18 दिसंबर, 2010

खोसला, लकी और धोखा: दिबाकर बनर्जी


दिबाकर को इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता. बड़ी वजह यह है कि आप उनकी फिल्मों को बाकी निर्देशकों की तरह खास जॉनर या खांचों में नहीं बांट सकते. वे एक फिल्म बनाते हैं और उसे चाहने वाले दर्शकों का एक बड़ा वर्ग और फिर उसे भूलकर बिल्कुल अलग किस्म की दूसरी फिल्म बनाते हैं, जिससे दूसरा वर्ग जुड़ता है और दिबाकर अगली बार उसके भी वफादार नहीं रहते.
इसीलिए उनके काम में हर बार स्थायी रहे तत्वों को पहचानना भी मुश्किल है. यही चुनौती दिबाकर को सबसे खास बनाती है. आप न कॉमन चीजें ढूंढ़कर दूसरों को चमत्कृत कर सकते हैं और न ही उनके अगले काम के बारे में ज्यादा अनुमान लगा सकते हैं. आप ज्यादा से ज्यादा यह खोज कर सकते हैं कि उनकी फिल्मों में कॉमेडी कॉमन है (इस पर शायद आप बहस करना चाहें) और दिल्ली अपनी पूरी असलियत के साथ हर बार है. वे दर्शकों की आदत का खयाल रखते हुए उसे उस तरह नहीं दिखाते कि सब महत्वपूर्ण दृश्य कुतुब मीनार या पुराने किले में ही घटित हों. ओए लकी लकी ओए में कुतुब मीनार या इंडिया गेट बस लकी के बड़े होने की तस्वीरों में है और वहां भी वह इसे मजाकिया अंदाज में पेश करती है.
उनकी फिल्मों की भाषा और लहजे में इतना अपनापन है कि वह अपने आस-पास का होते हुए भी अजीब से आश्चर्य से भर देता है और बिना कोई अतिरिक्त प्रयास किए हंसाता है. इसीलिए खोसला का घोंसला एक त्रासद कहानी होते हुए भी एक रिटायर हुए आदमी का एक बेटा बेकार है, दूसरा विदेश जा रहा है और उसकी सारी जमापूंजी से खरीदा गया गुड़गांव का प्लॉट एक अमीर बिल्डर ने हथिया लिया है पारिवारिक कॉमेडी फिल्म के रूप में ज्यादा जानी जाती है. ऐसा ही कुछ ओए लकी लकी ओए के साथ है, लेकिन थोड़ा कम. वह हंसाती है लेकिन मध्यमवर्ग वाले पारिवारिक मूल्यों को तोड़ती है. लकी के पिता की नई पत्नी की नजर किशोर लकी पर है. शायद हिन्दी सिनेमा में ऐसा पहली बार ही होता है कि एक ही चेहरे वाले तीन अलग-अलग किरदार हैं. वे लकी की जिन्दगी के तीन अध्यायों की तरह हैं या तीन खलनायकों की, जो सिर्फ पैसे से प्यार करते हैं. लकी चोर है लेकिन वह पैसे से नहीं, चोरी से प्यार करता है इसीलिए हमें उससे प्यार हो जाता है.
लव सेक्स और धोखा कहानी और फॉर्म, दोनों के स्तर पर उनकी सबसे ज्यादा परंपरा तोड़ने वाली फिल्म है. उसके नाम में सेक्स है लेकिन सेक्स देखने के लिए उसे देखने वाले लोग गालियां देते हुए लौटते हैं. वह चर्चगेट की चुड़ैल और ऐसे ही वीडियो की घोषणाओं के साथ फुटपाथी उपन्यासों की शैली में शुरु होती है और आपको किसी भी तरह की बौद्धिक बहस का न्यौता नहीं देती, लेकिन फिर भी आश्चर्यजनक रूप से इस साल की सबसे ज्यादा परेशान करने वाली फिल्मों में से एक बन जाती है.
हां, यही दिबाकर की खासियत है. उनकी फिल्मों में लगातार एक दुख है, एक जिद्दी ईमानदारी जो उसे हंसकर झेलती है और समझ नहीं आता कि चुटीले डायलॉग्स से वह तकलीफ कम होती है या गहरी. कभी-कभी उल्टा भी होता है. खोसला साहब की बेचारगी और खुराना का कमीनापन दोनों हंसाते ही हैं, वहीं एलएसडी में बॉलीवुड की प्रेम-कहानियों का मजाक आगे पड़ने वाली चोट का असर और गहरा करता है. वहां वे आपकी खाल को पहले इतना नर्म करते हैं कि जब उसे काटा जाए तो दर्द बड़ा हो. इसीलिए एलएसडी के पहले हिस्से का अंत कम से कम आधे घंटे का ब्रेक मांगता है. वह तो नहीं मिलता क्योंकि फिल्म को आगे बढ़ना है लेकिन आप यह नहीं मान पाते कि वह फिल्म है. उनके कैमरे, जो तीनों कहानियों के खलनायक हैं, आपकी भीतर की नजर पर भी काबिज हो जाते हैं.
लेकिन अगर उनकी पहली दोनों फिल्मों को देखा जाए तो उनके पास एक अच्छी दुनिया है, बहुत सारी मुश्किलें लेकिन इतनी नहीं कि जिसके साथ आपकी सहानुभूति है, वह थोड़ा ज्यादा रो दे. एकाध आंसू तो चलता ही है. खासकर खोसला का घोंसला अच्छाई की जीत की ऐसी फिल्म है जो नए सिनेमा के अच्छे हिस्से में से खत्म होती जा रही हैं. वह नई जुबान के साथ, सब अच्छे अर्थों में पुरानी तरह की फिल्म है.
दिबाकर नए दौर के अकेले ऐसे फिल्मकार हैं जिनका कोई करीबी विकल्प हिन्दी सिनेमा के पास नहीं है. इसी तरह उनकी फिल्मों का भी.