सिनेमा को मनोरंजन ही करना चाहिए या कुछ सार्थक कहने की कोशिश भी करनी चाहिए, इस पर लम्बी बहसें होती रही हैं लेकिन बहसों में पड़े बिना अस्सी और नब्बे के दशक के सतही दौर से हिन्दी सिनेमा को उबारने के लिए पिछले कुछ सालों में कई हाथ खामोशी से उठते गए हैं. किसी क्रांति के दावे किए बिना उन्होंने वह बनाया है, जिसे बनाने के लिए वे नागपुर, जमशेदपुर या बनारस की अपनी बेचैन रातें छोड़कर मुंबई आए थे. उसका हिस्सा पटकथा लेखक भी हैं, सिनेमेटोग्राफर, एडिटर और गीतकार, संगीतकार भी. उन सब के हिस्सों को पर्याप्त सम्मान देते हुए हम इस श्रंखला में उन निर्देशकों की बात कर रहे हैं जिन्होंने बिना नारे लगाए परंपरा बदली है. जिन्होंने हिन्दी फिल्मों की एक नई धारा विकसित की है जो मनोरंजन करने के लिए अपनी गहराई नहीं छोड़ती. सबसे पहले अनुराग...
कमाल अचानक नहीं होता, लेकिन लगता अचानक ही है. वह पहाड़गंज के एक बेंच जैसे बिस्तर पर होता है जहां चंदा देव को बताती है कि कैसे उसके प्रेमी ने उसका एमएमएस बनाया था, जो देश भर के लोगों ने डाउनलोड करके देखा. उन देखने वालों में उसके पिता भी थे जिन्होंने आत्महत्या कर ली, यह कहने की बजाय कि कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया सो हो गया, अब सब भूल जाओ.
देव, जो देवदास है, इससे पहले तक लोकप्रिय संस्कृति का सबसे कायर और निष्ठुर नायक, उसे गले से लगाता है और कहता है- कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया सो हो गया, अब सब भूल जाओ.क्या आपने ध्यान दिया कि ‘देव डी’ की सहानुभूति उस पिता के साथ बिल्कुल नहीं है जिसे आप बेचारा समझते हैं, तथाकथित रूप से जिसे अपनी इज्जत इतनी प्यारी है कि उसके बिना वह जी भी नहीं पाया. ‘देव डी’ उसे गाली देती है. वह और भी बहुत से नए काम करती है. मसलन पारो अपने पति के साथ खुश है और शादी के बाद अंधेरे कमरों में फूट-फूटकर नहीं रोती. और यह भी नियम नहीं है कि जिसे हीरो छोड़ दे, उसे ऐसा तलाकशुदा या विधुर ही मिले जो सिर्फ बच्चों का खयाल रखने के लिए शादी करना चाहता हो. उसकी चंदा किसी मजबूरी में वेश्या नहीं बनी. यह उसके लिए करियर है, साथ में पढ़ाई और दोस्त भी हैं. वह भी छिप-छिपकर नहीं रोती. उसके सुखांत में अपने ऊपर थोपी गई सारी महानता ठुकराकर देव स्वीकार करता है कि उसने कभी पारो से प्यार किया ही नहीं. इससे पहले देवदास तो क्या, कौनसा हीरो था जिसने यह कुबूला था?
हमारे समय की एक डार्क फिल्म में इतनी सकारात्मक चीजें हैं. भंसाली के भव्य संस्करण के बावजूद (जिसके सेट अपनी फिल्म की थीम का उदास असर काटने के लिए बेशर्मी से महंगे हैं) उसी मूल कथा पर बनी ‘देव डी’ सिनेमा की परिभाषा में डार्क इसलिए है क्योंकि उसकी आखिरी तह में गहरा अवसाद है, उसके रंगों और संगीत में वह बुखार है जिसमें अपना सिर आपको फूले हुए गुब्बारे जैसा लगने लगता है. अच्छी बात यह होती है कि एक अखबार अपनी समीक्षा में उसे पांच सितारे देता है और अखबार देखकर फिल्म देखने निकलने वाली जनता हाउसफुल कर देती है. वे अनुराग कश्यप को जानने लगते हैं. हालांकि वे ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘नो स्मोकिंग’ के बारे में नहीं जानते और न ही अगले महीने रिलीज होने वाली कहीं ज्यादा अंधेरी ‘गुलाल’ के लिए उतना उत्साह दिखाते हैं. उन्हें प्रेम कहानियां चाहिए जो अनुराग के पास ज्यादा नहीं हैं और हों भी तो शायद वे बनाना नहीं चाहते. वे शायद ‘सत्या’ और ‘शूल’ भी नहीं बनाना चाहते जो उनकी लिखी सबसे सराही गई फिल्मों में से हैं.
अनुराग का नायक ही है जो अपने पास बैठी शरीफ समझी जाने वाली औरत का बस-टिकट इस बात पर खा जाता है क्योंकि वह उसे शराब न पीने की बिन मांगी सलाह दे रही होती है. वह अपने चेहरे और नाम बदलता है लेकिन गुस्सा नहीं छूटता. ‘पांच’ के केके में वह चरम पर है, ऊपरी सतह पर लगभग बेवजह लगता हुआ, जो नैतिकतावादियों को अपनी सीट पर आराम से नहीं बैठना देता. ‘गुलाल’ में उस गुस्से के पीछे विश्वासघात और मोहभंग है. ‘ब्लैक फ्राइडे’ में वह गुस्सा सामूहिक है इसलिए सबसे ज्यादा तार्किक लगता है. ‘नो स्मोकिंग’ में वही गुस्सा खूबसूरत है. उसका जादुई यथार्थ उसे कोमल बनाता है. सायास-अनायास जब साहित्य में भी कविता हाशिये पर जा रही है, तब ‘नो स्मोकिंग’ अनुराग की सबसे काव्यात्मक फिल्म है. उसके बनने के बाद भी वैसी किसी फिल्म का बॉलीवुड में बनना असंभव सा लगता है. वही है, जिसे देखकर आप अनुराग की हदें जान सकते हैं. वही है, जिसे देखकर आप बेहतर समझ सकते हैं कि क्यों अनुराग कश्यप अचानक फिल्म-निर्देशक बनने की चाह रखने वाले युवाओं के आदर्श हो गए हैं. यदि नई तरह का सिनेमा वह है, जो अपने दर्शकों से इतनी मोहब्बत करता है कि उनकी परवाह ही नहीं करता, जो हर घटना की वजह बताने को वक्त को जाया करना समझता है, जो इशारों में बात करने से पहले या बाद उनके मतलब नहीं समझाता तो हां, ‘नो स्मोकिंग’ उस नए सिनेमा की अगुआ फिल्मों में से एक है. वह जिन्दगी की तरह है, जो आपको नहीं बताती कि कलम पकड़ने वाली आपकी उंगलियां और सच बोलने वाली जुबान क्यों काटी जा रही हैं?
नए दौर के फिल्मकारों में अनुराग और विशाल सबसे ज्यादा असहज करते हैं. उनकी फिल्में हिंसा और जटिलताओं के बीच मासूम और निरीह हैं. अपनी गालियों के बीच वे सबसे साफ और निर्दोष जुबान हैं.