
मैं नहीं जानता कि आपके लिए ‘गैंग्स ऑफ
वासेपुर’ गैंग्स की कहानी कितनी है, लेकिन मेरे लिए वह उस छोटे बच्चे
में मौज़ूद है, जिसने अपनी माँ को अपने दादा की उम्र के एक आदमी के साथ सोते हुए
देख लिया है, और जो उस देखने के बाद कभी ठीक से सो नहीं पाया, जिसके अन्दर इतनी आग
जलती रही कि वह काला पड़ता गया, और जब जवान हुआ, तब अपने बड़े भाई से बड़ा दिखता था।
फ़िल्म उस बच्चे में भी मौज़ूद है, जिसके ईमानदार अफ़सर पिता को उसी के सामने घर के
बगीचे में तब क्रूरता से मार दिया गया, जब पिता उसे सिखा रहे थे कि फूल तोड़ने के
लिए नहीं, देखने के लिए होते हैं। थोड़ी उस बच्चे में, जिसकी नज़र से फ़िल्म हमें
उसके पिता के अपने ही मज़दूर साथियों को मारने के लिए खड़े होने की कहानी दिखा रही
है। थोड़ी उस बच्चे में, जो बस रोए जा रहा है, जब बाहर उसके पिता बदला लेने का जश्न
मना रहे हैं। थोड़ी कसाइयों के उस बच्चे में, जिस पर कैमरा ठिठकता है, जब उसके और
उसके आसपास के घरों में सरदार ख़ान ने आग लगा दी है। फ़िल्म मेरे लिए उस कोयले की
खदान में भी जाकर ठहर गई है, जिसमें बारह घंटे से पहले रुकने पर खाल उधेड़ दी
जाएगी, जिसमें रोशनी कम है या हवा, यह ठीक से बताना मुश्किल है, और तब कभी-कभी
चमकती रोशनी में काले पड़े शरीर हैं, उस आदमी का चेहरा है, जिसे उस समय के बाद
हमेशा के लिए क्रूर हो जाना है, अपने लोगों को मारना है, उनके घर जलाने हैं और
शक्ति पानी है। और जब मरना है, तो अपने बेटे को उस आग में छोड़ जाना है, जिसमें वह
अपने बाल तभी बढ़ाएगा, जब अपने पिता के हत्यारे से बदला ले लेगा। और बदला नहीं
लेगा, कह के लेगा उसकी।
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