विशाल भारद्वाज के भीतर दो तरह के विशाल भारद्वाज हैं. कमीने के गुड्डू और चार्ली की तरह, लेकिन दोनों हकलाते या तुतलाते नहीं हैं. एक के पास अपार दुख, विश्वासघात और क्रोध की कहानियां हैं और दूसरे के पास बच्चों की कहानियां.
आप ‘ब्लू अम्ब्रेला’ देखते हुए शायद नहीं कह सकते कि ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ से उसका इतना करीबी रिश्ता है. लेकिन आप संवादों पर ध्यान दें तो यह इतना मुश्किल भी नहीं है. उनकी फिल्मों की अभूतपूर्व क्षेत्रीय बोली, स्थानीय गालियां और मुहावरे जिसके जरूरी हिस्से हैं, उन्हें विश्वसनीय बनाती है. यही बात है, जो ‘ब्लू अम्ब्रेला’ को ‘ओमकारा’ से जोड़ती है. दूसरी बात सिनेमेटोग्राफी और लगातार गहराता हुआ दुख और अकेलापन है. अपनी कमजोर कहानी के बावजूद ‘कमीने’ भी यही खूबियां साझा करती है. ‘कमीने’ और ‘ब्लू अम्ब्रेला’ के बेचैन हैंडहेल्ड शॉट दिबाकर की ‘एल एस डी’ की तरह ही असहज करते हैं और आपकी आराम की आदतों को तोड़ते हैं.
नए दौर के कई और फिल्मकारों के साथ विशाल का असली विद्रोह हिन्दी फिल्मों के अवास्तविक लगते डायलॉग्स से ही है. वे अपनी और इसीलिए हमारी भाषा बोलते हैं. बच्चों के मासूम सवाल और बड़ों के अश्लील मजाक, उतनी ही सच्चाई से. उनके अपराधी तमीज से बात नहीं करते और शायरी की उपमाएं नहीं देते. उनकी नायिकाएं अपने नायकों को प्यार से हरामखोर, भेड़िया या संपोला कहती हैं. भाषा की वास्तविकता के प्रति उनका यह आग्रह इतना पुख्ता है कि ‘कमीने’ में बंगाली भाई कई मिनट बंगाली में ही बात करते हैं. इससे बिल्कुल बेफिक्र कि दर्शक उसे समझते हैं या नहीं. इसी तरह वे ‘ओमकारा’ की भाषा में लगातार एक खेल खेलते हैं. अपनी कहानी और किरदारों के प्रति ईमानदार रहना उनके लिए दर्शकों की सहूलियत का खयाल रखने से ज्यादा जरूरी है. उदासी उनकी फिल्मों का स्थायी भाव है. ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ के अंत से काफी पहले शुरु होकर, खत्म होने के बहुत बाद तक वह उदासी आपके भीतर पैठ जाती है. इसमें शायद शेक्सपियर के उन नाटकों का भी काफी असर है, जिससे ये फिल्में प्रेरित हैं. लेकिन एक बड़ा हिस्सा विशाल का भी है. आत्मा से आत्मा तक पहुंचता उनका संगीत उनकी फिल्मों को और बड़ा कर देता है.
उनमें दुखांतों के प्रति गहरा मोह भी है. एक न खत्म होने वाला गुस्सा और दुख, जिसका इसके अलावा कोई प्रायश्चित नहीं कि वह अपने साथ सबको खत्म कर ले. उनके यहां यथार्थ इतना नंगा है कि झूठ बोलकर उसे छिपाया भी नहीं जा सकता. उनके किरदारों के प्रेम में इतना जुनून है कि उसके लिए वे अपनी और दूसरों की सब सल्तनतें जलाकर राख कर सकते हैं. सबसे दुखद यह है कि सामान्य दुखांतों की तरह मरकर भी उनके नायक शांति नहीं पाते. खुद को गोली मारने से पहले ओमी जानता है कि उसे न यहां चैन मिलेगा, न मरने के बाद. यही मकबूल भी जानता है. बस गुड्डू और चार्ली के पास वे गलतियां और विश्वासघात नहीं हैं, इसलिए न वैसी अशांति है और न ही इतना दुख. इसलिए उसका मृत्यु से पगा हुआ अंत बाद में महीनों तक दुखी नहीं करता, लेकिन शायद विशाल के लिए हर कथा में वह जरूरी है.
विशाल के सिनेमा को जानने के लिए उनके संगीत को जानना भी उतना ही जरूरी है. वे मूलत: कवि ही हैं जो हिंसा दिखाते हुए भी अपनी कोमलता नहीं छोड़ता. ‘माचिस’ के ‘छोड़ आए हम वो गलियां’ की तरह उनके संगीत और फिल्मों में बार-बार वही नॉस्टेल्जिया है जो उनकी फिल्मों को बॉलीवुड की अब तक की मुख्यधारा से अलग दुनिया देता है. ऐसा लगता है कि उनका कुछ ‘ओमकारा’ में मरती डॉली के साथ या ‘ब्लू अम्ब्रेला’ में गाना गाकर चंदा मांगते बच्चों के साथ छूट गया है. वे देर तक ‘जग जा री गुड़िया’ गाना चाहते हैं और समय बार-बार उनकी गुड़िया के मुंह पर तकिया रखकर उसका दम घोट देता है. उनका सारा सिनेमाई संघर्ष इसी गलती के कभी न हो सकने वाले प्रायश्चित से है. वे इस मजबूरी पर फिल्में खत्म करते हैं कि काश! पीछे लौटकर कुछ बदला जा सकता. एक नीली छतरी की चोरी (यह सब तब है, जब मूल कहानियां उनकी नहीं हैं) पंकज कपूर को हत्यारे जितने अवसाद से भर देती है. वह मकबूल जितना ही अकेला है. अंधेरा और बाहर की दुनिया उसे उतना ही डराती है. वही बाहर, जिसके उत्सवों से उसे बेदखल कर दिया गया है क्योंकि उसने शिद्दत से कुछ चाहा है और इस चक्कर में दुनिया और दुनियादारी को बिल्कुल भूल गया है. विशाल उसका पक्ष भी नहीं लेते और इसीलिए आपको एक लम्बी उदासी में डुबो देते हैं. वे हिंसा का सौंदर्यशास्त्र गढ़ते हैं, जिसमें दुख कुछ ज्यादा हो गया है. यही उन्हें हिन्दी सिनेमा में जरूरी भी बनाता है.