01 मई, 2012

"सेक्शुएलिटी से हमेशा पुरुषों को ही क्यों परेशानी होती है?" : अनुराग कश्यप




(अनुराग कश्यप से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत पर आधारित यह लेख 'तहलका' के सिनेमा विशेषांक (15 मई, 2012) में छपा है। अनुराग जिस ईमानदारी से अपने जीवन और काम के बारे में बात करते हैं, वह 'सही' और 'अच्छा' होने के इस समय में बहुत दुर्लभ है। उनका शुक्रिया कि वे उम्मीद जगाते हैं और बेशर्म अँधेरे में टॉर्च लेकर खड़े रहते हैं।) 




दैट गर्ल इन यलो बूट्स
के समय सब बोल रहे थे कि क्यों बना रहे हो? मत बनाओ। मुझे जितने ज्यादा लोग बनाने से मना करते हैं मुझे उतना ही लगता है कि मुझे यह फिल्म जरूर बनानी चाहिए।

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18 मार्च, 2012

‘क्या सर सर लगा रखा है? मुझसे बात कीजिए ना!’

एक अकेली गर्भवती औरत, अनजान शहर में अपने पति को ढूंढ़ती और वह शहर भी शोर और भीड़ से भरा कोलकाता, जो उसका नाम भी अपनी मर्ज़ी से बदल देता है जैसा ये सब महानगर हम सबके साथ करते हैं, और जो उसे यक़ीन दिलाना चाहता है कि हारकर अपने घर ज़िन्दा लौट पाना भी इस हत्यारे समय में बहुत बड़ी बात है। और इस कहानी से आप सोच रहे होंगे कि अपने पति की इकलौती तस्वीर हाथ में लेकर कोलकाता की तंग गलियों में घूमती यह औरत बहुत आँसू बहाएगी, उन ‘यथार्थपरक’ फ़िल्मों की तरह, जो हमारे यहाँ फ़ेमिनिस्ट फ़िल्में बनाने का सबसे लोकप्रिय ढंग रहा है। वे फ़िल्में, जो दुनिया को आईना तो दिखाती हैं, लेकिन अपनी स्त्री को हिम्मत कभी नहीं देतीं। वे उसे डांस बार में नाचते, वेश्या बनते, कास्टिंग काउच में शरीर देकर हीरोइन बनते बार-बार दिखाते हैं क्योंकि उनमें शरीर दिखाने के बहुत मौके हैं और इस तरह ‘एंटरटेनमेंट वैल्यू’ भी, और इस तरह राष्ट्रीय पुरस्कार भी। ख़ैर छोड़िए, अब तो एक राष्ट्रीय पुरस्कार हमारी विद्या बालन के पास भी है और यह राष्ट्रीय पुरस्कारों की ज्यूरी के लिए निश्चित रूप से गर्व करने की बात है।

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06 अक्तूबर, 2011

साहेब, बीवी और गैंगस्टर: बीवी बदली, सिनेमा नहीं


तिग्मांशु के पास माहौल बहुत सारे लोगों के सिनेमा से अलग है। ज़मीन, जंगल और हवेली, तीनों को वे अच्छे से पहचानते हैं लेकिन इनके साथ कहानी कैसे कहनी है, यह शायद उतने अच्छे से नहीं। उनके अपने प्रशंसक हैं जो उत्तर प्रदेश के अपराध और राजनीति के गठजोड़ की कहानियों के लिए उन्हें उम्मीद भरी नज़रों से देखते हैं और कुछ दफ़ा मुझे भी लगा है कि शायद उनके सिनेमा में वाकई ऐसा कुछ अद्भुत हो जो उन्हें मेरे पसंदीदा निर्देशकों में से एक अनुराग कश्यप के पसंदीदा निर्देशकों में से एक बना देता है। लेकिन वह जो भी अद्भुत है, मैं उसे पकड़ नहीं पाया।

साहेब बीवी और गैंगस्टर औसत से अच्छी तो है लेकिन उससे ज़्यादा नहीं।

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13 सितंबर, 2011

The Insider: एक आदमी जो ज़्यादा जानता था

अच्छी थ्रिलर बनाना तब और मुश्किल हो जाता है जब आपको ना किसी की हत्या की गुत्थी सुलझानी हो और ना पैसा और जीत जैसे किसी प्रत्यक्ष मैकगफ़िन के पीछे भागना हो। इस ख़ूबसूरत फ़िल्म में निर्देशक माइकल मैन और उनके साथ इस फ़िल्म को लिखने वाले लेखक एरिक रोथ बहुत स्वाभाविक ढंग से तनाव पैदा करते हैं। एक सच्ची कहानी, कॉर्पोरेट, पत्रकारिता और एक वैज्ञानिक की, जो बहुत आसानी से किसी उबाऊ रपट जैसी बन सकती थी, उसमें आप भावुक होते हैं और बार-बार परेशान होते हैं कि किसी भी कीमत पर सच के साथ खड़े होने वाले लोगों को हमने इतना अकेला क्यों छोड़ दिया है।

इसे देखने के बाद आप और गहराई से जानेंगे कि कैसे 'हमेशा आपके साथ' जैसी टैगलाइनों और प्यारे बच्चों की मुस्कुराहटों वाले विज्ञापन देने वाली कम्पनियाँ आपकी जान को मिट्टी जितना महत्व भी नहीं देतीं, आज़ाद प्रेस का मतलब क्या है और जब जब आप चैन की साँस लेते हैं, बाहर धूप या बारिश में कितने लोग उन सचों को सामने लाने के लिए अपनी साँसें रोककर रिपोर्टिंग करते हैं और गवाहियाँ देते हैं, जो आपके ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी हैं।

इस फ़िल्म की बात इसके संगीतकारों Pieter Bourke और Lisa Gerrard के काम से मोहब्बत हो जाने की बात कहे बिना ख़त्म नहीं की जा सकती। और ना ही Russell Crowe के गले लगने की ख़्वाहिश पैदा किए बिना।

जिस रिपोर्ट पर यह फ़िल्म बनी है, उसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं- The Man Who Knew Too Much

The Insider (1999)
English
Director- Michael Mann
Writer- Eric Roth, Michael Mann, Marie Brenner
Cast- Russell Crowe, Al Pacino



25 जुलाई, 2011

Still Walking: "मैंने माँ को कभी कार में नहीं बिठाया"


एक बेटा है जो छोटे शहर में अकेले रहने वाले माता-पिता से मिलने जाता है, एक रात के लिए। बस उन चौबीस घंटों की बड़ी कहानी। पिता, जो तब अख़बार पढ़ते रहते हैं जब सब फ़ैमिली फ़ोटो खिंचवा रहे हैं। माँ, जिसने उस एक रात के लिए बेटे के लिए पाजामा खरीदकर रखा है और बेटा अपने साथ लाए कपड़े ही पहनना चाहता है। माँ, जो मज़ाक में अपनी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना बताती है कि उसका दिल करता था कि अपने बच्चों की कार में बैठकर शॉपिंग करने जाए। यह बच्चों के लिए छोटी बात है। इतनी आसान कि कहते हैं, कभी भी चलो। लेकिन कब?

इन सबके बीच में ही गहरा दुख बैठा हुआ है। अन्दर कहीं जमा हुआ, जिसमें बाथरूम की पुरानी टाइलों की तरह धीरे-धीरे अन्दर कुछ टूटता जाता है। हम सबके दुख, जिनसे हमें ठीक से नज़रें मिलाना भी नहीं आता। यह भी नहीं आता कि अगली सुबह बस अड्डे पर छोड़ने आए माँ बाप से विदा लेंगे तो क्या कहेंगे? कौनसी बात है जो उन्हें तसल्ली दे सकेगी कि जब वे मरेंगे तो अकेले नहीं होंगे? क्या हमीं को ख़ुद पर यक़ीन है?

इसे देखने से मत चूकिए। यह rare फ़िल्म है।

Still Walking (Aruitemo Aruitemo) - 2008
Japanese

Director- Hirokazu Koreeda
Cast- Hiroshi Abe, Yui Nutsukawa, You



05 जुलाई, 2011

कांति शाह के पास पैसा होता तो वे Delhi Belly से बेहतर फ़िल्म बनाते


मैंने कुछ साल पहले एक बच्चे को बाकी बच्चों को एक चुटकुला सुनाते देखा और सुनाने से पहले सुनाने वाले ने बाकी बच्चों से यह कहा कि सुनने के बाद जो नहीं हँसा, वह बेवकूफ़ होगा। चुटकुला पूरा हुआ और कई बच्चे हँसे। 

आमिर ख़ान ने अपनी महान फिल्म के प्रचार के दौरान भी ऐसा ही कुछ कहा कि पकाऊ और खूसट लोगों को यह फ़िल्म पसंद नहीं आएगी। यह लगभग ऐसा ही है कि कचरा दिखाने से पहले कहा जाए कि आपको यह सुन्दर नहीं लगा तो आपको ख़ूबसूरती की समझ नहीं है। डेल्ही बैली से जुड़ी हँसने की यही इकलौती बात है कि कोई आदमी, चाहे वह कितना भी बड़ा स्टार क्यों न हो, दर्शकों को इतना बेवकूफ़ कैसे समझ सकता है।

नहीं जी, हमें गालियों से कोई प्रॉब्लम नहीं है और न ही किसी ऐसी चमत्कारिक नई चीज से, जिससे अक्षत वर्मा और अभिनय देव हमें चौंकाना चाहते हैं। हम हर नई चीज के लिए बाँहें फैलाकर बैठे हैं और कब से इस इंतज़ार में हैं कि यहाँ भी कोएन ब्रदर्स या टैरंटिनो की भाषा का इस्तेमाल करके अच्छी फिल्में बनें। लेकिन आपके इस नई तरह के सिनेमा के क्रांतिकारी नारे से हमें ऐतराज़ है। क्योंकि आपके पास कहने को तीन भी ग्राम नई बात नहीं है और बाकी चीजें तो आप भूल ही जाइए।

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02 जुलाई, 2011

The Breakfast Club: "जब आप बड़े होते हैं तो आपका दिल मर जाता है"




एक दिन की कहानी। छुट्टी का एक दिन, लेकिन स्कूल में। पाँच किशोर जिन्हें उनकी दुनिया उसी नज़र से देखना चाहती है जो नज़र उसने ख़ुद बनाई है। यह आसान है ना कि एक को पढ़ाकू समझ लें और दूसरे को सुन्दर लेकिन बेवकूफ़। और चूंकि वे सिर्फ़ वही स्टीरियोटाइप नहीं हैं, जो आपने गढ़े हैं तो नियम तो टूटेंगे ही। तब आप फ़िक्र करेंगे कि बीस साल बाद दुनिया का क्या होगा जब हम बूढ़े हो जाएँगे और ये बच्चे देश चलाएँगे। यह बच्चों और किशोरों के साथ हमारे समाज के दोगले व्यवहार की प्यारी सी कहानी है। कि कैसे आपने अपनी कुंठाओं को खत्म करने के लिए उनका इस्तेमाल किया है, कैसे अपनी नाकामियों का ग़म भुलाने को आप अपनी उम्मीदें उनके सिर पर लाद देते हैं और फिर जब वे कहते हैं कि आपने उन्हें कुचल दिया है तो आप कहते हैं - "हमने बच्चों के लिए क्या क्या किया और अब वे सब भूल गए।" 
                     शुक्र मनाइए साहब कि भूल गए। जो आपने उनके साथ किया, वही लौटाते तो क़यामत ना आ जाती? 


The Breakfast Club (1985)
English
Director- John Hughes
Cast- Emilio Estevez, Molly Ringwald, Judd Nelson, Anthony Michael Hall, Ally Sheedy



14 जून, 2011

अपने ही रचे हुए शोर में भटकी शैतान


शैतान का एक छोटा सा हिस्सा है जिसमें कहानी फ्लैशबैक के अन्दर फ्लैशबैक में जाती है और दो-चार मिनट में ही आपको दिखाती है कि एक अमीर पिता की औलाद ने अपने पिता से पैसे ऐंठने के लिए क्या किया। कहानी को सुनाते हुए आपको बताते रहना कि हम कहानी सुना रहे हैं और उसकी संरचनात्मक बातें मज़ेदार ढंग से अपने दर्शकों के साथ बाँटना, यह बहुत कम कहानियों में होता है। हिन्दी फिल्मों में तो ऐसी कोई नई लहर शायद अब तक नहीं आई जिसमें पात्र अपनी कहानी के स्पेस से बाहर आकर अचानक कैमरे से बातें करने लगें या अपने दर्शकों को इतना समझदार मान लें कि कहानी कहते हुए उसके बनने की प्रक्रिया के बारे में बात करने की हिम्मत करें।

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14 मई, 2011

शागिर्द: आधे हथियार और मिट्टी से इश्क़

तिग्मांशु धूलिया के पास कुछ ऐसी चीजें हैं जो उनकी शैली की फिल्में बनाने वाले समकालीन फिल्मकारों के पास उस तरह से नहीं हैं। अनुराग और विशाल के पास आपराधिक डार्क ह्यूमर हैं लेकिन अनुराग उनकी कहानियाँ कहते कहते थोड़ा शहर की तरफ बढ़ जाते हैं और विशाल गाँव की तरफ। अपनी पहली फिल्म ‘हासिल’ की तरह तिग्मांशु छोटे शहर या कस्बे को बेहद विश्वसनीय ढंग से दिखाते हैं। हैरत की बात यह है कि इस बार वे पुरानी दिल्ली में उसे खोजते हैं। इस तरह उनकी पूरी फिल्म मिट्टी के रंग की हो जाती है।

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04 मई, 2011

शोर in the City: वे आपका भेजा उड़ाएँगे और दिखाएँगे कि शहरों से मोहब्बत कैसे की जाती है


शोर इन द सिटी बॉलीवुड की कमबैक फ़िल्म है। बस इस कथन में से थोड़ी सी अतिशयोक्ति कम कर दें तो जो बचता है, बिल्कुल वही। मुम्बई की भीड़ में भी यह किसी बच्चे की पहली साँस जितनी ताज़ी है। यह शोर में सुकून तलाशती है और पाती भी है। यह अपने शहर से रूठती है और मान भी जाती है। उसे कोसती भी है और दुआएँ भी देती है। शहर चुप मुस्कुराता रहता है और किसी सुहानी शाम में उसे जी भर के चूमता है।

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