01 दिसंबर, 2010

ब्रेक के बाद वापस मत आइए


रेणुका कुंजरू और दानिश असलम को गलतफहमी थी कि इम्तियाज अली जैसी फिल्में लिखकर हिट हो जाना दुनिया का सबसे आसान काम है और नकल से चिढ़ने वाले लोगों के लिए खुशखबरी है कि वे बुरी तरह असफल हुए हैं. यह फिल्म बॉलीवुड या किसी भी बाजार की इस भेड़चाल की भी पोल खोलती है, जो एक प्रोडक्ट ज्यादा बिक जाने पर बिना सोचे समझे रंग बदलकर उसकी नकल निकालने के आइडिया से आगे सोच ही नहीं सकती. फिल्म की आत्मा शायद कहीं तेल लेने चली गई है क्योंकि पूरी फिल्म में हम पर डायलॉग्स की लगातार बमबारी होती है लेकिन न हंसना आता है, न रोना. दीपिका बार-बार गुस्से में पैर पटकती हुई इतनी ओवरएक्टिंग करती हैं कि ‘लव आजकल’ की उनकी बिलकुल इसी किरदार की अच्छी छवि को भूल जाने का मन करता है.
लेखक रेणुका और दानिश तो इम्तियाज से इतने प्रभावित हैं कि जाने-अनजाने सीन भी उठकर इधर आ गए हैं. कहीं आपको ‘सोचा न था’ दिखती है, कहीं ‘जब वी मेट’ और कहीं ‘लव आजकल’.
सब कुछ है. कहानी वैसी ही है और उसे दिखाने का अंदाज भी लेकिन सारे किरदार नकली हैं और वे लंबे लंबे तथाकथित ‘चुटीले’ डायलॉग लगातार बोलते जाते हैं. दीपिका और इमरान की कैमिस्ट्री ऐसी फिजिक्स बन गई है जिसका भार शून्य है. दीपिका ने जो एकाध अच्छे रोल किए हैं, उनके पुण्यों को वे इस पाप से लगभग धो ही लेती हैं. अब छोटे कपड़ों में उनके अच्छे शरीर के लिए ही फिल्म देखनी है तो बेहतर है कि मुफ्त में उनकी तस्वीरें ही देख ली जाएं. इमरान खान हमेशा की तरह ऐसे ब्याज की तरह हैं जो शायद आमिर खान के ऋणी इस देश को लगातार कचोटता है. वे कहीं और खोए से रहते हैं. हमारे कहने से एेक्टिंग तो वे छोड़ेंगे नहीं इसलिए यह भी हम पर अहसान होगा कि वे ठीक से हिन्दी बोलना ही सीख लें.
दानिश कुणाल कोहली के सहायक भी रह चुके हैं और कुणाल इस फिल्म के निर्माता भी हैं. कुणाल कोहली की ओवररेटेड बाकी फिल्मों और बॉलीवुड की अधिकांश हिट प्रेम कहानियों की लीक पर चलते हुए दानिश को भी शायद यह भ्रम है कि वे प्यार के बारे में सबसे ज्यादा जानते हैं और यह ज्ञान उन्हें दुनिया से बांटना चाहिए. इसीलिए उनके किरदार भी अपनी आधुनिक हिंग्लिश के बावजूद बीच-बीच में करण जौहर की फिल्मों की तरह प्यार, दुनिया और रिश्तों को बचाने के उपदेश देने लगते हैं.
‘दूसरों को खुशी देने से ही खुशी मिलती है’ टाइप बातें फिल्म को और असहनीय बनाती हैं. यहां तो प्रसून ‘लड़की क्यों’ जैसे वे गाने भी नहीं लिख पाते जिनकी शरण में कुछ शांति मिले. हां, गाने फिल्म से तो बेहतर हैं ही. फिल्म से बेहतर शुरू के टाइटल्स दिखाने का अंदाज भी है और आखिरी सीन भी, क्योंकि उसमें फिल्म खत्म होने की खबर छिपी है.