीटेल्स पर उतना ध्यान नहीं देते। वे छोटी चीजों को दिखाना पसंद नहीं
करते। उनकी फ़िल्म अपने दृश्यों की गहराई और घटनाओं की परतों पर नहीं, सीधे घटनाओं
पर ही टिकी है लेकिन वे क्लाइमैक्स में ऐसी ग़लतफ़हमियों का सहारा लेते हैं, जो टीवी
के धारावाहिकों में ज़्यादा दिखती हैं। लगभग वैसी ही ग़लतफ़हमियाँ और विश्वासघात,
जैसे विशाल भारद्वाज की अच्छी फ़िल्मों में होते हैं लेकिन यहाँ वे आपके गले नहीं
उतरते। सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि फ़िल्म इतनी जल्दी में रहती है कि आप चौंक तो
सकते हैं लेकिन उसके किरदारों के लिए ख़ुश या दुखी नहीं होंगे (लेकिन यह ख़ुश या
दुखी होना ज़रूरी भी है क्या? तेज तो ‘ये साली ज़िन्दगी’ भी है लेकिन यह उसकी खूबी लगती है)। वह भी तब, जब माही गिल को छोड़कर फ़िल्म के
लगभग सभी मुख्य किरदार पूरा समय अच्छी एक्टिंग करते हैं। माही गिल कई दृश्यों में
नहीं जानतीं कि उन्हें करना क्या है। ख़ासकर पागलपन के अपने दौरों में और भीतर तक
बसे उस दुख में, जिस पर मीना कुमारी मील का पत्थर लगा गई हैं। मेरी आशंका के उलट
रणदीप हुडा अपने रोल को निभा ले जाते हैं। गेंदासिंह बने विपिन शर्मा ख़ुश करते
हैं। फ़िल्म की एक और अच्छी बात यह है कि यह अपने सब किरदारों के साथ आपको वक़्त
गुज़ारने देती है।
फ़िल्म की बीवी के
बारे में मैं सबसे आख़िर में बात करना चाहता था। बीवी एक तरफ़ बहुत बदली भी है और
दूसरी तरफ़ बिल्कुल भी नहीं बदली। इस किरदार को भी तिग्मांशु और संजय ने ग़ुलाम या
गैंगस्टर की ही समझदारी से गढ़ा है। वह प्यार के लिए तरसती तो है लेकिन उस तरह टसुए
बहाती हुई ‘ना जाओ सैंया’ नहीं कहती बल्कि पागल होकर चिल्लाती है। उसे
गोली चलाना आता है और वह किसी खोखली शारीरिक नैतिकता और समर्पण के भ्रम में
ज़िन्दगी नहीं गुज़ार रही। तिग्मांशु के सिनेमा का एक आइकॉनिक दृश्य वह है, जिसमें
माही और रणदीप एक दूसरे को बेतहाशा चूम रहे हैं और दोनों के हाथों में पिस्टल हैं।
वहाँ फ़िल्म कविता को छूती है।
लेकिन अफ़सोस, ऐसा
एकाध बार ही होता है।