एक अकेली गर्भवती औरत, अनजान शहर में अपने पति को ढूंढ़ती और वह शहर भी शोर और भीड़ से भरा कोलकाता, जो उसका नाम भी अपनी मर्ज़ी से बदल देता है जैसा ये सब महानगर हम सबके साथ करते हैं, और जो उसे यक़ीन दिलाना चाहता है कि हारकर अपने घर ज़िन्दा लौट पाना भी इस हत्यारे समय में बहुत बड़ी बात है। और इस कहानी से आप सोच रहे होंगे कि अपने पति की इकलौती तस्वीर हाथ में लेकर कोलकाता की तंग गलियों में घूमती यह औरत बहुत आँसू बहाएगी, उन ‘यथार्थपरक’ फ़िल्मों की तरह, जो हमारे यहाँ फ़ेमिनिस्ट फ़िल्में बनाने का सबसे लोकप्रिय ढंग रहा है। वे फ़िल्में, जो दुनिया को आईना तो दिखाती हैं, लेकिन अपनी स्त्री को हिम्मत कभी नहीं देतीं। वे उसे डांस बार में नाचते, वेश्या बनते, कास्टिंग काउच में शरीर देकर हीरोइन बनते बार-बार दिखाते हैं क्योंकि उनमें शरीर दिखाने के बहुत मौके हैं और इस तरह ‘एंटरटेनमेंट वैल्यू’ भी, और इस तरह राष्ट्रीय पुरस्कार भी। ख़ैर छोड़िए, अब तो एक राष्ट्रीय पुरस्कार हमारी विद्या बालन के पास भी है और यह राष्ट्रीय पुरस्कारों की ज्यूरी के लिए निश्चित रूप से गर्व करने की बात है।
यह सच है कि ‘कहानी’ के पास बहुत अच्छी स्क्रिप्ट और उससे भी दो कदम आगे का प्रामाणिकता से भरा निर्देशन (और प्रोडक्शन डिजाइन) है, जिसमें आप शहर की धड़कनें सुन सकते हैं, उसे अंगडाइयां लेते देख सकते हैं, उसे डरते, उदास होते, भागते और रोते हुए। लेकिन यह भी सच है कि विद्या बालन के बिना फ़िल्म का उतना ज़िन्दा होना बहुत मुश्किल होता। वे जब इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक बड़े अफ़सर को आंखों में आंखें डालकर कहती हैं कि बेहतर होगा कि वह उसे न बताए कि उसे क्या करना चाहिए तो उनकी आंखों में ‘मेरे साथ बहुत बुरा हुआ है’ वाला गुस्सा नहीं है। वे उस तरह लड़ाई लड़ती हैं जैसे हमारी फ़िल्मों में अब तक अक्सर हीरो ही लड़ा करते हैं। वे पुरुष को अपना दुश्मन नहीं मानती लेकिन यह भी नहीं कि उसके प्यार और सहारे के बिना यह कहकर चलने से इनकार कर दें कि दुनिया बहुत जालिम है। कभी-कभी इम्तियाज अली की फ़िल्में अपनी स्त्रियों को इतनी आज़ादी देती हैं या शायद सिर्फ़ बेफ़िक्री, और बाद में वे भी अकेले में अपनी नायिकाओं को बेचैन होने देती हैं। भले ही वह प्रेम के कारण हो, लेकिन ‘जब वी मेट’ की गीत जब अकेली होकर बच्चों को पढ़ाने लगती है तब भी वह पूरा समय उदास ही है। बैकग्राउंड में ‘आओगे जब तुम साजना’ की कल्पनाएँ हर बार बजनी ही हैं। लेकिन कहानी में रवींद्रनाथ टैगोर का ‘एकला चलो रे’ बजता है और सिर्फ़ बैकग्राउंड में नहीं। और अच्छा यह है कि उस ‘एकला चलो रे’ में कहीं भी पुरुषों के लिए गालियाँ नहीं हैं, बल्कि दुनिया के लिए प्यार है।
फिर भी अपनी ऊपरी परत में ‘कहानी’ फ़ेमिनिस्ट फ़िल्म होने का दावा नहीं करती। यह एक रोचक रहस्य कथा है जो आपकी साँसों को अपनी मुट्ठियों के बीच दबाए रखती है और अपने कमाल के इंटरवल सीन के अलावा भी बार-बार आपको चौंकाती है। आप फ़िल्म के दौरान शंकित हो सकते हैं कि कहीं अंत में सब गड़बड़ा न जाए, लेकिन बेफ़िक्र रहिए, यह अपनी सबसे ख़ूबसूरत अदा अंत के लिए बचाकर रखती है।
फ़िल्म की कास्टिंग बहुत अच्छी है – वह आदमी, जो मारने से पहले नमस्कार बोलता है, आपके दिमाग में देर तक बैठा रह जाना है और प्यारे परमब्रता, जो इतने शरीफ़ हैं कि लगता है कि ग़लती से पुलिस में आ गए हैं। सिनेमेटोग्राफर सेतु और एडिटर नम्रता राव थ्रिलर के लिए ज़रूरी तनाव और डर बहुत अच्छे से रचते हैं। हां, फ़िल्म कुछ दृश्यों पर थोड़ा और ठहरती तो ज़्यादा मानवीय हो सकती थी।लेकिन यह कमी नहीं है और फ़िल्म के लेखक उसे लाख संभावनाओं के बावज़ूद कहीं भी सतही ढंग से भावुक और प्रत्याशित नहीं होने देते, यह बड़ी बात है।
विद्या बालन हमारे समय का सबसे बड़ा फ़िल्मी हीरो बनकर उभरती हैं। पुरुष उनके किरदार के लिए साथी भी है लेकिन कभी-कभी सिर्फ़ सारथी भी हो सकता है और अपने क्लाइमैक्स के आवेगमयी क्षणों पर हॉल में सीटियां बजवाने के लिए उन्हें न हमारे सितारे नायकों की तरह शर्ट उतारने की ज़रूरत पड़ती है और न हमारी नायिकाओं की तरह क्लीवेज दिखाने की। उनसे प्यार होता जाता है और दिल में इतना आदर उमड़ता है कि उसकी बात फिर कभी करेंगे।
यह सच है कि ‘कहानी’ के पास बहुत अच्छी स्क्रिप्ट और उससे भी दो कदम आगे का प्रामाणिकता से भरा निर्देशन (और प्रोडक्शन डिजाइन) है, जिसमें आप शहर की धड़कनें सुन सकते हैं, उसे अंगडाइयां लेते देख सकते हैं, उसे डरते, उदास होते, भागते और रोते हुए। लेकिन यह भी सच है कि विद्या बालन के बिना फ़िल्म का उतना ज़िन्दा होना बहुत मुश्किल होता। वे जब इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक बड़े अफ़सर को आंखों में आंखें डालकर कहती हैं कि बेहतर होगा कि वह उसे न बताए कि उसे क्या करना चाहिए तो उनकी आंखों में ‘मेरे साथ बहुत बुरा हुआ है’ वाला गुस्सा नहीं है। वे उस तरह लड़ाई लड़ती हैं जैसे हमारी फ़िल्मों में अब तक अक्सर हीरो ही लड़ा करते हैं। वे पुरुष को अपना दुश्मन नहीं मानती लेकिन यह भी नहीं कि उसके प्यार और सहारे के बिना यह कहकर चलने से इनकार कर दें कि दुनिया बहुत जालिम है। कभी-कभी इम्तियाज अली की फ़िल्में अपनी स्त्रियों को इतनी आज़ादी देती हैं या शायद सिर्फ़ बेफ़िक्री, और बाद में वे भी अकेले में अपनी नायिकाओं को बेचैन होने देती हैं। भले ही वह प्रेम के कारण हो, लेकिन ‘जब वी मेट’ की गीत जब अकेली होकर बच्चों को पढ़ाने लगती है तब भी वह पूरा समय उदास ही है। बैकग्राउंड में ‘आओगे जब तुम साजना’ की कल्पनाएँ हर बार बजनी ही हैं। लेकिन कहानी में रवींद्रनाथ टैगोर का ‘एकला चलो रे’ बजता है और सिर्फ़ बैकग्राउंड में नहीं। और अच्छा यह है कि उस ‘एकला चलो रे’ में कहीं भी पुरुषों के लिए गालियाँ नहीं हैं, बल्कि दुनिया के लिए प्यार है।
फिर भी अपनी ऊपरी परत में ‘कहानी’ फ़ेमिनिस्ट फ़िल्म होने का दावा नहीं करती। यह एक रोचक रहस्य कथा है जो आपकी साँसों को अपनी मुट्ठियों के बीच दबाए रखती है और अपने कमाल के इंटरवल सीन के अलावा भी बार-बार आपको चौंकाती है। आप फ़िल्म के दौरान शंकित हो सकते हैं कि कहीं अंत में सब गड़बड़ा न जाए, लेकिन बेफ़िक्र रहिए, यह अपनी सबसे ख़ूबसूरत अदा अंत के लिए बचाकर रखती है।
फ़िल्म की कास्टिंग बहुत अच्छी है – वह आदमी, जो मारने से पहले नमस्कार बोलता है, आपके दिमाग में देर तक बैठा रह जाना है और प्यारे परमब्रता, जो इतने शरीफ़ हैं कि लगता है कि ग़लती से पुलिस में आ गए हैं। सिनेमेटोग्राफर सेतु और एडिटर नम्रता राव थ्रिलर के लिए ज़रूरी तनाव और डर बहुत अच्छे से रचते हैं। हां, फ़िल्म कुछ दृश्यों पर थोड़ा और ठहरती तो ज़्यादा मानवीय हो सकती थी।लेकिन यह कमी नहीं है और फ़िल्म के लेखक उसे लाख संभावनाओं के बावज़ूद कहीं भी सतही ढंग से भावुक और प्रत्याशित नहीं होने देते, यह बड़ी बात है।
विद्या बालन हमारे समय का सबसे बड़ा फ़िल्मी हीरो बनकर उभरती हैं। पुरुष उनके किरदार के लिए साथी भी है लेकिन कभी-कभी सिर्फ़ सारथी भी हो सकता है और अपने क्लाइमैक्स के आवेगमयी क्षणों पर हॉल में सीटियां बजवाने के लिए उन्हें न हमारे सितारे नायकों की तरह शर्ट उतारने की ज़रूरत पड़ती है और न हमारी नायिकाओं की तरह क्लीवेज दिखाने की। उनसे प्यार होता जाता है और दिल में इतना आदर उमड़ता है कि उसकी बात फिर कभी करेंगे।